Wednesday, 16 November 2022

नोटबंदी: सरकार ने कहा, यह फैसला सोच समझ कर लिया गया था./ विजय शंकर सिंह


सुप्रीम कोर्ट में, 8 नवंबर 2016 को रात, 8 बजे की गई नोटबंदी के बारे में दायर जनहित याचिकाओ की सुनवाई चल रही है। इसमें सरकार ने, अदालत से अपना पक्ष रखने को कहा था। सरकार ने अदालत को बताया है कि,

"2016 में किया गया, करेंसी नोटों का विमुद्रीकरण (नोटबंदी), "नकली नोटों के खतरे, बेहिसाब (अनअकाउंटेड/अधोषित) धन के भंडारण, और आतंकी गतिविधियों की फंडिंग या वित्तपोषण" से निपटने के लिए, उठाया गया, एक बड़ा आर्थिक कदम था, और यह "स्टैंडअलोन या पृथक आर्थिक नीति" जैसी कोई कार्यवाही नहीं थी।" यानी, यह फैसला, किसी एक का और बिना सोचे विचारे नहीं किया गया था, बल्कि गंभीर विमर्श के बाद, इसे लागू किया गया था।

भारत सरकार ने एक हलफनामा दायर करते हुए अपनी बात अदालत में रखी और कहा,
"यह नीति आर्थिक नीतियों और घटनाओं की कड़ी में "एक सुविचारित निर्णय" और "एक महत्वपूर्ण कार्रवाई" थी, जिसका उद्देश्य "औपचारिक अर्थव्यवस्था को मजबूत करना, उसका विस्तार करना, अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को कमजोर करना, काले धन को जड़ से खत्म कर देना और उसका उन्मूलन करना था।"
केंद्र सरकार ने आगे कहा कि
"वह उस वर्ष (2016 की) फरवरी से प्रस्तावित नीति के बारे में भारतीय रिजर्व बैंक के साथ भी परामर्श कर रही थी।"
सरकार के इस कथन का आशय है कि, 2016 में नोटबंदी लागू होने के पहले से ही, सरकार, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से इस बारे में विचार विमर्श कर रही थी।

केंद्र सरकार ने, नोटबंदी से हुए लाभों को गिनाते हुए कहा कि,
"नोटबंदी से नकली नोटों में कमी, डिजिटल लेन-देन में वृद्धि, बेहिसाब आय का पता लगाने जैसे कई लाभ हुए हैं।"
डिजिटल भुगतान लेनदेन में हुई वृद्धि के आंकड़े देते हुए सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है, 
"साल, 2016 में, डिजिटल भुगतान लेनदेन की मात्रा ₹6952 करोड़ के मूल्य के 1.09 लाख थी। अक्टूबर 2022 के, एक महीने में, डिजिटल भुगतान की राशि, ₹12 लाख करोड़ से अधिक हो गई और ट्रांजेक्शन (लेनदेन) की संख्या बढ़ कर, 730 करोड़ तक पहुंच गयी।"
यह एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है और यह बात सही भी है कि, ट्रांजेक्शन और डिजिटल भुगतान की राशि में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यहीं यह, सवाल भी उठता है कि, क्या डिजिटल लेनदेन या आर्थिकी के लिए नोटबंदी जैसा कठोर आर्थिक कदम उठाने की जरूरत थी और डिजिटल आर्थिकी का विस्तार करने के लिए, इस अपरिहार्य कदम का और कोई विकल्प नहीं था ? यह सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए।

गिरती विकास दर का आरोप भी नोटबंदी पर लगाया जाता रहा है। नोटबंदी का असर सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी विकास पर पड़ा भी और जीडीपी में 2% की गिरावट भी आई। इस पर सरकार ने अदालत में, इस गिरावट को क्षणिक कहा है,
"आर्थिक विकास पर विमुद्रीकरण का समग्र प्रभाव क्षणिक था, वास्तविक विकास दर वित्त वर्ष 16-17 में 8.2% और वित्त वर्ष 17-18 में 6.8% थी, दोनों पूर्व-महामारी के वर्षों में 6.6% की दशकीय विकास दर से अधिक थी।"

