राहुल गांधी ने सावरकर की माफीनामे को प्रेस कांफ्रेंस में दिखाते हुए, उस माफीनामे का एक अंश दिखाया, जिसमे, 'ओबिडियेंट सर्वेंट' शब्द लिखा है। यह एक औपचारिक पत्र लेखन प्रथा का समापन शिष्टाचार है, जैसे योर सिंसेयरली, फेथफुली, ओबिडियेंटली आदि आदि लिखा जाता है। ब्रिटिश राज में, सरकार को लिखी जाने वाली चिट्ठी के अंत में, 'आई एम योर मोस्ट ओबिडिएंट सर्वेंट' लिखे जाने की प्रथा रही है। इसलिए कि, वहां सरकार का अर्थ, क्राउन, यानी ब्रिटेन का सम्राट होता था। ब्रिटेन एक लोकतंत्र तो है, पर एक राजतंत्र के आवरण में। हालांकि उनका राजतंत्र, एक आभूषण की तरह है, पर वह आभूषज यानी, क्राउन यानी ताज, ब्रिटिश सत्ता या साम्राज्य का प्रतीक माना जाता है। अब साम्राज्य तो रहा नहीं, पर सम्राट और क्राउन अब भी है।
सोशल मीडिया पर और, मेरे इनबॉक्स में भी, एक मित्र बार बार गांधी जी का एक पत्र शेयर कर रहे हैं कि, यदि ओबिडियेज्ट सर्वेंट लिखना ही माफीनामा है तो, गांधी जी भी तो, यही शब्द लिखते थे। उन्होंने सुबूत के रूप में, 22 जून 1920 का गांधी जी द्वारा, तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को लिखे एक पत्र का स्क्रीन शॉट शेयर किया कि, इसमें भी तो, ओबिडियेंट सर्वेंट लिखा है।
चूंकि स्क्रीन शॉट पर भेजा गया पत्र अधूरा था और उससे सिर्फ यह पता चल रहा था कि, गांधी जी ने, खिलाफत आंदोलन के संबंध में वाइसरॉय को यह पत्र लिखा था तो, पूरा पत्र पढ़ने की उत्कंठा हो गई। पूरा पत्र मुझे नेट पर मिल गया। लाहौर से छपी एक किताब की पीडीएफ फाइल मिली जिसका शीर्षक है, "फेमस लेटर्स ऑफ महात्मा गांधी"। इस साइट पर मिली किताब में यह पूरा पत्र मिल गया। पत्र का भी स्क्रीन शॉट दे दे रहा हूं, आप पढ़ सकते हैं। वैसे मैने उसका टेक्स्ट भी दे दिया है और उसका हिंदी अनुवाद भी।
पत्र पढ़ने से पता चलता है कि, यह पत्र वायसरॉय को भेजा गया एक अल्टीमेटम है, कोई माफी की दरख्वास्त नहीं है।
हुआ यह था कि, जब प्रथम महान युद्ध समाप्त हो गया था, तब पेरिस में, तुर्की शांति संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे, जिसके तहत तुर्की को विघटित किया जाना था और रक्षा उद्देश्यों के लिए केवल कॉन्स्टेंटिनोपल क्षेत्र को, खलीफा/सुल्तान को दिया गया था। युद्ध के दौरान, तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री, लॉयड जॉर्ज ने, मुस्लिम जगत को आश्वासन दिया था कि, तुर्की को एशिया माइनर और थ्रेस की समृद्ध भूमि से वंचित नहीं किया जाएगा। लेकिन, उपरोक्त संधि, इन आश्वासनों और वादों का क्रूर उल्लंघन थी। जिससे दुनियाभर के मुसलमान इस संधि शर्त पर भड़क गए थे। महात्मा गांधी ने, उस समय मुस्लिम समाज के इस मसले को अपना पूरा समर्थन दिया और भारत के मुसलमानों को, वायसराय की सरकार से, अपना समर्थन वापस लेने की सलाह दी। मुस्लिम भावनाओं के लिए की गई इस भड़काऊ और, क्रूर हिंसा का विरोध करते हुए, गांधी जी ने, लॉर्ड चेम्सफोर्ड को भेजे, अपने इस पत्र में, मित्र राष्ट्रों के लिए मुस्लिम मसलों को, हल करने की सलाह दी और ऐसा न करने पर, उन्होंने वायसराय को, यह अल्टीमेटम भी दिया कि, तब, असहयोग एकमात्र रास्ता है।
यह खिलाफत आंदोलन का प्रारंभ था। एक अल्टीमेटम था। वायसरॉय को चेतावनी थी। कोई माफीनामा नहीं था। अब पत्र पढ़िए,
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हमने ब्रिटिश न्याय में विश्वास खो दिया है!
