Tuesday 25 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (13)

       चित्र: ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म से

1854 में जब क्रीमिया युद्ध की शुरुआत हुई, तो यह भारत के ब्रिटिश फ़ौजियों की अग्निपरीक्षा थी। यह रूस और ब्रिटेन के मध्य एक निर्णायक युद्ध सिद्ध हुआ जिसके बाद रूस ने भारत की तरफ़ पाँव फैलाने का इरादा त्याग दिया। हालाँकि यह अफ़वाह चलती रही कि 1857 के पीछे रूस और फ़ारस का हाथ था। कुछ ग़ैर-ज़रूरी चिट्ठियाँ भी मिली, लेकिन अब यह माना जा सकता है कि वे वाकई कोई ख़ास महत्व नहीं रखती थी।

पंजाब विजय में बड़ी भूमिका निभाने वाले लॉर्ड क्लाइड जब क्रीमिया पहुँचे, तो उनका ताज़ा अनुभव काम आया, और रूस को रोकने में वह सफ़ल हुए। चूँकि क्रीमिया युद्ध की कवरेज अख़बारों में जम कर हो रही थी, यह पहला ऐसा वैश्विक युद्ध था जिसमें पढ़े-लिखे भारतीय खूब रुचि ले रहे थे। इसी युद्ध में पहली बार टेलीग्राफ का भी जम कर प्रयोग हो रहा था। 

एक तरफ़ क्रीमिया युद्ध में उलझे ब्रिटेन के ख़िलाफ़ भारतीयों की क्रांति की टाइमिंग अच्छी कही जा सकती है। वहीं, दूसरी तरफ़ सिख युद्ध और क्रीमिया युद्ध का अनुभव लेकर लौट रहे लॉर्ड क्लाइड से भिड़ना तो कुछ यूँ था जैसे आइपीएल और वि़श्व कप विजेता टीम से रणजी मैच खेलना। 

इसका अर्थ यह नहीं कि भारत ने टक्कर नहीं दी। मैं लंदन के वेस्टमिंस्टर गिरजाघर के ठीक बाहर लगे स्तंभ पर नाम पढ़ रहा था, जिसमें एक साथ क्रीमिया युद्ध (1854-56) और भारतीय युद्ध (1857-58) के ब्रिटिश शहीदों के नाम हैं। ध्यान दें कि जहाँ इतिहासकार सिपाही विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम के पोलेमिक्स में उलझे हैं, वहाँ उन्होंने इसे ‘इंडियन वार’ लिखा है। क्रीमिया में महाशक्ति रूस के ख़िलाफ़ युद्ध में दस शहीदों के नाम हैं, जबकि गुलाम भारत के साथ असंगठित युद्ध में नौ! 

उस ‘भारतीय युद्ध’ तक सिलसिलेवार पहुँचने से पहले एक बड़े सूबे अवध की छोटी कहानी कह देता हूँ। 

बक्सर के युद्ध (1764) में अवध के नवाब शुजा-उद-दौला, बंगाल के नवाब मीर कासिम और मुग़ल शहंशाह शाह आलम को सामूहिक रूप से अंग्रेजों ने हराया। स्वतंत्र तो अवध पहले भी नहीं था, युद्ध के बाद वह कंपनी के प्रभाव में आ गया। यहाँ कंपनी एक तरह से मराठों के प्रभाव को घटाने के लिए अपनी फ़ौज रख कर कठपुतली सरकार चलाती थी। फ़ौज कंपनी की थी, मगर खर्च नवाब के जिम्मे था।

कभी यह वर्तमान उत्तर प्रदेश के ठीक-ठीक हिस्से तक फैली थी, मगर अंग्रेजों का खर्च चुकाने के फेर में पहले बनारस, ग़ाज़ीपुर आदि हाथ से गए, बाद में रूहेलाखंड और लगभग पूरा पूर्वांचल ब्रिटिश जागीर बनते गए। कंपनी के खर्चों और नवाबों की अपनी रईसी के फेर में प्रशासन बद से बदतर हो रहा था। अवध में भारत की पचास लाख जनसंख्या थी, जिसका बड़ा प्रतिशत गरीबी से जूझ रहा था।

