Monday, 20 November 2017

पद्मिनी लोक नायिका है, जातीय गौरव नहीं - जयराम शुक्ल का एक लेख / विजय शंकर सिंह

पद्मावती विवाद पर जयराम शुक्ल जी का यह लेख पढ़ें ।  यह लेख अकादमिक दृष्टिकोण से लिखा गया है , न कि भावना से संक्रमित हो कर ।
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पद्मिनी लोकनायिका हैं जातीय गौरव नहीं
साँच कहै ता..
~ जयराम शुक्ल

बात पद्मावती से शुरू हुई थी। बहस होनी थी कि भंसाली ने अपना कलाधर्म किस तरह निभाया। जायसी के पद्मावत की आत्मा बची है या रूपांतरित हो गयी। ऐतिहासिक लोकचरित्रों उसके कलारूपों के विस्तार की कितनी संभावनाएं हैं। पर बात मुड़ गई इतिहास के कब्रिस्तान की ओर। गड़े मुर्दे उखड़ने लगे।ढँकी मुदी बातें खुलने लगीं। जातीय अस्मिता का झंझावात उठ खड़ा हुआ। उसमें राजनीति शामिल हो गई। सोशलमीडिया के मसखरे चिंतातुर हो उठे। पक्ष-विपक्ष और तीसरा पक्ष भी ताल ठोककर खड़ा हो गया। किसी के लिए सांस्कृतिक आतंकवाद का खतरा मड़राने लगा। चैनलों के पैनलिए आँकलन लगाने लगे कि आसन्न चुनाव में किसका नफा किसका नुकसान होगा। सट्टा बाजार में फिल्म के बिजनेस के दाँव लगने लगने लगे। डिस्ट्रीब्यूटर के बीच बोली के भाव शुरू हो गए। किसी ने कहा कि यह फिल्म प्रचारित करने का पूर्वनियोजित फंडा है। कोई कहता है कि चुनावों के मूल मुद्दों से भटकाने का छलछंद है। कुछ स्वनामधन्य पत्रकार और चैनल संपादक फिल्म की अच्छाई के कसीदे पढ़ने तो कुछ इस कसीदाकारी से चिढ़ाने भी लगे। हवा में ये बातें भी तैरने लगीं कि इस फिल्म में एक सत्ताप्रिय उद्योगपति का धन लगा है तो इसका विवाद ब्रांडिंग करने वाली एजेंसी ने पैदा किया है। अंत में सबकोई संतुष्ट हो जाएंगे। जैसे दूसरी फिल्में रिलीज होती हैं वैसे ये भी होगी। कुलमिलाकर यही सबकुछ चल रहा है। गुजरात-हिमांचल चुनाव चर्चा के समानांतर। जीएसटी,ग्रोथरेट,मँहगाई, दिल्ली के प्रदूषण, आधे देश में अकाल की आहट, किसानों की मौत और एक बाद एक सामूहिक दुराचार की घटनाओं के घटाघोप में।

पहले पद्मावती के बारे में। पद्मावती का मूलकथा स्तोत्र मलिक मोहम्मद जायसी का महाकाव्य पद्मावत है। दोहा और चौपाइयों की मूलकाव्यधारा में प्राणप्रतिष्ठा का श्रेय जायसी को जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस विधा को मानस की रचना का आधार बनाकर लोकजयी बना दिया। जायसी के रचनधर्म और पद्मावत पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल, माताप्रसाद गुप्त और वासुदेवशरण अग्रवाल ने समालोचक टीकाएं लिखीं। जो मूल महाकाव्य के साथ अलग-अलग समय में प्रकाशित हुईं। पद्मावत पचास-साठ के दशक से ही पाठ्यक्रमों में हिंदी के विषयवस्तु के रूप में शामिल है। निश्चित ही अब तक इस महाकाव्य पर शताधिक शोधप्रबंध और टीकाएं लिखी गई होंगी। मेरे पास माताप्रसाद गुप्त द्वारा संपादित पद्मावत है। गुप्तजी की इसमें व्याख्यात्मक टिप्पणी है। प्रारंम्भ में ही महाकाव्य का कथासार लिखा है। यह पठनीय कहानी है जो प्रेम की गहराइयों की अनुभूति को छूती है। अलाउद्दीन खिलजी मुख्यखलपात्र तो है ही इसके अलावा भी राजा रतनसेन के दरबारी और सजातीय भी पद्मावती की चाहत में साजिशें रचते हैं। इस मूलकथा के साथ यदि छेड़छाड़ नहीं की गई है तो यह फिल्म भी मुगले आजम, ताजमहल,देवदास की श्रेणी की है। हिन्दी के उपरोक्त तीनों धुरंधर विद्वानों ने इस महाकाव्य को इतिहास से इतर माना है। जायसी ने लोक में प्रचलित कथा के आधार पर इस महाकाव्य का तानाबाना बुना है। इस रचनाकाल के आसपास इतिहास के कोई सूत्र नहीं मिलते जो यह बताएं कि पद्मावती और रतनसेन किसी राजवंश से ताल्लुक रखते हैं।  खिलजी क्रूर और नराधम था। संभवतः जायसी को उससे उपयुक्त कोई खलपात्र नहीं सूझा होगा। महाकाव्य में तोता चिंतामन हैं जो मानुष्य की भाँति संवाद करता है। जायसी ने अपनी कल्पनाओं की क्षमता के अनुरूप महाकाव्य के लालित्य और अलंकरण के लिए सुंदर और रोचक फंतासी रची है। कुछ विद्वानों का मानना है कि जायसी सूफी परंपरा के संत थे और प्रेममार्गी थे। पद्मावती और रतनसेन के प्रेम के गूढ में वे ईश्वर को खोजते हैं। यहां यह जानना जरूरी है कि साहित्यकार और इतिहासकार में बड़ा फर्क होता है। इतिहासकार एक एक कथ्य तथ्य के आधार पर जोड़ता है और साहित्यकार इस बंधन से मुक्त कल्पनाओं के संसार का सृजन करता है। साहित्यकार लोकमानस के ज्यादा नजदीक होता है। इतिहास के रूखेपन से उसकी ज्यादा रुचि नहीं होती।

