अंग्रेजी राज के शुरुआती दिनों से ही टीपू सुल्तान को लेकर एक मिथ के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो गई थी । बाद के काल में भी यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही क्योंकि जनमानस में टीपू एक नायक की तरह गहराई तक पैठा हुआ था और लोग उसे अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने वाला एक वीर सिपाही मानते थे ।
टीपू बहुत साहसी था और उसे युद्ध की रणनीति बनाने में महारत हासिल थी । उसने 17 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ अपने पिता हैदर अली की अगुवाई में पहला युद्ध लड़ा था। द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान जब हैदर अली की मृत्यु हो गई तो 1782 में टीपू ने मैसूर की गद्दी संभाली । इस युद्ध की समाप्ति पर टीपू ने अंग्रेजों को एक अपमानजनक संधि पर राजी करने को मजबूर किया.। टीपू ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अपनी सेनाओं को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित करवाया और भारत की पहली आधुनिक नौसेना की नींव रखी । टीपू ने अपने समय के धुरंधर सेनापतियों (कार्नवालिस और वेलेजली) की आंखों की नींद उड़ा दी थी । उसने अंग्रेजों को घेरने के उद्देश्य से फ्रांस से नजदीकियां बढ़ाईं और एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाने के प्रयास भी किए । इस तरह, टीपू अंग्रेजी राज के विरुद्ध लड़ने के लिए भारतीयों का हौसला था । वह ऐसा राजा था जिसे अंग्रेज फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे । फ्रांसीसी कमांडर डूप्ले अंग्रेजों के खिलाफ टीपू के साथ था। यह भारत के प्रति फ्रांस का कोई अनुराग नहीं था, बल्कि यह इंग्लैंड और फ्रांस की परंपरागत शत्रुता थी, जो लंबे समय से यूरोप में चल रही थी। यूरोप में जब फ्रांस , इंग्लैंड के खिलाफ कमज़ोर पड़ा तो उसका असर भारत पर भी पड़ा । अंग्रेज़ों से टीपू हार गया पर टीपू की यह दहशत अंग्रेज़ों को बराबर बनी रही। यही भय अंग्रेज़ इतिहासकारों को टीपू के खिलाफ बराबर हावी रहा ।
प्रख्यात फिल्मकार और लेखक गिरीश कर्नाड ने एक काल्पनिक सवाल, उठाया है,
' टीपू हिंदू होता तो ?'
फिर खुद ही वे इसका उत्तर देते हैं, कि
" यदि टीपू हिन्दू होता तो छत्रपति शिवाजी के सदृश आराध्य होता। "
शंकर के चार पीठों में से एक श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य सच्चिदानन्द भारती (1753), के सेवारत टीपू द्वारा जगद्गुरू को लिखे पत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटिश राज का घोर शत्रु टीपू सुल्तान फ्रांसिसी सेना की मदद से मैसूर की विजय के लिए जूझ रहा था। तब उसने शंकराचार्य से शिवस्तुति कर भारतीयों की जीत हेतु दैवी कृपा मांगी थी। श्रृंगेरी पीठ ने टीपू के विजय के लिये विशेष अनुष्ठान भी किये । उसे इन तीनों युद्धों में तो विजय मिली भी। मगर चौथे में हिन्दू राजाओं के असहयोग के कारण वह अंग्रेजों के छल से शहीद हो गया। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने टीपू को भारतीय प्रक्षेपास्त्र का जनक बताया था। उन्होंने खुद को मिसाइल कार्यक्रम से जुड़ने की प्रेरणा के रूप में टीपू का नाम लिया है। अपने ब्राह्मण प्रधानमंत्री आचार्य पूर्णय्या की सलाह पर टीपू ने कांची कामकोटी के शंकरपीठ में मन्दिर भवन मरम्मत हेतु दस हजार स्वर्ण मुद्राओं का योगदान किया था। रामनामी अंगूठी भेंट में सुल्तान को मिली थी। उसने अपने कई शत्रुओं को युद्ध में निर्ममता से मारा था। उसमें कर्नाटक के नवाब, हैदराबाद का निजाम, मलाबार के इस्लामी मोपला, पेशवाई मराठे, मलयाली नायर थे। इनको युद्ध में मारने का कारण टीपू सुल्तान के लिए केवल इतना था कि वे सब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खेमे में थे।
इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार जो मध्ययुगीन इतिहास के एक ख्यातिप्राप्त इतिहासकार रहे हैं, ने टीपू को स्वतंत्रता सेनानी कहा था। सामूहिक धर्मांतरण और नरसंहार के आरोपों को जदुनाथ सरकार ने एक अतिश्योक्तिपूर्ण मूल्यांकन माना है। अगर केवल इस लूटपाट के आधार पर टीपू के बारे में एक आतताई सुल्तान की क्षवि गढ़ी जाती है तो उसी आधार पर मराठों के बंगाल अभियान को एक बर्बर और लुटेरा आक्रमण माना जाना चाहिये । दुनिया भर में मध्ययुगीन सामन्त, राजे और सुल्तानों का युद्ध, युद्ध मे बर्बरता, लूटपाट, आदि स्थायी भाव रहा है। उस समय हर राजा का एक ही उद्देश्य होता था, विजय प्राप्त करना । यह भाव आज भी युद्धों के दौरान युयुत्सु और युद्धरत सेनाओं का होता है। सबसे ताज़ा उदाहरणों के रूप में आप विश्व युद्ध और वियतनाम के युद्धों में भारी संख्या में नागरिक आबादी के नरसंहार को ले सकते हैं । इतिहास के आधार पर दोस्ती और दुश्मनी निभाने की मानसिकता एक ऐसे मूर्खतापूर्ण दलदल में हमें धकेल देगी जहां हम केवल हंसी के पात्र बन कर रह जाएंगे।
