Saturday, 12 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (12)

जब अवध पर डलहौज़ी ने कब्जा किया, तो उन्हें पूरे दोआब के मैदान की सुरक्षा पक्की कर लेनी चाहिए थी। जब उनके पास ख़ुफ़िया रिपोर्ट आ गए थी तो, दिल्ली, लखनऊ आदि में पहले ही यूरोपीय सैनिक क्यों नहीं बढ़ा दिए? यह आलोचना ब्रिटेन में होती रही।

मेरठ में विद्रोह के बावजूद उनकी छावनी मजबूत थी। वे आक्रमण नहीं कर रहे थे, मगर उनके अनुसार वह किसी भी भारतीय हमले को दबाने की क्षमता रखते थे। उन्होंने बाग़ियों और आस-पास के गुर्जर या अन्य हमलावरों की सूची तैयार करनी शुरू कर दी थी। उनकी एक टुकड़ी अब दिल्ली की ओर भी निकल रही थी।

लेकिन, कानपुर और लखनऊ में तो अंग्रेजों की हालत डाँवा-डोल थी। दोनों एक-दूसरे से मदद माँग रहे थे, और दोनों के पास देने के लिए ख़ास था नहीं। लॉर्ड कैनिंग ने तो ऐसी चिट्ठी भेजी, जिसे पढ़ कर कानपुर छावनी का रहा-सहा हौसला भी खत्म होने लगा। उन्होंने लिखा,

“कलकत्ता से रानीगंज तक ट्रेन जा रही है। वहाँ से 18 सिपाही प्रति दिन के हिसाब से डाक कंपनी बनारस तक पहुँचा रही है। मद्रास से बैलगाड़ियों (bullock train) पर सिपाही आए हैं। इन बैलगाड़ियों पर सौ सिपाही तीस मील प्रति दिन की गति से निकलेंगे। इन 900 सिपाहियों के बनारस पहुँचने में बीस दिन तो लग जाएँगे। बनारस से स्टीमर पर डेढ़ सौ सिपाही निकले हैं, पहुँच ही रहे होंगे। बाकी, बॉम्बे, सीलॉन, पेगू से भी सिपाही आएँगे।”

यानी, अगले तीन हफ़्ते तक कानपुर को सहयोग की उम्मीद नहीं थी। इसमें मई-जून महीने की उमस और गर्मी भी ध्यान में रखा जाए, जब बीस दिन की यात्रा में विदेशी सिपाहियों की स्थिति क्या होती होगी। इस चिट्ठी से यह अंदाज़ा लगता है कि क्यों 1857 के बाद रेलवे लाइन और सड़क निर्माण का कार्य तेज़ी से चलने लगा। 

6 जून को ठीक 10 बजे कानपुर छावनी पर पहला आक्रमण हुआ जब 9 पाउंड का एक बारूद-गोला उनके बैरक पर गिरा। वहाँ मुख्यत: यूरोपीय महिलाएँ जमा थी, जिनमें अफ़रातफ़री मच गयी। चूँकि ब्रिटिशों में भी एक अलग तरह की वर्ग-व्यवस्था थी, तो बड़ी अफ़सरों के मेमसाहबों को अधिक सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया। कम महत्व की यूरोपीय महिलाओं को अपने हाल पर छोड़ दिया गया, जो उनके संस्मरणों में वर्णित है।

अंग्रेज़ों ने अपने होवित्ज़र तोपों से ज़ोरदार जवाबी हमला किया, और एक हमले से कम से कम बीस भारतीय मर रहे थे। हालाँकि मरने वालों में कानपुर के आम लोग अधिक थे, जो तमाशा देखने पहुँच गए थे। भारतीय सिपाहियों को इन हमलों के अनुभव थे, तो वे बेहतर पोज़ीशन में थे।

भारतीय सिपाहियों को छावनी की पूरी जानकारी भी थी, तो उनमें से कई सीधे अंग्रेजों के रणनीतिक बिंदुओं पर हमले कर रहे थे। 8 जून तक कानपुर के मुख्य अफ़सर जैसे कर्नल विलियम, पार्कर, ब्रिगेडियर जैक आदि मारे जा चुके थे। इसमें एक कैप्टन मूर का ज़िक्र आता है, जिनकी कंधे की हड्डी टूट गयी थी, लेकिन एक हाथ में छोटी बंदूक लिए लड़ रहे थे। उसी रात वह अपने सहयोगियों के साथ चुपके से छावनी से निकल कर दो 24 पाउंड भारतीय होवित्ज़र तोप भी चुरा लाए।

पास ही डंकन होटल में बैठे नाना साहेब को जब तोप चोरी की खबर मिली, तो वह भड़क उठे। वह स्वयं मैदान के पास सावदा हाउस में रहने आ गए। हालाँकि इसकी संभावना कम है कि नाना साहेब सैन्य-रणनीति में अधिक दख़लंदाज़ी देते होंगे, लेकिन उनका भविष्य इस युद्ध पर ही टिका था। रेजिमेंट सेना की कमान में टीका सिंह, गंगाधर मिश्र, और राधे सिंह जैसे बाग़ी सिपाहियों का नाम मिलता है।

अब कानपुर छावनी की हालत खस्ता हो रही थी। खाने-पीने की रसद खत्म होने लगी थी। छावनी के अंदर जो भारतीय सिपाही थे, उन्हें जनरल व्हीलर ने एक चरित्र प्रमाण-पत्र बना कर दिया और कहा कि वे भाग जाएँ। आस-पास की छोटी छावनियों में भी अंग्रेजों की हत्या हो रही थी। चौबेपुर छावनी में लगभग सभी अंग्रेज़ मारे गए, और सिर्फ़ लेफ़्टिनेंट बोल्टन बच कर आ सके। 

12 जून की सुबह नाना साहेब के सामने एक विचित्र नज़ारा था। कुल 120 यूरोपीय नागरिकों की शृंखला रस्सी में बाँध कर लायी जा रही थी। इन्हें फतेहगढ़ छावनी से नाव पर भागते हुए बिठूर में पकड़ लिया गया था, और बाँध कर कानपुर तक लाया गया था। उनके वर्णन के अनुसार जून की उस गर्मी में उन्हें पूरे रास्ते पानी भी नहीं दिया गया। 

यह स्पष्ट नहीं कि नाना साहेब उनके साथ क्या सलूक करना चाहते थे, लेकिन उनके भाई बाला राव और अज़ीमुल्ला ख़ान संभवत: उन्हें मारने के समर्थन में थे। जो भी हुआ हो, अधिकांश अंग्रेजों को सामने के गड्ढों में खड़ा कर दिया गया। उनके हाथ बाँध दिए गए और हरेक के सामने बंदूक लेकर एक सिपाही खड़े हो गए। कानपुर बाज़ार के लोग वहाँ उत्साह से नारे लगा रहे थे- ‘मर फिरंगी!’

बाला राव साहेब ने आदेश दिया, और उन सभी को एक झटके में कुछ उसी तरह मार दिया गया जैसे पेशावर में निकोलसन ने मारा था। अंतर यह था कि ये सिपाही नहीं, यूरोपीय नागरिक थे, जिनमें औरतें और बच्चे भी थे। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ यह हिंसा अभी और भी होनी थी।

कानपुर में एक घाट है- सती चौरा घाट, जिसे 1857 के बाद मसकर (massacre) घाट भी बुलाया जाने लगा।*
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - दो (11) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-11.html

*ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार

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