यह हलफनामा सरकार की इस विवादास्पद नीति को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक बैच के जवाब में केंद्र द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसके द्वारा अर्थव्यवस्था में 86% मुद्रा को संचलन से वापस ले लिया गया था। यानी, देश में जितनी करेंसी, 8 नवंबर 2016 तक 500 रुपये और 1000 रुपये के रूप में थी, वह अन्य समस्त करेंसी का 86% थी। नोटबंदी  के लगभग छह साल बाद, 12 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने वित्त मंत्रालय द्वारा जारी 8 नवंबर के परिपत्र, जिसमे इसकी घोषणा की गई थी को, चुनौती देने वाली 58 याचिकाओं के एक बैच की सुनवाई शुरू की। इस सुनवाई पीठ में जो, पांच जज हैं, वे हैं,  जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर, बी.आर.  गवई, ए.एस.  बोपन्ना, वी. रामासुब्रमण्यन, और बी.वी. नागरत्ना।

भारत में, विमुद्रीकरण के पहले दो प्रकरण रहे हैं। भारत में पहली बार 1946 में ब्रिटिश सरकार ने 1000 रुपये और 10000 रुपये के नोटों को प्रचलन से हटा दिया था। 1946 में, वायसराय और भारत के वाइसरॉय, सर आर्चीबाल्ड वेबेल ने उच्च मूल्यवर्ग (डिनोमिनेशन) के बैंक नोट विमुद्रीकरण अध्यादेश को जारी किया था। दूसरा, 1978 में, संसद द्वारा, उच्च मूल्यवर्ग के बैंक नोट विमुद्रीकरण अधिनियम को, एक अध्यादेश के स्थान पर लागू किया गया था। तब, मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे और जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार में, 1978 में भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर, आईजी पटेल थे।

सरकार द्वारा, दाखिल हलफनामा के संदर्भ में वरिष्ठ अधिवक्ता पी चिदंबरम ने 2016 की नोटबंदी के खिलाफ चुनौती की सुनवाई कर रही संविधान पीठ से पूछा,
"यदि धारा 26 ने सरकार को यह शक्ति दी है, तो 1946 और 1978 में पहले हुई, नोटबंदी के दौरान अलग-अलग अधिनियम क्यों बनाए थे?
यदि शक्ति थी, तो 1946 और 1978 के अधिनियम 'धारा 26 में निहित कुछ भी होने के बावजूद' शब्दों से क्यों शुरू हुए?" 
"संसद ने महसूस किया कि इस तरह की शक्ति नहीं थी। क्या सरकार संसदीय कानून या बहस के बिना इस शक्ति का प्रयोग कर सकती है?"

इस सवाल के जवाब में, केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया है कि,
"विवादित अधिसूचना "भारतीय रिजर्व बैंक या भारतीय संघ के दायित्व को समाप्त नहीं करती है।" उन देनदारियों की समाप्ति के लिए, निर्दिष्ट बैंक नोट (दायित्वों की समाप्ति)  अधिनियम, 2017, संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था।  उस अधिनियम में कहा गया है कि "विनिर्दिष्ट बैंक नोट जो कानूनी निविदा नहीं रह गए हैं, वित्त मंत्रालय में भारत सरकार की अधिसूचना के मद्देनजर, भारतीय रिजर्व बैंक की धारा 26 की उप-धारा (2) के तहत जारी किए गए हैं।  अधिनियम, 1934, धारा 34 के तहत रिज़र्व बैंक की देनदारियों को समाप्त कर देगा और धारा 26 की उप-धारा (1) के तहत केंद्र सरकार की गारंटी को समाप्त कर देगा।"

"नोटबंदी की कवायद की वैधता, संघ ने बनाए रखी है, हालांकि "स्वयं में मान्य" 2017 अधिनियम में "संसद द्वारा भी सकारात्मक रूप से नोट किया गया है"।  "उपर्युक्त को देखते हुए, अधिसूचना के लिए कोई भी चुनौती अब शेष नहीं है,"
यह दावा सरकार द्वारा किया गया है। सरकार ने आगे कहा,
"1946 और 1978 दोनों प्रकरणों की अपनी "अलग अलग ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विशिष्ट संदर्भ और पहलू या कारक" थे, केंद्र ने पिछले उदाहरणों के साथ, हाल में की गई नोटबंदी की तुलना करने के लिए, याचिकाकर्ताओं के प्रयासों पर अपनी आपत्ति को ध्यान में रखते हुए भी अपनी बात कही है।"