टीपू ने तीन सदियों पूर्व ही विदेश नीति रची थी, और अंग्रेजों को हराने के लिये वैदेशिक सम्बन्ध भी बनाये थे । तुर्की के आटोमन सुल्तान से उसने ब्रिटेन के विरूद्ध (1787) युद्ध की घोषणा करने की मांग की थी। फ्रांसीसी क्रान्ति के तीनों सूत्रों स्वाधीनता, समानता और भ्रातृत्व का प्रसार कराया था। टीपू यदि संकीर्णमना होता तो युद्ध करने के पूर्व ज्योतिर्लिंग के ब्राह्मण ज्योतिशाचार्य से मशविरा न करता। उसने सेना में शराबबंदी भी लागू की थी।
यहां एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि आम मध्यकालीन या पूर्व-आधुनिक शासकों की तरह टीपू को न सिर्फ अपने राज्य की सुरक्षा करनी थी बल्कि उसका विस्तार करना भी उसकी प्राथमिकता थी । इसलिए उसने मैसूर के आस-पास के इलाकों पर हमले किए और उनका मैसूर में विलय कर लिया । हैदर अली ने मालाबार, कोझीकोड, कोडगू, त्रिचूर और कोच्चि को जीत लिया था । अंग्रेजों और मराठों से युद्धों के क्रम में टीपू को कोडगू और कोच्चि पर फिर हमले करने पड़े । इन दोनों इलाकों , मालाबार और कोझीकोड पर नियंत्रण बनाये रखने के क्रम में एक मध्ययुगीन शासक की तरह उसने गांव के गांव जलवा दिए और सामूहिक दंड निश्चित किये । और इसी क्रम में मंदिरों और चर्चों को भी नष्ट किया। बलात धर्म परिवर्तन के भी आरोप उस पर लगते हैं और कुछ हद तक यह सही भी है। ये आरोप आयंगर ब्राह्मणों के व्यापक धर्म परिवर्तन के बारे में बहुत बार कही गयीं है। यह टीपू का एक नकारात्मक पक्ष हो सकता है, पर इसी एक आधार पर टीपू का भारतीय इतिहास में जो स्थान है, उस से उसे खारिज़ नहीं किया जा सकता है। किसी भी शासक की धार्मिक नीति का मूल्यांकन उसके युद्ध-कार्यों के आधार पर नहीं किया जाता. बल्कि उसकी समग्र शासन नीति के आधार पर किया जाता है । कोडगु पर कब्जे के दौरान टीपू ने काफी व्यापक युद्ध किया था । यह स्थान सामरिक और रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण था। टीपू के लिए कोडगु पर कब्जा मंगलोर बंदरगाह पर नियंत्रण रखने के लिए जरूरी था, क्योंकि अंग्रेज दकन और कर्नाटक के तटों पर कब्ज़ा करके अपने लिए नियंत्रणमुक्त व्यापार के रास्ते खोलना चाहते थे । इसलिए कोडगु को उसने हर हाल में मैसूर के कब्जे में रखना चाहा । इसीलिए आज भी कोडगु के इलाके में टीपू एक शासक की तरह नहीं एक आक्रांता की तरह देख जाता है ।
टीपू के इतिहास पर दो भिन्न भिन्न स्रोतों के आधार पर चर्चा की जा सकती है, एक औपनिवेशिक स्रोतों के आधार पर और दूसरा, भारतीय स्रोतों के आधार पर । अंग्रेज़ इतिहासकारों ने जो इतिहास लिखा है, वे अधिक विश्वसनीय नहीं लगते हैं क्यों कि वह इतिहास लेखन उनकी राजनीति के लिए उपयुक्त था। वो टीपू सुल्तान को खलनायक मानते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण टीपू से उनकी अदावत और युद्ध तो था ही पर सबसे बडा कारण था, उनके चिर शत्रु फ्रांस से टीपू की निकटता ।
जिन्हें इतिहास और इतिहासलेखन की समझ है वो टीपू सुलतान को उसके परिप्रेक्ष्य में रखकर मूल्यांकित करने की कोशिश करेंगे । जो लोग ऐसा करेंगे वे टीपू की औपनिवेशिक व्याख्या को इतिहास के अन्य स्रोतों के साथ रखकर जाचेंगे. और भीड़ के विवेक से परे हटकर जब भी टीपू सुल्तान का मूल्यांकन किया जाएगा, टीपू, अंग्रेजी राज के खतरे को पहचानने और उसके खिलाफ लड़कर शहीद होने वाले शासक की तौर पर याद रखा जाएगा ।
कर्नाटक में टीपू की जयंती का विरोध अनावश्यक है। कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरामय्या इस जयंती से टीपू के सहधर्मियों में अपना वोट बैंक तलाश कर सकते हैं, क्योंकि विधानसभा निर्वाचन आसन्न है। मगर कुछ वर्ष पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और उपमुख्यमंत्री आर. अशोक , टीपू की जयंती में सुल्तान की पगड़ी पहनकर शरीक हुये थे। तो चन्द वर्षों बाद वही टीपू अब उनके लिये कट्टर सुन्नी हो गया ? यह बखत बखत की बात है।
© विजय शंकर सिंह
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