योर एकसिलेंसी
महामहिम के विश्वास के एक निश्चित अंश, का आनंद लेने वाले और ब्रिटिश साम्राज्य के समर्पित शुभचिंतक होने का दावा करने वाले के रूप में, मैं महामहिम के लिए और महामहिम के मंत्रियों के लिए, खिलाफत के बारे में, अपने विचार बताने के लिए आप का आभारी हूं।
युद्ध के सबसे शुरुआती चरण में, जब मैं लंदन में भारतीय स्वयंसेवी एम्बुलेंस कोर में अपनी सेवायें दे रहा था, तभी मैं, खिलाफत के सवाल में दिलचस्पी लेने लगा था। मैंने महसूस किया कि, जब तुर्की ने जर्मनी के साथ अपनी किस्मत जोड़ने का फैसला किया था तो, लंदन में मुस्लिम समाज, कितनी शिद्दत से परेशान हो गया था। 1915 की जनवरी में, जब मैं लंदन आया, तो, जिन मुसलमानों के साथ मेरा संपर्क हुआ था, उनमें, मुझे वही उत्कंठा और उत्साह दिखाई दिया। जब गोपनीय संधियों की जानकारी लीक होने लगी तो, उनकी (मुसलमानों की) चिंता तीव्र हो गई। उनके मन में ब्रिटिश इरादों के प्रति आशंकाएं भर गई और निराशा ने उन्हें घेर लिया। उस क्षण भी, मैंने अपने मुसलमान मित्रों को सलाह दी कि, वे निराश न हों, बल्कि अनुशासित तरीके से, अपने भय और अपनी आशाओं को अभिव्यक्त करें। यह तो, मानना होगा कि, पूरे भारत के मुसलमानो ने पिछले पांच वर्षों के दौरान, संयमित तरीके से व्यवहार किया है और यह भी सच है कि, उनके नेता, अपने समुदाय के अशांत लोगों को पूर्ण नियंत्रण में रखने में सक्षम रहे हैं।
1. हिंसा का सहारा लेना।
2. थोक पैमाने पर पलायन की सलाह देना।
3. सरकार के साथ सहयोग करना बंद करके, उनके अन्याय का पक्षकार नहीं बनना।
महामहिम को इस बात से अवगत होना चाहिए कि, एक समय था, जब सबसे साहसी, हालांकि मुसलमानों के बीच सबसे विचारहीन भी,हिंसा का पक्ष लेते थे और हिजरत (प्रवासन) अब एक युद्ध घोष नहीं रह गया है। मैं यह दावा करने का साहस करता हूं कि, मैं, उनके बीच की हिंसा को धैर्यपूर्वक तर्क के अपने तरीकों से दूर करने में सफल हुआ हूं। मैं स्वीकार करता हूं कि, मैं उन्हें नैतिक आधार पर हिंसा से दूर करने में सफल नहीं हुआ। मैंने सफल होने का प्रयास भी नहीं किया। बल्कि विशुद्ध रूप से, मैने यह समय की जरूरत के अनुसार, उपयोगितावादी आधार पर किया है। फ़िलहाल किसी भी क़ीमत पर, परिणाम हिंसा को रोकने का रहा है। हिजरत की प्रथा, यदि पूरी तरह से बंद नहीं हुई है तो, उस पर कुछ रोक अवश्य लगी है। मेरा मानना है कि कोई भी दमन एक हिंसक विस्फोट को नहीं रोक सकता है, यदि लोगों के समक्ष, प्रत्यक्ष कार्रवाई का कोई ऐसा रूप, प्रस्तुत नहीं किया जाता है, जिसमें बड़े पैमाने पर जनता द्वारा बलिदान और सफलता की उम्मीद से भरी, सीधी कार्यवाही न हो। असहयोग ऐसी सीधी कार्रवाई का एकमात्र गरिमापूर्ण और संवैधानिक रूप है, क्योंकि अनादि काल से , यह एक मान्यता प्राप्त अधिकार है कि, गलत शासन करने वाले शासक की सहायता करने से, जनता इंकार कर दे।