जब लॉर्ड डलहौज़ी गवर्नर जनरल बन कर आए, उस समय वाजिद अली शाह अवध के नवाब बने ही थे। वाजिद अली शाह कला और संगीत में रुचि वाले नवाब थे, जिनके लिए प्रशासन टेढ़ी खीर थी। तुर्रा यह कि विलियम स्लीमैन लखनऊ के रीजेंट बन कर आए जिन्होंने मध्य भारत के सैकड़ों ठगों को फाँसी दिलायी थी। वह ऐसे मिथकीय लोकप्रियता लिए हुए व्यक्ति थे, जिन पर उस जमाने का क्राइम-थ्रिलर ‘कंफेशन्स ऑफ ठग’ लिखा जा चुका था। (हाल में एक फ्लॉप बॉलीवुड फ़िल्म भी बनी)

नवाब वाजिद अली शाह के लिए स्लीमैन एक डंडा लेकर घूमते हुए अक्खड़ प्रिंसिपल की तरह थे। स्लीमैन ने पद संभालते ही रिपोर्ट लिखी,

“इस नवाब को प्रशासन में न कोई रुचि है, न कौशल। हालाँकि यह किसी का नुकसान नहीं करेगा, लेकिन किसी की रक्षा भी नहीं करेगा। यह जितने दिन गद्दी पर रहेगा, प्रशासन बदतर होती जाएगी। यह पागल और बेवकूफ़ व्यक्ति है, जो भ्रष्ट मंत्रियों, गवैयों और हिजड़ों से घिरा रहता है।”

समस्या यह थी कि हड़प नीति (Doctrine of Lapse) में कुशलता कोई पैमाना नहीं थी। अगर ऐसा होता तो भारत के अधिकांश रियासतों में ऐसे राजा भरे पड़े थे। जब कंपनी पूरे भारत में पसर चुकी थी, वे गहनों से लदे, हाथी पर घूमते और शराब-शबाब में डूबे रहते। 1857 से पहले और बाद में भी वे अंग्रेजों से गलबहियाँ करते रहे, पेंशन पाते रहे। उनको राजा से बेहतर जमींदार कहना ही बेहतर, लेकिन सामंतवादी परंपरा में प्रजा उनका थोड़ा-बहुत आदर तो करती ही थी।

स्वयं स्लीमैन किसी भी तरह के हड़प के विरोधी थे, और उन्होंने एक गुस्से भरी चिट्ठी लिख कर इस्तीफ़ा दे दिया कि अवध को हड़पना उचित न होगा। उन्होंने यह संकेत दिए कि ऐसा करने से विद्रोह हो सकता है। 

4 फरवरी, 1856 को नए रीजेंट ओटरैम ने नवाब से अपनी गद्दी छोड़ने के करारनामे पर दस्तख़त करने कहा। नवाब ने अपनी पगड़ी उतार कर उन्हें सौंपते हुए कहा, “करार तो बराबरी वालों में होती है। मेरे दस्तख़त की भला क्या ज़रूरत?”

वाजिद अली शाह कलकत्ता के गार्डन रीच पहुँच कर लखनऊ को याद करते हुए ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ लिख रहे थे। वहीं गार्डन रीच से जहाज पर लॉर्ड डलहौज़ी अपने नैहर लौट रहे थे, और 25 फरवरी, 1856 को नए गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग जहाज से उतर रहे थे।

कैनिंग ने पहले हफ़्ते की अपनी डायरी में दर्ज़ किया है,

“पाँच बजे सायं। …एक तेज हवा के झोंके ने खिड़की और दरवाजे झटके से खोल दिया। मेज पर रखा काग़ज फड़फड़ाने लगा, झूमर झूलने लगे, पानी का गिलास काँपने लगा। जैसे किसी तूफ़ान की आहट हो।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (12) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-12.html 


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