याचिकाकर्ताओं की इस दलील, "निर्णय लेने की प्रक्रिया "गहरी त्रुटिपूर्ण" थी और इसका कार्यान्वयन समान रूप से दोषपूर्ण था, को खारिज करते हुए केंद्र सरकार ने अदालत को बताया कि,
"2016 का विमुद्रीकरण "एक सुविचारित निर्णय" था, जिसे "रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ व्यापक परामर्श" के बाद लिया गया था। बैंक ने इस हेतु, अग्रिम तैयारी भी की थी। इस आर्थिक कदम पर, रिज़र्व बैंक के साथ, भारत सरकार का परामर्श, वर्ष 2016 की फरवरी में शुरू हो चुका था, हालांकि "परामर्श की प्रक्रिया और निर्णय लेने को गोपनीय रखा गया था।" 
हलफनामे में, सरकार ने नई श्रृंखला के बैंक नोटों की छपाई सहित प्रारंभिक चरण के दौरान किए गए विभिन्न उपायों को भी रेखांकित किया है, जो "गोपनीयता और गोपनीयता की बाधा" के तहत किया गया था।

अंत में, सरकार द्वारा "जनता को होने वाली असुविधा को कम करने" के लिए विशेष रूप से कृषि क्षेत्र में किए गए विभिन्न उपायों पर भी प्रकाश डाला गया है। भारत संघ (यूनियन ऑफ इंडिया) ने अदालत से कहा,
"जनता को होने वाली असुविधा को कम करने और आर्थिक गतिविधियों के व्यवधान को कम करने के लिए सभी संभव उपाय किए गए थे। अल्पकालिक असुविधा और व्यवधानों को बड़े संदर्भ के साथ समग्रता में देखा जाना चाहिए।"
अंत में, यह केंद्र द्वारा प्रस्तुत किया गया है, कि संविधान पीठ को "अधिसूचना की वैधता से निपटने के लिए आगे बढ़ने के लिए राजी नहीं किया जा सकता है"।  सरकार का हलफनामा याद दिलाता है कि "सुप्रीम कोर्ट ने आम तौर पर आर्थिक नीतियों के क्षेत्र में फैसलों की न्यायिक समीक्षा से परहेज किया है।"

सरकार ने अपने हलफनामे में वही बात कही है, जो नोटबंदी के बाद, तत्कालीन वित्तमंत्री ने,कहा था। पर एक कटु तथ्य यह भी है कि, आज तक सरकार यह आंकड़े तक नहीं दे पाई कि, नकली नोट कितने बरामद हुए हैं, काला धन कितना सामने आया है और नकदी का कितना चलन कम हुआ है। अदालत में जब इन सब पर बहस होगी तो ऐसे कई सवाल पूछे जाएंगे और तब यह देखना दिलचस्प होगा कि, सरकार, जिन उद्देश्यों को अपने हलफनामे में गिना रही है, उसमे से कितने उद्देश्य पूरे हुए हैं और यदि वे पूरे नहीं हुए हैं तो उसका कारण क्या है। अदालत में सरकार का यह कहना कि, "सुप्रीम कोर्ट आम तौर पर आर्थिक नीतियों की न्यायिक समीक्षा से परहेज करता रहा है" यह बताता है कि, सरकार नोटबंदी के मुद्दे पर लंबी और गंभीर अदालती सुनवाई से बचना चाहती है क्योंकि, सरकार को भी इस बात का एहसास हो गया है कि, नोटबंदी के कदम से, उसके उद्देश्य, जो इस फैसले के बाद से बराबर बताए जा रहे हैं, पूरे नहीं हुए हैं। फिलहाल यह मामला अदालत में है और अभी सरकार ने अपना पक्ष रखा है, आगे क्या होता है, यह देखना दिलचस्प रहेगा।

© विजय शंकर सिंह)

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