Monday, 27 November 2017

27 नवम्बर, पुण्यतिथि, वीपी सिंह - एक स्मरण / विजय शंकर सिंह

27 नवम्बर के ही दिन जब हम सब चिंतित हो कर टीवी के सामने चुपचाप आक्रोशित मुद्रा में मुंबई हमले का ज़ीवित प्रसारण देख रहे थे तो उसी समय टीवी पर एक पट्टी में वीपी सिंह के निधन का समाचार गुजरा था । किसी ने नोटिस लिया तो किसी ने उसे गुजर जाने दिया । निधन से अधिक महत्वपूर्ण खबर पाकिस्तान द्वारा मुम्बई पर हमले की, टीवी पर चल रही थी।

वीपी सिंह भारतीय राजनीति के ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपार बहुमत ही सत्ता की कसौटी नहीं होता है, का मिथक तोड़ा था । 1989 के जन मोर्चा के वे दिन जिन लोगों को याद होंगे वे यह ज़रूर बताएंगे कि वीपी सिंह का 1989 में उदय और उनकी लोकप्रियता के दम पर ही होने वाला आम चुनाव एक करिश्मा था । वीपी सिंह की सरकार बनी और उसका समर्थन किया था भाजपा और वामदलों ने। यह भी एक अजब राजनीति की गजब कहानी थी। लेकिन कुछ साथी नेताओं की महत्वाकांक्षा ने दक्षिण और वाम की बैसाखी पर चलती हुयी इस लंगड़ी सरकार को गिरा दिया ।

वीपी सिंह एक समय जितने लोकप्रिय हुए थे उतने ही यह अलोलप्रिय भी हुये । कारण अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये मंडल कमीशन को लागू करने का निर्णय था । आग की तरह इस निर्णय का विरोध हुआ । अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट गया और वहीं से अंतिम फैसला हुआ । इस फैसले के कारण अपने सजातीय समाज के भी यह निशाने पर रहे । आज इनकी पुण्यतिथि है। उनके साथ मेरे कुछ व्यक्तिगत संस्मरण भी हैं, जो फिर कभी साझा होंगे । वीपी सिंह के योगदान पर बहुत बहस होती रहती है । आगे भी होती रहेगी ।

संभवतः विरोधाभास उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। इलाहाबाद के पास मांडा के रहने वाले राजा मांडा के नाम से प्रसिद्ध वीपी सिंह ने  युवावस्था में ही अपनी रियासत की बहुत सारी जमीन उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से प्रेरित होकर दान कर दी थी।  देहरादून में अपनी करोड़ों अरबों की जमीन उन्होने ऐसे ही छोड़ दी उन लोगों के पास जो नाममात्र का किराया देकर वहाँ दुकानें आदि चलाते थे। वी.पी सिंह उन बिरले राजनेताओं में से रहे हैं जिन पर कभी धन के भ्रष्टाचार का आरोप कोई नहीं लगा सका । उन्हे सिर्फ एक राजनेता ही नहीं कहा जा सकता। श्री वी.पी सिंह में कई व्यक्तित्व दिखायी देते हैं और उन्हे सिर्फ किसी एक मुद्दे पर खारिज नहीं किया जा सकता। वे एक बेहतरीन कवि, लेखक, चित्रकार और फोटोग्राफर भी थे।

मंडल कमीशन लागू करने के सामाजिक और राजनीतिक निर्णय ने उनके व्यक्तित्व को बहुत हद तक भ्रम भरे बादलों के पीछे ढ़क दिया है। उनके राजनीतिक जीवन का मूल्यांकन राजनीतिक इतिहास लिखने वाले लोग करेंगे पर राजनीति से परे उनके अंदर के कलाकार पर तो लेखक और कलाकार समुदाय निगाह डाल ही सकता है। उनकी कविता में गहरे भाव रहे हैं। उन्होने तात्कालिक परिस्थितियों से उपजी कवितायें भी लिखीं जो काल से परे जाकर भी प्रभाव छोड़ने की माद्दा रखती हैं। कांग्रेस से इस्तीफा देते समय उन्होने यह कविता भी रची थी।

तुम मुझे क्या खरीदोगे
मैं बिल्कुल मुफ्त हूँ

उनकी कविता आधुनिक है, उसमें हास-परिहास, चुटीलापन भी है और व्यंग्य भी। उनकी कविता बहुअर्थी भी है। बानगी देखिये।

काश उसका दिल एक थर्मस होता
एक बार चाह भरी
गरम की गरम बनी रहती
पर कमबख्त यह केतली निकली।

वे नेताओं के राजनीतिक जीवन की सांझ के दिनों पर भी कविता लिखे बिना नहीं माने।

उसने उसकी गली नहीं छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है
फटे इश्तेहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले
निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता।

कविता भारत के लगभग हर नेता के जीवन का सच उजागर कर देती है।

आदर्शवाद उनकी कविताओं में भी छलकता है और शायद इसी आदर्शवाद ने उन्हे राजनीति में कुछ खास निर्णय लेने के लिये प्रेरित किया होगा।

निम्नलिखित कविता में नेतृत्व को लेकर कितनी बड़ी बात वे कह गये हैं।

मैं और वक्त
काफिले के आगे-आगे चले
चौराहे पर …
मैं एक ओर मुड़ा
बाकी वक्त के साथ चले गये ।

प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने 1996 में एक लेख में उनके बारे में ये शब्द लिखे थे, जो पठनीय हैं ,
" सन् नब्बे के बाद हमारी राजनीति को बुनियादी रूप से किसी ने बदला है तो वीपी सिंह ने. कांग्रेस को किसी एक राजनेता ने निराधार किया है तो उसी में से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने. लेकिन वे एक असाध्य रोग से दिन बचाते हुए रचनात्मक ऊर्जा में जी रहे हैं. जो मृत्यु से, कविता और चित्र से साक्षात्कार करके उसे अप्रासंगिक बनाता हुआ उस के पार जा रहा हो, उसकी सर्जनात्मक स्थितप्रज्ञता को भी थोड़ा समझिए. वह प्रणम्य । "

वे एक संवेदनशील और सहृदय व्यक्ति थे। वे संभवतः समय से आगे थे । आज उनकी पुण्यतिथि पर उनका विनम्र स्मरण और श्रद्गंजलि ।

© विजय शंकर सिंह

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