Monday, 20 November 2017

20 नवम्बर , पुण्यतिथि, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - एक स्मरण / विजय शंकर सिंह

आज फ़ैज़ साहब की पुण्य तिथि है। फ़ैज़ उर्दू के महानतम शायरों में से एक गिने जाते है । वे प्रगतिशील विचारों और मेहनतकश अवाम के स्वर थे। पत्रकार विनोद दुआ, फ़ैज़ साहब के बारे में अपने एक लेख में लिखते हैं, 

" बंटवारे के बाद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए. नाइंसाफी, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ मुखरता से लिखने वाले शायर के रूप में मक़बूल हुए फ़ैज़ को अपने लेखन के लिए जेल जाना पड़ा. उन पर चौधरी लियाक़त अली ख़ान का तख़्ता पलटने की साज़िश करने के आरोप लगे.

उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और वे करीब पांच साल जेल में रहे. जेल में रहने के दौरान तमाम नायाब रचनाओं को शक्ल दी जो उनके दो संग्रहों ‘ज़िंदानामा’ और ‘दस्ते-सबा में दर्ज हैं. 1977 में तख़्तापलट हुआ तो उन्हें कई बरसों के लिए मुल्क़ से बेदख़ल कर दिया गया. 

1978 से लेकर 1982 तक का दौर उन्होंने निर्वासन में गुज़ारा. हालांकि, फ़ैज़ ने अपने तेवर और विचारों से कभी समझौता न करते हुए कविता के इतिहास को बदल कर रख दिया । "

अपने काव्य विकास की यात्रा के बारे में बताते एक बार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कहा था कि,  

" श्रमिक आन्दोलनों और प्रगतिशील साहित्य आन्दोलन से जुड़कर उन्होंने सीखा कि अपनी ज़ात को बाकी दुनिया से अलग करके सोचना अव्वल तो मुमकिन ही नहीं, इसलिए कि इसमें बहरहाल गर्दो-पेश के सभी तजुर्बात शामिल होते हैं और अगर ऐसा मुमकिन हो भी तो इंतहाई गैर सूदमंद फेल है कि इनसानी फर्द की ज़ात अपनी सब मुहब्बतों और कुदरतों, मुसर्रतों और रंजिशों के बावजूद, बहुत ही छोटी सी, बहुत ही महदूद और हकीर शै है। इसकी वुसअत और पहनाई का पैमाना तो बाकी आलमे मौजूदात से उसके ज़हनी और जज्बाती रिश्ते हैं, खास तौर से इनसानी बिरादरी के मुश्तरका दुख-दर्द के रिश्ते। चुनांचे गमे जानां और गमे दौरां तो एक ही तजुर्बे के दो पहलू हैं। "

आशावाद उनकी कविता का केन्द्रीय स्वर है। कविताओं के ताने-बाने में, उसकी पृष्ठभूमि में वह मौजूद रहता है। जीवन के सभी कष्टों को इसके सहारे ही हल्का करते हैं। वे दु:ख और निराशा को अस्थायी मानते हैं और जीवन में भरोसा करते हैं। जेल जीवन की सघन पीड़ा को भी उन्होंने यह समझकर सह लिया। यह आशावाद उनको जीवनी शक्ति प्रदान करता है। उनका आशावाद हवाई-लफ्फाज़ी पर नहीं, बल्कि ठोस जमीन पर है। जन संघर्षों की जमीन से जुड़ा यह आशावाद एक शासन सत्ताओं की दहशत को, उनके खौफ को चाक-चाक कर देता है। उन्होंने अपने वतन में बार-बार बर्बर व दमनकारी फौजी शासन को देखा और जनता की आजादी व स्वाभिमान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनते देखा। उनका आशावाद यथार्थ की जमीन को नहीं छोड़ता।

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नजऱ चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले ।

यह गज़ल सुनिये, आबिदा परवीन के सूफियाना स्वर में , 

शामे-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गयी
दिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर सम्हल गयी

बज़्मे-खयाल में तेरे हुस्न की शमा जल गयी
दर्द का चंद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गयी

जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक उठी
जब तेरा ग़म जगा लिया, रात मचल-मचल गयी

दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने, बात बदल बदल गयी

आखिरे-शब के हमसफर, फ़ैज़ न जाने क्या हुए
रह गयी किस जगह सबा, सुबह किधर निकल गयी
--फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ।

https://youtu.be/2iuNXQlZrUU

© विजय शंकर सिंह 


No comments:

Post a Comment