Wednesday, 19 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (7)


               (चित्र: रानी जिंदन)

क़िस्सा है कि जब अंग्रेज़ों ने युद्ध में हरा कर अपनी सेना पंजाब में रखनी शुरू कर दी, तो रानी जिंदन ने अपने सिपहसलारों पर चूड़ियाँ फेंकते हुए कहा, 

“लो! यह पहन लो! फिरंगी लाहौर में घूम रहे हैं और तुमलोग चुप बैठे हो? गद्दार तेज सिंह को अंग्रेजों ने सियालकोट की गद्दी दे दी। तुम्हें अब भी कुछ समझ नहीं आया? आँखे खोलो! जागो! पंजाब के लिए, अपनी मिट्टी के लिए, लड़ो! निकाल बाहर करो फिरंगियों को!”

फिरंगी तो क्या निकलते, अंग्रेज़ रीजेंट हेनरी लॉरेंस ने वज़ीर लाल सिंह के मार्फ़त रानी जिंदन को लाहौर जेल में बंद करने का आदेश दे दिया। जब रानी को घसीट कर ले जाया जा रहा था, रानी ने पंजाबी में कहा,

“फिरंगियों! तुमने हम पर धोखे से वार किया है। निर्दयियों! एक माँ को पुत्र से अलग कर रहे हो? मुझे राज्य नहीं चाहिए। मेरा बेटा मुझे दे दो”

रानी की एक न सुनी गयी। कुछ समय बाद पंजाब के मुल्तान से एक आखिरी चिनगारी ज़रूर जन्मी जब सूबेदार मूलराज ने सिखों को संगठित किया। कुछ अंग्रेज़ अफ़सरों की सार्वजनिक पिटाई भी की। लेकिन, नए गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी अलग ही मिशन के साथ आए थे। उन्होंने तमाम तोप और हथियार लगा कर टूटी-बिखरी सिख सेना पर 1849 के चिलियाँवाला युद्ध में निर्णायक जीत पायी। 

दस साल के बालक दलीप सिंह से लाहौर में ऐसे करारनामे पर हस्ताक्षर कराए गए, जिसे वह समझने की स्थिति में नहीं थे। उनकी माँ पहले से कारागार में बंद थी। करार के मुताबिक़ 

1. दलीप सिंह या उनके कोई भी उत्तराधिकारी पंजाब की सत्ता से वास्ता नहीं रखेंगे
2. राज्य की संपत्ति और ख़ज़ाना ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा युद्ध-खर्च के मुआवज़े के रूप में जब्त कर ली जाएगी
3. दलीप सिंह अपने बाजू में लगा ‘कोहिनूर हीरा’ महारानी विक्टोरिया को सौंप देंगे
4. महाराज अपनी पदवी ‘बहादुर’ लगा सकते हैं, उन्हें चार से पाँच लाख तक पेंशन मिलेगी और उन्हें सम्मान के साथ ब्रिटिश महारानी और कंपनी के निगरानी में रखा जाएगा।

दलीप सिंह को कुछ साल फतेहगढ़ (वर्तमान उत्तर प्रदेश में) में रख कर बाद में लंदन ले जाया गया। वहाँ कोहिनूर गले में डाले महारानी विक्टोरिया ने कुछ समय उन्हें अपने महल में राजकुमारों के साथ भी रखा। मगर दलीप सिंह को भारत और अपनी माँ रानी जिंदन की याद सताने लगी। अंग्रेज़ों ने न भारत आने दिया, न माँ से मिलने दिया। वह आखिर बाइस वर्ष की अवस्था में अपनी बूढ़ी और दृष्टिबाधित हो चुकी माँ से मिल पाए, जब उनको लंदन लाया गया। 

दलीप सिंह को एक बड़ा एस्टेट और तमाम सुविधाएँ दी गयी थी, मगर वह आखिर पंजाब तो नहीं था। उन्होंने कोहिनूर वापस करने की अर्ज़ी दी, जो ठुकरा दी गयी। उन्होंने मरने के बाद लाहौर में एक सिख की तरह अंतिम संस्कार कराने की अर्ज़ी दी। मगर उन्हें पेरिस से इंग्लैंड लाकर एक गिरजाघर में ईसाई की तरह दफ़नाया गया। अंग्रेज़ों को अंत तक यह भय था कि उनका या उनके शव का पंजाब आना विद्रोह की चिनगारी बन सकता है। 

पंजाब को मिलाने के बाद लॉर्ड डलहौज़ी के ‘ब्रिटिश भारत’ में सभी बड़े राज्य मिल गए थे या उन पर आश्रित थे। अपने कमरे में मानचित्र निहारते हुए, वह अपनी आँखों के ठीक सामने एक रियासत देख रहे थे, जो अब भी पूरी तरह हिस्सा नहीं बनी थी। महारानी को कोहिनूर का तोहफ़ा देने वाले डलहौज़ी को यह कीमती तोहफ़ा तो देना ही था। उसके बिना भारत की तस्वीर कैसे सोची जा सकती थी? 
आखिर वह अवध था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (6) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-6.html 

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