Wednesday, 12 October 2022

सुप्रीम कोर्ट ने, आईटी एक्ट की धारा 66A के अंतर्गत दर्ज सभी मुकदमे, एफआईआर, चल रही विवेचनाएं और ट्रायल, रद्द घोषित किया / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को निर्देश दिया कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 66 ए के तहत किसी पर भी मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए, जिसे 2015 में श्रेया सिंघल मामले में अदालत ने असंवैधानिक घोषित किया जा चुका है। 

० धारा 66A के प्राविधान 

अगर कोई व्यक्ति सोशल मीडिया साइट पर ‘आपत्तिजनक सामग्री’ (offensive content) पोस्ट करता है, तो आईटी एक्ट की धारा 66A के अंतर्गत वह एक दंडनीय अपराध था। साधारण शब्दों में कहें तो अगर कोई व्यक्ति, सोशल मीडिया में आपत्तिजनक पोस्ट डालता है, तो पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती थी, अदालत में मुक़दमा चला सकती थी। 
यह धारा शुरू से विवादों में रही है क्योंकि पहले कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जब पोस्ट करने वाले यूजर को गिरफ्तार किया गया है और जेल में डाला गया है। बाद में कोर्ट की दखलंदाजी के बाद उसकी रिहाई हो पाई है। 
इस धारा के अनुसार, सोशल नेटवर्किंग साइट पर पोस्ट की गई सामग्री, कानून की नजर में ‘आपत्तिजनक’ मानी जाती थी, और ऐसा करने वाले को, 3 साल के जेल की सजा हो सकती थी। 

० विवाद का कारण

नागरिक अधिकारों से जुड़े संगठनों, एनजीओ और विपक्ष की शिकायत रही है कि, सरकार लोगों की आवाज दबाने के लिए आईटी एक्ट की इस धारा का दुरुपयोग करती है। ऐसा देखा गया है कि कई प्रदेशों की पुलिस मशीनरी ने ऐसे लोगों को भी गिरफ्तार किया है, जिन्होंने, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर आलोचनात्मक टिप्पणियां करते हैं. राजनीतिक मुद्दों के अलावा कई बार टिप्पणी के केंद्र में राजनेता भी रहे हैं. इस कृत्य के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करती है और तर्क देती है कि ऐसी टिप्पणियों से सामाजिक सौहार्द्र, शांति, समरसता आदि-आदि को नुकसान पहुंचता है.

पुलिस और राजनीतिक दलों के तर्क से अलग हट कर, अदालत का कहना है कि लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार, एक मौलिक अधिकार है।  अगर कोई व्यक्ति सोशल मीडिया में अपनी बात रखता है और उसके खिलाफ कार्रवाई होती है, तो यह ‘आजादी के अधिकार’ (root of liberty) पर हमला है। देश की सर्वोच्च अदालत, अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को लोकतंत्र का आधार स्तंभ मानती है. इस पर कुठाराघात का अर्थ है लोकतंत्र को चोट पहुंचाना।

मार्च, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 66A को, अभिव्यक्ति के अधिकार के विरुद्ध माना और यह स्पष्ट कर दिया था कि, यह लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है, अतः इसे ‘कानून की किताब’ से हटा देना चाहिए। सररकार की दलील थी कि, समाज और जनमानस में इंटरनेट का प्रभाव बहुत व्यापक है। प्रिंट (अखबार, पत्रिका आदि) और टेलीविजन की तुलना में इंटरनेट पर पाबंदी का नियम और भी कड़ा होना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस तर्क को नहीं माना। 

० सुप्रीम कोर्ट का निर्देश

शीर्ष अदालत ने सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और गृह सचिवों को यह सुनिश्चित करने के लिए कई निर्देश जारी किए कि, सभी लंबित मामलों से धारा 66ए का संदर्भ हटा दिया जाए।  कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि प्रकाशित आईटी अधिनियम के बेयर एक्ट्स को पाठकों को पर्याप्त रूप से सूचित करना चाहिए कि धारा 66 ए को अमान्य कर दिया गया है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ एनजीओ 'पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज' (पीयूसीएल) द्वारा दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें धारा 66 ए आईटी अधिनियम के मुद्दे पर प्रकाश डाला गया था।  

अपनी पिछली सुनवाई में, अदालत ने केंद्र सरकार को उन राज्यों के मुख्य सचिवों से संपर्क करने के लिए कहा था, जहां 2015 में अदालत द्वारा असंवैधानिक घोषित किए जाने के बावजूद सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत प्राथमिकी दर्ज की जा रही थी।  कोर्ट ने भारत सरकार से कहा था कि वह ऐसे राज्यों पर "जल्द से जल्द उपचारात्मक उपाय" करने के लिए दबाव डाले।

आज, भारत सरकार की ओर से पेश अधिवक्ता जोहेब हुसैन ने धारा 66ए के तहत शिकायतों के संबंध में एक अखिल भारतीय स्टेटस रिपोर्ट पेश की।  पीठ ने कहा कि, अधिवक्ता हुसैन ने सुझाव दिया कि श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ में धारा 66 ए की वैधता के मुद्दे के बावजूद, 2000 के इस अधिनियम की धारा 66 ए के प्रावधान, पर कई अपराध दर्ज किए जा रहे हैं, और अब भी, आपराधिक कार्यवाही चल रही है और कई नागरिक अभी भी, अदालतों में, मुकदमों का सामना कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मामले की गंभीरता पर गौर किया और कहा कि- "ऐसी कार्यवाही सीधे तौर पर श्रेया सिंघल के निर्देशों का उल्लंघन है।"