यह भी सत्य है कि इतिहास के समानांतर लोक की परंपरा भी चलती है। यह परंपरा श्रुति और स्मृति के आधार पर पीढी दर पीढी परिमार्जित होती जाती है। कई दृष्टांन्त तो ऐसे हैं जिसे इतिहासकार ने अपनी रचना में महिमामंडित किया लोक को ठीक नहीं लगा तो उसे खंडि़त करने में तनिक देर भी नहीं लगाई। महाभारतकार व्यास ने कर्ण को खलनायक बताने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी। वही कर्ण लोक में इतना पूजित प्रसंसित नायक हो गया कि कृष्ण की महिमा बचाए रखने के लिए व्यास को श्रीमद्भभागवत् पुराण की रचना करनी पड़ी। कृष्ण के बरक्श राधा लोक की नायिका हैं,आराध्या हैं। महाभारत, भागवत् में राधा नहीं हैं। इस महादेवी को लोकमानस में गढ़ा गया है। उसी लोकमानस ने इसे कृष्ण से वृहत्तर बना दिया। बाल्मीक और गोस्वामीजी ने विभीषण को वैष्णव,महात्मा न जाने क्या-क्या कहके प्रशंसा नहीं की पर लोक को वह नहीं सुहाया। उसे भातृद्रोही,गद्दार और घाती ही माना है। मेघनाद, कुंभकर्ण के नामधारी हजारों की संख्या में मिल जाएंगे लेकिन किसी का नाम विभीषण है आज तक मैंने नहीं सुना।

पद्मिनी किसी राजवंश के जातीय गौरव नहीं हैं । वे लोकमानस द्वारा गढ़ी गई नायिका हैं। लोक नायिका हैं। लोक जिसे आदर देता है,जिसकी प्राणप्रतिष्ठा करता है वह उसके प्रति वैसा ही आस्थावान होता है जैसा कि किसी लौकिक विभूति के प्रति। यहां इस बात के छिद्रान्वेषण की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि उस विभूति का इतिहास से वास्तविता है भी या नहीं। यहां असली प्रश्न यह है कि जो लोकनायिका पद्मिनी और उनकी कथा सैकड़ों वर्षों से लोकमानस में अंकित है कहीं उससे तो छेड़छाड़ नहीं हुई? यदि भंसाली ने अपने हिसाब से फिल्मी पद्मिनी गढ़ी है भले ही वो चित्ताकर्षक है तो यह गलत है, इसका विरोध होना चाहिए लेकिन यदि पद्मिनी का वही उच्चादर्श और मर्यादा है जोकि शताब्दियों से कथाक्रम में चलता चला आ रहा है उसी को फिल्मांकित किया है तो उनकी प्रशंसा होनी चाहिए। अब प्रश्न यह है कि कौन तय करेगा? कुछ ने सुझाव दिए हैं कि राजघराने के प्रतिनिधियों को, राजपूत संगठनों के नेताओं को दिखाने के बाद तय होना चाहिये तो मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखता। पद्मिनी जातीय गौरव नहीं हैं वो लोकमानस की कोख से उपजी नायिका हैं। इसलिए यह वर्गीकरण एक नया वितंडावाद खड़ा करेगा। सेंसर बोर्ड है ही इसी के लिए। लोकतांत्रिक देश की सरकार द्वारा गठित एक संस्था है उस पर विश्वास करना होगा। देशभर के मानस का अधिकृत प्रतिनिधि वही है न कि मुट्ठीभर प्रतिनिधि। कला को विस्तार का संरक्षण मिलना चाहिए यदि वह मर्यादा और लोक आदर्शों के अनुरूप है तो।
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#vss

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