साथ ही मैं, यह भी स्वीकार करता हूं कि बड़ी संख्या में लोगों द्वारा किया जाने वाला असहयोग, गंभीर जोखिमों के साथ जुड़ा हुआ है। लेकिन भारत के मुसलमानों पर आए इस संकट में कोई भी ऐसा कदम, जो बिना सोचे विचारे उठाया गया हो, बिना जोखिम उठाए, वांछित परिवर्तन नहीं ला सकता है। कुछ जोखिमों का न उठाना, कानून और व्यवस्था के बड़े जोखिमों को, जन्म देना होगा जो सचमुच में, विनाश लायेगा।
लेकिन अभी भी, असहयोग से बचा जा सकता है। मुस्लिम प्रतिनिधित्व ने, महामहिम से अनुरोध किया है कि, आप स्वयं इस आंदोलन का नेतृत्व करें, जैसा कि दक्षिण अफ्रीका संकट के समय आपके पूर्वाधिकारी ने किया था। लेकिन, यदि आप ऐसा, करने का कोई तरीका नहीं देख पा रहे हैं, तो असहयोग एक अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। मुझे आशा है कि, महामहिम उन लोगों की सुनेंगे, जिन्होंने मेरी सलाह को स्वीकार किया है और मुझे कर्तव्य की एक कठोर भावना से कम, कुछ भी नहीं होने का श्रेय दिया है।
मुझे आप का आज्ञाकारी सेवक बने रहने का सम्मान प्राप्त हो।
(Sd.) एम. के. गांधी.
लैबर्नम रोड, गामदेवी, बॉम्बे। 22 जून, 1020।
इस पत्र की भाषा और सावरकर द्वारा भेजे गए माफीनामे की भाषा को तुलनात्मक रूप से पढ़े। सावरकर के माफी नामे, आप आगे पढ़ेंगे। यह लेख अभी जारी रहेगा। अनुवाद में त्रुटि हो सकती है, इसलिए मैं मूल अंग्रेजी का टेक्स्ट दे दे रहा हूं।
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WE HAVE LOST FAITH IN BRITISH JUSTICE !
"Your Excellency,
As one who has enjoyed a certain measure of Your Excellency's confidence and as one who claims to be a devoted well wisher of the British Empire, I owe it to Your Excellency and through Your Excellency to His Majesty's ministers to explain my connection with and my conduct in the Khilafat question.
At the very earliest stage of the War, even while I was in London organising the Indian Volunteer Ambulance Corps, I began to interest myself in the Khilafat question. I perceived how deeply moved the Mussalman world in London was when Turkey decided to throw in her lot with Germany. On my arrival in January of 1915, I found the same anxiousness and earnestness among the Mussalmans with whom I came in contact. Their anxiety became intense when the information about the secret treaties leaked out. Distrust of British intentions filled their minds and despair took possession of them. Even at that moment. I advised my Mussalman friends not to give way to despair but to express their fears and their hopes in a disciplined manner. It will be admitted that the whole of the Mussalman India has behaved in a singularly restrained manner during the past five years and that the leaders have been able to keep the turbulent sections of their community under complete control.
