Friday, 28 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (16)

           चित्र: धोंडू पंत (नाना साहेब)

उन्नीसवीं सदी सबसे तेज भागने वाली सदियों में थी। डार्विन से कार्ल मार्क्स तक, सिलाई मशीन से टाइपराइटर तक, कार से ट्रेन तक, कैमरा से टेलीफ़ोन तक,  वैक्सीन से एस्पिरिन तक चीजें बस आए ही जा रही थी।

युद्ध के रूप भी बदल रहे थे। पुराने ढर्रे के बंदूकों की जगह पिस्तौल और राइफ़ल आ रहे थे। क्रीमिया युद्ध में ब्रिटेन की रुसियों पर विजय का एक कारण 1853 में आए .577 बोर के राइफ़ल थे। इनमें कारतूस घुमावदार खाँचों से होकर स्पिन करते हुए तेज़ी से बिल्कुल निशाने पर जाती। मगर इसमें समस्या यह थी कि कारतूसों के पिछले हिस्से पर चिकनाई लगानी पड़ती। ऐसी चिकनाई जो लंबे समय तक टिके। हालाँकि पेट्रोलियम की खोज भी उन्नीसवीं सदी में ही हुई, लेकिन सदी के आखिरी दशकों में हुई। इसलिए चर्बी का तेल ही सबसे अधिक उपयुक्त था। 

पहली बार ये कारतूस भारत के मौसम में जाँच के लिए 1853 में ही आ गए थे। भारत में ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ़ विलियम गोम ने उसी वक्त चेताया, 

“जब तक आप यह स्पष्ट नहीं कर देते कि इसमें लगी चिकनाई सिपाहियों के जाति या धर्म के ख़िलाफ़ नहीं है, तब तक इसे मैं सिपाहियों को जाँचने नहीं दे सकता”

फौजी बोर्ड ने उनकी बात का अनदेखा कर कारतूस दो साल तक जाँचे और रिपोर्ट भेज दी कि भारत की गर्मी में वानस्पतिक तेल या मोम वाले कारतूस सूख जाते हैं, मगर पाँच हिस्सा चर्बी के तेल, पाँच हिस्सा स्टियरिन और एक हिस्सा मोम से बनी चिकनाई बिल्कुल ठीक है।

1856 में मेरठ और फ़ोर्ट विलियम (कलकत्ता) के शस्त्रागारों में यह चिकनाई लगी कारतूस तैयार की जाने लगी थी। यह मुमकिन है कि दमदम के जिन खलासी ने सबसे पहले इसका जिक्र किया, वह कारतूस फ़ैक्ट्री से जुड़े रहे हों। उन्हें फोर्ट विलियम के किसी साथी से खबर हुई होगी। जानकारी संभवत: आधी-अधूरी पहुँची थी। सिपाही कारतूस के बजाय उसके ऊपर लगे काग़ज़ को चर्बी में लपेटा बता रहे थे।

जब पहली बार यह बात उठी तो कारतूस फ़ैक्ट्री के प्रभारी कर्नल एब्बोट ने कहा, “इसमें चर्बी और मधुमक्खी का मोम मिलाया गया है। लेकिन चर्बी भेड़ या बकरी की ही हो, इसका सख़्त आदेश है।”

एक हफ्ते बाद उन्होंने ही नया कथन दिया, “मुमकिन है कि बीच में गाय की चर्बी भी आ गयी हो”

7 फरवरी को स्वयं गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने कहा, “सभी रिपोर्ट पढ़ने के बाद सिपाहियों का शक वाज़िब नज़र आता है”

इस पूरे घटनाक्रम में सिपाहियों ने अभी तक कारतूस का औपचारिक उपयोग नहीं किया था। उस नए राइफ़ल से एक भी गोली चली नहीं थी, मगर सिपाही एकजुट होने लगे थे। यह शक होने लगा था कि बाहर से कोई सिपाहियों को भड़का रहा है। 

वाजिद अली शाह का ठिकाना ‘मटिया बुर्ज’ (गार्डन रीच) और फ़ोर्ट विलियम, दोनों ही हुगली नदी के किनारे बसे थे, और सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर थे। 26 जनवरी, 1857 को नवाब के किसी आदमी को सिपाहियों से मिलते-जुलते पकड़ लिया गया। बंगाल रेजिमेंट के अधिकांश सिपाही अवध इलाके से थे, इस कारण उनका भावनात्मक जुड़ाव भी था। अब एक-एक कर तार जोड़ते चलें। 

सिपाही महमद ख़ान के बयान के अनुसार,

“हम पुरबिए अवध के कब्जे और वहाँ हो रही लूट की खबर के बाद योजना बनाने लगे थे। रेजिमेंटों में गुप्त चिट्ठियाँ भेजी जाने लगी कि ये फिरंगी हमारी नौकरी छीन कर सिखों को दे रहे हैं। बात सिर्फ़ अवध की नहीं है, हमारे सभी राजाओं की जमीन हथिया रहे हैं।”

मामले की जाँच कर रहे अधिकारी हियरसे ने कहा,

“वाजिद अली शाह का साथी राजा मान सिंह 19वीं और 34वीं रेजिमेंट के हिंदू सिपाहियों को पैसे भेज रहा है, और उन्हें किसी न किसी मुद्दे से बाकी सिपाहियों को भड़काने के लिए कह रहा है। इन रेजिमेंट के सिपाहियों ने तो कारतूस देखा भी नहीं है! पता नहीं क्यों भड़के हुए हैं?”

कंपनी के एक भारतीय उच्च अधिकारी सीताराम बावा ने अपना कथन दिया, 

“अवध के तालुकदार राजा मान सिंह और नाना साहब पेशवा 1855 से ही योजना बना रहे थे। उन्हें सिपाहियों को भड़काने के लिए मुद्दे की तलाश थी।”

‘द टाइम्स’ के पत्रकार विलियम रसेल जो क्रीमिया युद्ध के बाद 1857 को कवर करने पहुँचे थे। उन्होंने लिखा है,

“मुझे अजीमुल्ला ख़ान क्रीमिया में मिला, और उसने कहा कि ब्रिटेन की सेना तो फ्रेंच से बहुत कमजोर है…भारत आकर वह और नाना, एक हिंदू और एक मुसलमान, तीर्थयात्रा के बहाने पदयात्रा पर निकलते, और ट्रंक रोड पर स्थित हर छावनी में घुस जाते”

सिपाही सीताराम पांडे ने अपने कथन में कहा,

“कलकत्ता के बाज़ारों में झूठी खबर बतायी गयी कि रूस की जीत हुई है, उनके सारे जहाज डुबो दिए गए। हमें बताया गया कि अब जितने अंग्रेज़ सैनिक जिंदा बचे हैं, वे बस भारत में ही बचे हैं।”

सावरकर के शब्दों में,

“हिंदुस्तान जैसे विस्तृत देश में राज्य क्रांति जैसे गंभीर काम को धूर्त अंग्रेजों से बचाते हुए गोपनीयता से संगठित करने के लिए श्रीमंत नाना साहेब, मौलवी अहमद शाह, वज़ीर अली नकी ख़ान की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है।”

‘कारतूस’ तो एक ऐसा इक्का था, जिसने बाज़ी जीत ली। पत्ते तो कब से चले जा रहे थे। फरवरी, 1857 में एक विचित्र खबर आनी शुरू हुई कि उत्तर भारत के गाँवों में जंगल से कोई चौकीदार को चपाती देकर जाता है, और यह ‘ख़ुफ़िया’ चपाती आगे बँटती जाती है। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (15) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-15.html



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