साहिर लुधियानवी को याद करते हुए गुलजार साहब ने, एक इंटरव्यू में कहा था,
"साहिर साब ने फ़िल्म और साहित्य दोनों में अपनी ज़ोरदार मौजूदगी दर्ज करवाई। उन दिनों जो लोग भी उर्दू कविता पढ़ते या सुनते थे या मुशायरों में जाते थे वे इस बात को जानते थे कि साहिर लुधियानवी कौन थे। वह लम्बे, गोरे और सुदर्शन इंसान थे और उनके चेहरे पर चेचक के छोटे छोटे दाग थे, उनके बोलने का अपना एक खस अन्दाज़ था। हमेशा बहुत विनम्र रहते थे, कभी बढ़-चढ़ कर बात नहीं करते थे- जबकि कई बार कवि अपने पढ़ने-लिखने को लेकर बहुत बढ़-चढ़ कर बातें करते हैं- लेकिन वे बहुत सादा इंसान थे।"
यह इंटरव्यू टाइम्स ऑफ इंडिया में, छपा था, जिसका अनुवाद हिन्दी में प्रभात रंजन ने किया था। आगे गुलजार कहते हैं,
"मुझे याद है कि उनको मंच से तब तक उतरने नहीं दिया जाता था जब तक कि वे अपनी प्रसिद्ध कविता ‘ताजमहल’ का पाठ नहीं कर लेते थे- मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे- यह कविता अवाम में बहुत मक़बूल थी। प्रगतिशील लेखक और कवि अक्सर इस बात को लेकर बहस किया करते थे कि ताजमहल को अमीरी गरीबी के नज़रिए से देखना ठीक नहीं था। लेकिन साहिरसाब पक्के कम्युनिस्ट कवि थे, और शैलेंद्र तथा अली सरदार ज़ाफ़री की तरह प्रगतिशील लेखक संघ(पीडबल्यूए) से जुड़े हुए भी थे।"
उस समय हिंदी उर्दू के अनेक बड़े और परिष्ठित लेखक, प्रगतिशील लेखक संघ PWA से जुड़े थे और उनका लेखन, एक प्रगतिशील सोच से प्रभावित था, जो दुनिया में बदलाव चाहता था। गुलजार इस संदर्भ में कहते हैं,
"इस आंदोलन से बाद में मैं भी जुड़ा। तब मैं फ़िल्मों में आया नहीं था। मैं एक मोटर गैराज में काम करता था और पीडबल्यूए की बैठकों में आता-जाता था। लेकिन मैं किस्मत वाला था कि मैं उस बंगले के आउटहाउस में रहता था जिसकी पहली मंज़िल पर साहिरसाब रहते थे। सात बंगला, अंधेरी के उस बंगले का नाम था कूवर लौज। बंगले के ग्राउंड फ़्लोर पर उर्दू लेखक कृश्न चंदर रहते थे, वे भी अपने समय के बहुत मशहूर हस्ती थे। और उस बंगले के आउटहाउस में रतन भट्टाचार्य और मेरे जैसे कुछ संघर्षरत लोग रहते थे। वह परिसर तो अभी भी है लेकिन अब वहाँ एक नई इमारत बन गई है।"
गुलजार, साहिर के गैर फिल्मी लेखन पर कुछ इस प्रकार कहते हैं,
"जब साहिर साब फ़िल्मों से जुड़े तो उर्दू लफ़्ज़ों के इस्तेमाल का उनका अपना ही ढंग था जो हम लोगों ने पहले नहीं सुना था। उदाहरण के लिए, जाल फ़िल्म का यह गीत ‘ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ। और थोड़ी देर में थक कर लौट जाएगी’ जैसी पंक्तियों में जिस तरह से भाव पिरोए जाते थे वह उस समय बहुत दुर्लभ बात थी। या गुमराह फ़िल्म का यह गाना, ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों’। किसी और शायर ने जुदाई को इस तरह से अभिव्यक्त नहीं किया जिस तरह से उन्होंने किया। आज भी आप उन गीतों को सुनते हैं तो आपके अंदर वह उसी तरह से ठहर जाता है जिस तरह से तब ठहर जाता था जब उस समय जब उनको लिखा गया था। उनके लिखे में उनके व्यक्तित्व की साफ़ झलक दिखाई पड़ती थी।"
साहिर की शख्सियत पर गुलजार कुछ यूं कहते हैं
"लेकिन इस सादा और विनम्र इंसान का अपना अहम और अहंकार भी था। वह फ़िल्म के संगीत निर्देशक जितनी फ़ीस माँगते थे। ऐसा नहीं था कि वे केवल बदे नामों के साथ काम करना चाहते थे। वे कहते, ‘आप अगर मेरी फ़ीस दे सकते हैं तो किसी छोटे संगीत निर्देशक के साथ भी काम कर सकता हूँ, कोई मुश्किल नहीं है।‘ इसी वजह से एन दत्ता और रवि उनके गीतों की धुन बनाते रहे। साहिरसाब को अपनी कविता को लेकर बहुत आत्मविश्वास रहता था।
वे ऐसे इंसान थे जिन्होंने लेखकों से हड़ताल करने के लिए कहा और कहा कि वे तब तक विविध भारती को गाने न दें जब तक कि उसके कार्यक्रमों में गीतकारों के नाम का भी उल्लेख न किया जाए। उसके पहले विविध भारती के कार्यक्रमों में गीत के साथ गायक-गायिकाओं तथा संगीतकारों के नाम ही लिए जाते थे। साहिरसाब ने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और अंत में विविध भारती तैयार हो गई।"