The peace terms and Your Excellency's defence of them have given the Mussalmans of India a shock from which it will be difficult for them to recover. The terms violate the ministerial pledges and utterly disregard Mussalman's sentiments. I consider that, as a staunch Hindu wishing to live on terms of the closest friendship with my Mussalman countrymen, I should be an unworthy son of India if I did not stand by them in their hour of trial. In my humble opinion their cause is just. They claim that Turkey must not be punished if their sentiment is to be respected. Muslim soldier did not fight to inflict punishment on their own Khalifa or to deprive him of his territories. The Mussalman attitude has been consistent throughout these five years.
My duty to the Empire, to which I owe my loyalty, requires me to resist the cruel violence that has been done to the Mussalman sentiment so far as I am aware. Mussalmans and Hindus have, as a whole, lost faith in British justice and honour. The report of the majority of the Hunter Committee, Your Excellency's despatch thereon and Mr. Montagu's reply have only aggravated the distrust.
In these circumstances, the only course open to one like me is either in despair to sever all connections with British rule or, if I still retained faith in the inherent superiority of the British constitution to all others at present in vogue, to adopt such means as will rectify the wrong done and thus restore confidence. I have not lost faith in such superiority and I am not without hope that somehow or other justice will yet be rendered if we show the requisite capacity for suffering. Indeed, my conception of that constitution is that it helps only those who are ready to help themselves. I do not believe that it protects the weak. It gives free scope to the strong to maintain their strength and develop it. The weak under it go to the wall.
It is then because I believe in the British constitution that I have advised my Mussalman triends to withdraw their support from Your Excellency's Government and the Hindus to join them should the peace terms not be revised in accordance with the solemn pledges of ministers and the Muslim sentiment. Three courses were open to the Mohammedans in order to mark their emphatic disapproval of the utter injustice to which His Majesty's ministers have become a party if they have not actually been the prime perpetrators of it. They are
1. To resort to violence.
2. To advise emigration on a wholesale scale.
3. Not to be a party to the injustice by ceasing to co-operate with the Gov- ernment.
Your Excellency must be aware that there was a time when the boldest, though also the most thoughtless among the Mussalmans favoured violence and that Hijrat (emigration) has not yet ceased to be a battle-cry. I venture to claim that I have succeeded by patient reasoning in weaning the party of violence from its ways. I confess that I did not-I did not attempt to-succeed in weaning them from violence on moral grounds but purely on utilitarian grounds. The result for the time being at any rate has, however, been to stop violence. The school of Hijrat has received a check if it has not stopped its activity entirely. I hold that no repression could have prevented a violent eruption if the people had not presented to them a form of direct action involving considerable sacrifice and ensuing success if such direct action was largely taken up by the public. Non-co-operation was the only dignified and constitutional form of such direct action, for it is the right recognised from times immemorial of the subject to refuse to assist a ruler who misrules.
At the same time I admit the non-co-operation practised by the mass of people is attended with grave risks. But in a crisis such as has overtaken the Mussalmans of India no step that is unattended with large risks can possibly bring about the desired change. Not to run some risks will be to court much greater risks if not virtual destruction of law and order.
But there is yet an escape from non-co-opera- tion. The Mussalman representation has requested Your Excellency to lead the agitation yourself as did your distinguished predecessor at the time of the South African trouble. But if you cannot see your way to do so, non-co-operation becames a dire necessity. I hope Your Excellency will give those who have accepted my advice and myself the credit for being actuated by nothing less than a stern sense of duty.
I have the honour to remain, Your Excellency's obdt. servant.
(Sd.) M. K. GANDHL
Laburnum Road, Gamdevi, Bombay. 22nd June, 1020.
०००
क्रमशः...
(विजय शंकर सिंह)
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