शीर्ष अदालत की पीठ द्वारा, मुकदमे की सुनवाई के बाद,  निम्नलिखित निर्देश पारित किए गए:

1. इसे दुबारा स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि, धारा 66ए के प्राविधान, संविधान का उल्लंघन है, अतः, आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 66 ए (IT Act 2000 Sec 66A) के तहत वर्णित अपराधों के उल्लंघन के लिए किसी भी नागरिक पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।
2. उन सभी मामलों में, जहां नागरिक धारा 66ए के उल्लंघन के लिए, अदालत में, मुकदमे या अभियोजन का सामना कर रहे हैं, उन सभी अपराधों से धारा 66ए हटा दी जाएगी।
3. हम राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सभी पुलिस महानिदेशकों, गृह सचिवों और सक्षम अधिकारियों को निर्देश देते हैं कि, "वे पूरे पुलिस बल को धारा 66ए के उल्लंघन के संबंध में कोई शिकायत या एफआईआर दर्ज न करने का निर्देश दें।  यह निर्देश केवल धारा 66ए के संदर्भ में ही लागू होगा।  यदि अपराध के अन्य पहलू हैं, जहां अन्य अपराध भी आरोपित हैं, तो उन्हें हटाया नहीं जाएगा।
4. जब भी कोई प्रकाशन, चाहे सरकारी, अर्ध सरकारी या निजी, आईटी अधिनियम के बारे में प्रकाशित किया जाता है और धारा 66 ए उद्धृत किया जाता है, पाठकों को पर्याप्त रूप से सूचित किया जाना चाहिए कि इस अदालत द्वारा 66 ए के प्रावधानों को संविधान का उल्लंघन करने के रूप में घोषित किया गया है।"

शीर्ष अदालत, ने जिस मुकदमे के संदर्भ में, यह निर्णय दिया है, उसकी पृष्ठभूमि इस प्रकार है। 

PUCL (पीयूसीएल) ने निम्नलिखित मुद्दों को उठाते हुए इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की सहायता से अदालत में एक याचिका दायर की। अदालत के समक्ष निम्न कानूनी सवाल उठाए गए। 

क) क्या श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2015) के मामले में जो निर्णय सुप्रीम कोर्ट ने दिया है, का अनुपालन किया जा रहा है। 
ख) क्या भारत संघ (यूनियन ऑफ इंडिया) द्वारा, इस संदर्भ में उठाए गए कदम पर्याप्त हैं?
ग) गलत जांच और अभियोजन से बचने के लिए श्रेया सिंघल में फैसले के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए क्या कदम उठाए जाने की आवश्यकता है?
घ) यह सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए कि, लोगों के कानूनी और संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण से संबंधित महत्वपूर्ण मामलों में पारित न्यायालय के निर्णयों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए?

आवेदन के अनुसार, श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (एमईआईटीवाई) द्वारा उठाए गए कदम पर्याप्त नहीं थे। 

इसमें कहा गया है कि भारत सरकार ने फैसले को लागू करने के बजाय, यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से किनारा कर लिया कि कार्यान्वयन की जिम्मेदारी राज्यों के साथ-साथ कानून प्रवर्तन एजेंसियों की भी है।  
तदनुसार, याचिकाकर्ता ने अदालत से अनुरोध किया कि वह 
० श्रेया सिंघल में निर्णय की घोषणा के बाद से आईटी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत पुलिस / कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा दर्ज मामलों का विवरण एकत्र करने के लिए भारत संघ को निर्देश दे।
० जांच के चरण में, राज्यों में पुलिस महानिदेशक और केंद्र शासित प्रदेशों के मामलों में प्रशासकों/लेफ्टिनेंट गवर्नरों को धारा 66ए के तहत आगे की जांच को बंद करने का निर्देश दें।  
० सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से सभी अधीनस्थ न्यायालयों (दोनों सत्र न्यायालयों और मजिस्ट्रेट न्यायालयों) को धारा 66 ए के तहत सभी आरोपों / मुकदमे को छोड़ने और ऐसे मामलों और सभी उच्च न्यायालयों में अभियुक्तों को रिहा करने के लिए सलाह जारी करने के लिए प्रार्थना की।  
० रजिस्ट्रार जनरलों के माध्यम से, सभी जिला न्यायालयों और मजिस्ट्रेटों को सूचित करने के लिए कि आईटी अधिनियम की निरस्त धारा 66 ए के तहत तत्काल कोई संज्ञान नहीं लिया जाना चाहिए।  
० सभी राज्यों के डीजीपी / सभी केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों से पुलिस / कानून प्रवर्तन एजेंसियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करने की प्रार्थना की, जो आईटी अधिनियम की निरस्त धारा 66 ए के तहत मामले दर्ज करते पाए गए और उच्च न्यायालयों को पहल करने की अनुमति दी। 
० धारा 66ए के तहत मामला दर्ज करने या इसकी जांच करने या मुकदमा चलाने के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ स्वत: अवमानना ​​​​कार्यवाही, यह सूचित किए जाने के बावजूद कि धारा 66 ए को हटा दिया गया है।

(विजय शंकर सिंह)

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