वे ऐसे पहले गीतकार थे जिनके पास अपनी कार थी। वे नवाब जैसे लगते थे। असल में, वे एक नवाब के बेटे थे। उनके घर में उनके अलावा उनकी माँ (सरदार बेगम) और रामप्रकाश अश्क़ रहते थे, जो उनके बहुत अज़ीज़ दोस्त थे और पाकिस्तान से ही उनके साथ आए थे। उनकी माँ एक सख़्त किस्म की महिला थीं। हमेशा सफ़ेद लखनवी चिकेन की सलवार क़मीज़ में रहती थीं। वह उनको बहुत प्यार करती थीं और उनको बच्चों की तरह डाँट लगाती थीं- बहुत डाँटती थीं, और पूरे बंगले में उनकी आवाज़ गूंजती रहती थी।
अब साहिर साहब की यह नज़्म पढ़े,
आज
साथियो! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
चाँद, तारों, बहारों के सपने बुने
हुस्न और इश्क़ के गीत गाता रहा
आरज़ूओं के ऐवां [1] सजाता रहा
मैं तुम्हारा मुगन्नी [2], तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहा
आज लेकिन मिरे दामने-चाक में [3]
गर्दे-राहे-सफ़र के सिवा कुछ नहीं।
मेरे बरबत के सीने में नग्मों का दम घुट गया है
तानें चीखों के अम्बार में दब गई हैं
और गीतों के सुर हिचकियाँ बन गए हैं
मैं तुम्हारा मुगन्नी हूँ, नग्मा नहीं हूँ
और नग्मे की तख्लाक [4] का साज़ों-सामां
साथियों! आज तुमने भसम कर दिया है
और मैं, अपना टूटा हुआ साज़ थामे
सर्द लाशों के अम्बार को तक रहा हूँ।
और इंसान की हैवानियत [6] जाग उठी है
बर्बरियत [7] के खूंख्वार अफ़रीत [8]
अपने नापाक जबड़ो को खोले
खून पी-पी के गुर्रा रहे हैं
बच्चे मांओं की गोद में सहमे हुए हैं
इस्मतें [9] सर-बरह् ना [10] परीशान हैं
हर तरफ़ शोरे-आहो-बुका [11] है
और मैं इस तबाही के तूफ़ान में
आग और खून के हैजान [12] मैं
सरनिगूं [13] और शिकस्ता [14]
मकानों के मलबे से पुर रास्तों पर
अपने नग्मों की झोली पसारे
दर-ब-दर फिर रहा हूँ-
मुझको अम्न और तहजीब की भीख दो
मेरे गीतों की लय, मेरे सुर, मेरी नै
मेरे मजरुह [15] होंटो को फिर सौंप दो
साथियों ! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
इन्किलाब और बग़ावत के नगमे अलापे
अजनबी राज के ज़ुल्म की छाओं में
सरफ़रोशी [16] के ख्वाबीदा [17] ज़ज्बे उभारे
इस सुबह की राह देखी
जिसमें इस मुल्क की रूह आज़ाद हो
आज जंज़ीरे-महकूमियत[ 18] कट चुकी है
और इस मुल्क के बह् रो-बर [19], बामो-दर [20]
अजनबी कौम के ज़ुल्मत-अफशां [21] फरेरे [22] की मनहूस
छाओं से आज़ाद हैं
खेत सोना उगलने को बेचैन हैं
वादियां लहलहाने को बेताब हैं
कोहसारों [23] के सीने में हैजान है
संग और खिश्त [24]
बेख्वाब-ओ-बेदार [25] हैं
इनकी आँखों में ता’मीर[ 26] के ख्वाब हैं
इनके ख्वाबों को तक्मील [27] का रुख दो
मुल्क की वादियां,घाटियों,
औरतें, बच्चियां-
हाथ फैलाए खैरात की मुन्तिज़र [28] हैं
इनको अमन और तहज़ीब की भीख दो
मांओं को उनके होंटों की शादाबियां [29]
नन्हें बच्चों को उनकी ख़ुशी बख्श दो
मुल्क की रूह को ज़िन्दगी बख्श दो
मुझको मेरा हुनर, मेरी लै बख्श दो
मेरे सुर बख्श दो, मेरी नै बख्श दो
आज सारी फ़जा [30] है भिखारी
और मैं इस भिखारी फ़जा में
अपने नगमों की झोली पसारे
दर-ब–दर फिर रहा हूं
मुझको फिर मेरा खोया हुआ साज़ दो
मैं तुम्हारा मुगन्नी, तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहूंगा
शब्दार्थ:
1.↑ कामनाओं के महल 2.↑ गायक 3.↑ फटे दामन में 4.↑ रचना 5.↑ वीभत्सताएँ 6.↑ पशुता 7.↑ बर्बरता 8.↑ राक्षस 9.↑ सतीत्व 10.↑ नंगे सिर 11.↑ आहों और विलाप का शोर 12.↑ प्रचंडता 13.↑ सिर झुकाए 14.↑ टूटे-फूटे 15.↑ घायल 16.↑ बलिदान 17.↑ सोये हुए 18.↑ दासता की बेड़ी 19.↑ समुद्र और धरती 20.↑ छत और द्वार 21.↑ अन्धकार फ़ैलाने वाले 22.↑ झंडे 23.↑ पहाड़ों 24.↑ पत्थर और ईंट 25.↑ जागरूक 26.↑ निर्माण 27.↑ पूर्णता 28.↑ प्रतीक्षित 29.↑ खुशियाँ 30.↑ वातावरण
साहिर लुधियानवी को उनकी पुण्यतिथि पर, विनम्र स्मरण।
(विजय शंकर सिंह)
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