Sunday, 16 October 2022

प्रवीण कुमार झा / 1857 की कहानी - एक (3)

(चित्र: हाथ में तलवार लिए सर कॉलिन कैम्पबेल भारतीय महिलाओं और बच्चों की रक्षा ‘भारतीय पुरुषों’ से करते हुए - ‘Sir Colin Campbell to the rescue’ Source: Harper Weekly में 17 अक्तूबर 1857 को छपा चित्र लेखक के पुस्तक संग्रह से) 

“अगर इस (सती) प्रथा पर रोक लगायी जाती है, तो हमारे स्थानीय सैनिक भड़क सकते हैं। कंपनी ने आज तक इस सिद्धांत का पालन किया है कि कभी भी हिंदुस्तान के धर्म में टाँग नहीं अड़ाएँगे। अगर हमारे सिपाहियों को यह लगा कि हम उनके धर्म से खिलवाड़ कर रहे हैं, तो एक दिन वे विद्रोह ज़रूर करेंगे।”

- ले. कर्नल प्लेफेयर, 1828

अंग्रेज़ों ने भारत पर आक्रमण नहीं किया, बल्कि वह तो तोहफ़े लेकर आए थे। बाद में सेटल होने के बाद युद्ध लड़े, लेकिन कारतूस गिन कर, लाभ-हानि तौल कर लड़े। वह दौर ही ऐसा था कि एक नमक, मसाला, अफ़ीम, रेशम और चाय का व्यापार करने वाली कंपनी भी तोप-बंदूक वाली एक सेना रखती थी। चाहे ब्रिटिश हों या पुर्तगाली, डच, फ्रेंच या डैनिश। अगर पेप्सी-कोला भी उस समय होते, तो आपस में दो-चार युद्ध लड़ लेते।

जब तक कंपनी भारत में रही, उसने खूब धन कमाया जिसे भारतीय ‘लूट’ कह कर संबोधित करते हैं। लेकिन, उस कालखंड के एक विदेशी कारोबारी से नैतिकता की उम्मीद क्या की जाए? उनका तो काम ही था धंधा बढ़ाना और लंदन में बैठे बोर्ड को टारगेट पहुँचाना। अगर वस्तुनिष्ठ होकर देखा जाए, तो अपने दो सौ वर्ष के व्यवसाय में उन्होंने ईसाई धर्म-प्रचार बहुत कम किया। उनसे कहीं अधिक गिरजाघर तो पुर्तगालियों ने बना दिए थे। कंपनी तो हिंदुओं को ‘अधिक हिंदू’ और मुसलमानों को ‘अधिक मुसलमान’ बनाए रखने में ही अपनी धंधे की भलाई देखती थी। इस प्राच्यवादी (ओरियेंटल) नजरिए पर मैंने ‘रिनैशाँ’ पुस्तक में कुछ विस्तार से लिखा है।

मगर जब सत्ता प्राइवेट कंपनी से सरकारी कंपनी की ओर जाने लगी, तो रास्ते बदलने लगे। अब बात धंधे की नहीं, बल्कि सभ्यता के झंडाबरदारों की नैतिकता की थी। अचानक ईसाई गतिविधियाँ तेज होने लगी। जितनी अंग्रेज़ी भाषा कंपनी ने दो सौ साल में नहीं सिखायी, उतनी ब्रिटिश ‘राज’ ने दस साल में सिखा दी। समाज की कुरीतियाँ कुरेदी जाने लगी। मैकाले जैसों ने ‘कंपनी बहादुर’ को लंबी डाँट लगा दी, जिसका सारांश यह था कि भला तुमने इतने वर्षों में इन्हें ‘सभ्य’ क्यों नहीं बनाया?

1857 पर छह खंडों में पहला विस्तृत इतिहास लिखने वाले जॉन केय (John Kaye) ने ब्राह्मणों को विद्रोह का खलनायक सिद्ध करते हुए लिखा, 

“जब पंडितों के दानवीय झूठ खुल गये, घृणास्पद प्रथाओं पर रोक लगा दी गयी, तो वे भड़क उठे। इन कुरीतियों की जड़ हिंदूवाद (Hindooism) में है, और उसे उखाड़ने में कुछ घाव तो उभरेंगे ही। कुछ दुर्घटनाएँ होंगी ही। किसी की जलती चिता पर स्त्री को लिटा देना, जनाना में बालिकाओं को मार देना, वृद्धों को जबरन नदी में डुबा कर मार देना…ऐसी क्रूर रीतियों से पंडितों को ताकत और धन मिलता है। जब यह दुष्टता खत्म हो रही है तो पंडितों को यह बात चुभ रही है, ख़ास कर यह कि उनके वर्षों से पाले-पोसे अंधविश्वास खत्म किए जा रहे हैं।”

समाज में कुरीतियाँ तो रही ही, लेकिन क्या वाकई 1857 के पीछे सती प्रथा उन्मूलन की बड़ी भूमिका थी? 

इसी दशक में एडिनबरा से सात खंडों में छपे गहन पुनरावलोकन ‘Mutiny at the margins’ के अनुसार यह नैरेटिव वज़नदार नहीं, लेकिन हिंदुओं को यह बात खल रही थी कि यह हस्तक्षेप आखिर फिरंगी क्यों कर रहे हैं। यह प्रथा बृहत भारत में पहले से ही आंतरिक सुधारों से क्रमश: घटती जा रही थी, लेकिन ईसाई मिशनरियों द्वारा अति-प्रचारित धर्म-निंदा से वे चिढ़ रहे थे। मुमकिन है वे भी गिरजाघरों में हो रहे यौन-शोषण पर टिप्पणी से भड़क जाते, ख़ास कर अगर छुपा उद्देश्य धर्म-परिवर्तन होता। 

1828 में अपना पद संभालते ही लॉर्ड बैंटिक ने 49 न्यायाधीशों और सेना अफ़सरों को चिट्ठी लिखी,

“अगर मैं सती प्रथा को खत्म कर दूँ तो क्या सिपाही विद्रोह कर देंगे? क्या ऐसे कदम से हमारे प्रशासन के प्रति किसी तरह के असंतोष की संभावना है?”

उनको बहुमत से उत्तर मिला- “नहीं!”

अगले ही वर्ष यह प्रथा खत्म करने का आदेश दिया गया और वाकई किसी तरह का सिपाही विद्रोह नहीं हुआ। यह नैरेटिव तो उसके तीन दशक बाद बना - ‘जब अंग्रेजों ने क्रूर हिंदुओं से उनके स्त्रियों की रक्षा की तो हिंदू भड़क उठे’। 

इसी तरह भारतीय मुसलमानों को खलनायक बनाने के लिए भी नैरेटिव बना, जिसकी चर्चा आगे करूँगा।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha

1857 की कहानी - एक (2) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-2.html 


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