Wednesday 26 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (15)

चित्र: एनफ़ील्ड पैटर्न 1853 राइफ़ल मस्कट का कारतूस। इसमें सिगरेट की तरह वह सफ़ेद काग़ज़ देखा जा सकता है। इसका एक सिरा दाँत से काट कर butt में से बारूद बंदूक की नाल में डाल दिया जाता, फिर दूसरा सिरा नाल में डाल कर उसे पूरी तरह ठूँस कर लोड कर दिया जाता।
22 जनवरी, 1857. दमदम, कलकत्ता (लेफ़्टिनेंट जे. ए. राइट की चिट्ठी

1. मैं डिपो कमांडिग, मेजर बोन्टेन, के ध्यान में लाना चाहता हूँ कि एक अफ़वाह की वजह से सिपाहियों में असंतोष है। किसी दुष्ट ने यह खबर फैला दी है कि हमारे कारतूस में जिस चिकनाई का प्रयोग हो रहा है, उसमें सूअर और गाय की चर्बी है।

2. एक ब्राह्मण सिपाही अपने चौका की ओर लोटे में पानी लेकर खाना बनाने जा रहा था। उससे एक निचली जाति के खलासी ने पानी माँगा। 

सिपाही ने कहा, “मैंने अभी-अभी लोटा माँजा है। यह अपवित्र हो जाएगा”

खलासी ने तंज किया- “आपको अपनी जाति की बहुत चिंता है? अभी साहब लोग जब गाय और सूअर की चर्बी वाला कारतूस दाँत से कटवाएँगे, तो कहाँ जाएगी जाति?”

3. मुझे सिपाहियों ने बताया कि यह खबर बाज़ार से आयी है, और पूरे भारत में फैल गयी है। उन्हें डर है कि गाँव से उनको बहिष्कृत कर दिया जाएगा।

4. सिपाहियों का सुझाव है कि चिकनाई का सामान उन्हें स्वयं बाज़ार से लाने की इजाज़त दी जाए, जिससे वह निश्चिंत हो सकें कि उनका धर्म नहीं भ्रष्ट हो रहा। 

6 फरवरी, 1857; विशेष कचहरी, बैरकपुर, 34 रेजिमेंट

गवाह 1: बृजनाथ पाण्डे, सिपाही, सेकंड रेजिमेंट

“क्या तुम परेड में थे, जब नए कारतूस दिखाए गए थे?”

“हाँ”

“क्या तुम्हें कारतूस से कोई समस्या थी?”

“कारतूस से नहीं, उसके काग़ज़ से शंका थी। वह कुछ अलग चमकीला दिख रहा था।”

“क्या तुम्हें ऐसी कोई जानकारी है कि इससे जाति भ्रष्ट हो सकती है?”

“बाज़ार में खबर मिली कि इसमें किसी जानवर की चर्बी है”

(कागज दिखाते हुए) “क्या यही वह कागज है? ग़ौर से देख कर कहो कि इसमें क्या खराबी है?”

“यह कपड़े की तरह कड़क है, जो जल्दी फटता नहीं। यह पुराने काग़ज से पूरी तरह अलग है”

गवाह 2: चाँद ख़ान, सिपाही, सेकंड रेजिमेंट

“इस कचहरी में मौजूद कारतूस में लगे कागज से तुम्हें कोई दिक्कत है?”

“यह कागज कड़क है, और जब जलता है तो इससे चिकनाई की गंध आती है”

“तुमने इसे जला कर देखा है?”

“दो दिन पहले ही। इसके जलने पर कुछ फड़फड़ाने सी आवाज़ आती है, जैसे चर्बी जल रही हो।”

(एक कागज कचहरी में जलाया जाता है)

“क्या कोई चर्बी की गंध आ रही है?”

“नहीं। अभी नहीं आ रही। लेकिन, मुझे शिकायत है। हम सभी मानते हैं कि यह कागज कुछ अलग है।”

गवाह 7: जमादार राम सिंह, सेकंड रेजिमेंट

“तुम्हें कैसे पता लगा कि इस कारतूस में चर्बी है?”

“किसी खलासी से बात फैली है, साहब। हम सबको इस कागज पर शक है।”

“हम तुम्हारा शक कैसे खत्म कर सकते हैं?”

“आप अब कुछ नहीं कर सकते”

8 फरवरी, 1857 (लेफ़्टिनेंट एलन का कथन)

“परसों शाम जब मैं वरंडा पर बैठा था, तो एक सिपाही चुपके से आया और कहा कि उसके पास एक ख़ुफ़िया खबर है। उसने चार सिपाहियों को यह कहते हुए सुना कि उनको जबरन धर्मभ्रष्ट कर ईसाई बनाया जा रहा है। उनकी योजना है कि वह बदला लेंगे। पहले बैरकपुर के अफ़सरों के बंगले जलाएँगे और उसके बाद फ़ोर्ट विलियम की ओर बढ़ेंगे। उसने कहा कि रात आठ बजे पेड़ के नीचे सभी सिपाहियों की गुप्त सभा है। वह डरा हुआ था और उसने कहा कि उसका नाम किसी को न बताऊँ, वरना वह नहीं बचेगा।”

इस कथन से पूर्व रात को बैरकपुर, रानीगंगे और टेलीग्राफ़ कार्यालय में आग लग चुकी थी। षडयंत्र की खबर देने वाले के लिए एक हज़ार का ईनाम रखा गया। अगले दिन जमादार दरियो ने तीन नाम लिए- सिपाही काशीप्रसाद दूबे, सिपाही मोहन शुक्ल और जमादार मुक्ता प्रसाद पांडे। 

एक ब्रिटिश अफ़सर ने अपने कथन में कहा कि कलकत्ता के धर्मसभा के कुछ ब्राह्मण विधवा विवाह कानून (1856) से खार खाकर ऐसी झूठी अफ़वाह फैला रहे हैं। वहीं कंपनी के अधिकारी जॉन लोवरिंग कुक ने लिखा कि यह कलकत्ता आकर बस गए नवाब वाजिद अली शाह के किसी चमचे की करतूत है। 

अफ़वाह चाहे जहाँ से फैली हो, 1857 डिस्पैच के इन मूल दस्तावेज़ों को पलटते हुए बचपन में सुनी ये पंक्तियाँ याद आ गयी।

“न ईरान ने किया, न शाह-ए-रूस ने
अंग्रेज़ों को बरबाद किया कारतूस ने”
(क्रमशः) 

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

1857 का इतिहास - एक (14) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-14.html 



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