ग़ालिब - 45.
ग़ालिब पर बेदिल का प्रभाव.
आहंग ए असद में नहीं,
जुज़ नग़्मा ए बेदिल !!
Aahang e Asad mein nahin,
juz naghma e Bedil !!
- Ghalib.
ग़ालिब के गीतों में बेदिल के गीतों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.
बेदिल, उपनाम है उस शायर का जिसे ग़ालिब अपना मार्गदर्शक या प्रेरणाश्रोत मानते थे. बेदिल मूलतः फारसी के शायर थे उनका पूरा नाम मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल था. उनका समय 1642 से 1720 तक था. वे फारसी की सूफी परंपरा के शायर थे. फारसी के शायर होने के बावज़ूद भी उनके पुरखों की भाषा फारसी नहीं बल्कि तुर्की थी. वे तुर्क मुगल रक्त के थे और उनका जन्म अजीमाबाद जो अब पटना है , में हुआ था. मुग़ल दरबार के आश्रित होने के कारण इन्होंने दरी फारसी सीखी और उसी में अपना साहित्य रचा. कविताओं की 16 पुस्तकें इनके द्वारा लिखी गयी है. इनकी किताबों, तिलस्म ए हैरत, तूर ए मरफात, रुक़्क़ात ने मिर्ज़ा ग़ालिब को बहुत प्रेरित किया. धार्मिक परिवेश में पले बढे होने के बावज़ूद भी बेदिल उदार विचारधारा के थे. उनके उदार विचारों का तत्कालीन कट्टरपंथी जमात ने भी बहुत विरोध किया. ग़ालिब स्वीकार करते हैं कि सूफी और विराट दर्शन की परंपरा उन्हें बेदिल के साहित्य से ही मिली. ग़ालिब ही नहीं आधुनिक उर्दू के एक और महान शायर अल्लामा इक़बाल भी खुद को उनसे प्रभावित मानते थे.
बेदिल की रचनाएं गंभीर तो होती थीं पर एक प्रकार का चुलबुला पन उनमें था. उस समय के फारसी साहित्य के परम्परागत आलोचकों ने उस जटिल और शोखी भरे अर्थों से युक्त साहित्य की बहुत नहीं सराहा. यह साहित्य का एक नया आंदोलन था. गंभीरता के साथ एक प्रकार का चुलबुलापन जो ग़ालिब के शायरी में दीखता है वह बेदिल का ही प्रभाव. भारत से अधिक बेदिल ईरान और अफगानिस्तान में सराहे गए. अफगानिस्तान में तो उनके साहित्य पर शोध करने वालों को बेदिल शिनास ही कहा जाता है. यही नहीं मध्य एशिया में प्रचलित, इंडो पर्शियन संगीत कला में सबसे लोकप्रिय ग़ज़लें बेदिल की ही मानी जाती है. उनका देहांत दिल्ली में ही हुआ और उनकी मज़ार मथुरा रोड के पुराने किले के पास मेजर ध्यान चन्द नेशनल स्टेडियम के पास है.
© विजय शंकर सिंह
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