1857 के विप्लव के इतिहास की यह सीरीज, प्रवीण कुमार झा द्वारा लिखी गई है।
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मुझे नहीं लगता कि 1857 पर कुछ भी लिखने की ज़रूरत है। भारतीय इतिहास लेखन में इस एक वर्ष के घटनाक्रम पर सर्वाधिक लिखा गया। अलग-अलग कोणों से, अलग-अलग काल-खंडों में अलग-अलग शीर्षकों से लिखा गया। मैं जब इस पर लिखने की सोच रहा था, तो पुस्तकों और लेखों की सूची बनाने लगा। अंतत: लगा कि शायद मेरे आलमीरे में इतनी जगह न हो कि उन्हें रखा जा सके। अगर एक कमरा इन किताबों से भर भी दिया, तो उन्हें पढ़ जाने की मियाद कितनी रखूँ?
जब एक दशक बाद उन्हें पढ़ कर कमरे से निकलूँ तो क्या मेरा दिमाग यह निर्णय कर पाएगा कि इसे कहना क्या चाहिए? सिपाही विद्रोह या स्वातंत्र्य संग्राम? क्या यह उत्तर मिल जाएगा कि इसका कारण धार्मिक था या राजनैतिक? इसे मुसलमानों का विद्रोह कहा जाए या हिंदुओं का? राजा-नवाबों की लड़ाई कही जाए या किसानों की? बंगाल से पेशावर तक बिखरी घटनाओं का चिट्ठा कहा जाए, या संपूर्ण भारत की क्रांति? इसे अंग्रेजों की निर्णायक जीत कहा जाए या भारतीय राष्ट्रवाद की चिनगारी? एक गुलाम देश की मामूली घटना कही जाए या एक वैश्विक घटना?
इतिहास विशेषज्ञ भी संभवत: इन प्रश्नों पर सहमति बनाने में सक्षम न हों। ये प्रश्न इतिहास के ‘गोल्डबैक कंजेक्चर’ की तरह हैं जिसे आज तक कोई सुलझा नहीं पाया। मैं अपनी सहूलियत या वैचारिक प्रतिबद्धता से सुलझाने वालों की बात नहीं कर रहा। न ही ब्रिटिश बनाम भारतीय कोण, हिंदू बनाम मुसलमान कोण, नव-मार्क्सवाद बनाम नव-दक्षिणपंथ कोण से देखने वालों की।
यह प्रश्न तो विद्यालयों की वाद-विवाद बैठक में रखा जाना चाहिए, और विद्यार्थी में यह क्षमता विकसित करनी चाहिए कि वह हर बिंदु पर दोनों पक्ष रख सके। किसी अंतिम सत्य से बचना चाहिए। अगर कोई ताल ठोक कर कुछ कहे तो उसे प्रतिप्रश्न करिए। जब तक सभी सूक्ष्म-इतिहास, सभी उत्तर नहीं मिल जाते, तब तक कुछ यूँ गुनगुना कर अपनी अपूर्णता जतायी जा सकती है- ‘1857 को 1857 ही रहने दो, कोई नाम न दो’।
‘बाइनरी युग’ के पैरोकारों को पहला प्रश्न तो यही है कि किसने इसे सिपाही विद्रोह कहा, और किसने स्वतंत्रता संग्राम? अगर आप दुकानों में सिपाही विद्रोह नाम से किताबें ढूँढेंगे तो दर्जनों मिल जाएगी। अगर आप ‘1857 के स्वतंत्रता संग्राम’ नाम से किताबें ढूँढेंगे, तो एक जैसी शीर्षक से दो किताबें मिलेगी। एक कार्ल मार्क्स की लिखी, और दूसरी विनायक दामोदर सावरकर की। आज दोनों के राजनैतिक अनुयायी भारत में दो खेमे बन चुके हैं, किंतु इतिहास को विद्यार्थी की तरह देखने के लिए किसी तीसरे बिंदु पर खड़े होना चाहिए।
खैर, ऐसी भूमिकाओं में अब समय व्यर्थ नहीं करते हुए आगे बढ़ता हूँ। सावरकर के पुस्तक की आख़िरी पंक्तियों से क्रांति के माहौल में प्रवेश करता हूँ,
“दिल्ली के सम्राट बहादुरशाह एक महान् कवि भी थे। क्रांतियुद्ध के रंगमंच पर प्रवेश से पूर्व ही उन्होंने एक ग़ज़ल की रचना की थी।
उन्होंने स्वत: यह प्रश्न किया था-
दमदमे में दम नहीं, अब खैर माँगो जान की
ऐ ज़फ़र! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की
उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर भी अपने ही शब्दों में दिया-
ग़ाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख़्त-ए-लंदन तक चलेगी तेग़ हिंदुस्तान की”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
Praveen Jha
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