Thursday 13 October 2022

प्रवीण कुमार झा - 1857 की कहानी (1)

“देवियों और सज्जनों! यह जाम हिंदुस्तान की लाश के नाम”

- लॉर्ड वेलेजली, गवर्नर जनरल (टीपू सुल्तान की मृत्यु की खबर सुन कर शराब का प्याला उठाते हुये. 

2007 में दिल्ली के आइटीओ चौराहे से चहलकदमी करते हुए इरविन अस्पताल की ओर रात की ड्यूटी करने जा रहा था। हालाँकि अस्पताल का नाम बदल कर लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल हो चुका था, लेकिन यह इरविन नाम इस कदर चिपक चुका है कि जयप्रकाश अक्सर फिसल जाया करते हैं। 

उस सड़क का नाम आख़िरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र के नाम पर था। सड़क के बीचों-बीच डिवाइडर पर ही पेड़ों के झुरमुटों के बीच एक जर्जर इमारत थी। वहाँ दो मेडिकल कॉलेज के लड़के सड़क पार करने खड़े थे, जिनसे मैं बतियाने लगा। मैंने पूछा कि इसका इतिहास जानते हो?

उन्होंने कहा कि इसका इतिहास तो पूरा कॉलेज जानता है। यहाँ हमारे कॉलेज की लड़की के साथ वह हादसा हुआ था। मैंने बात टाल कर दुबारा पूछा कि इतिहास में सौ-डेढ़ सौ साल पीछे जाकर बताओ। उन्होंने दरवाजे के बायीं तरफ़ लगी लाल तख़्ती पढ़ कर कहा, “यह ख़ूनी दरवाजा है जिसे शेरशाह सूरी ने बनवाया था”। 

मैंने ज्ञान बघारते हुए कहा कि जहाँगीर ने अब्दुर-रहीम-ख़ानख़ाना के बच्चों को, और औरंगज़ेब ने दारा शिकोह के कटे हुए सर को यहीं लटकाया था। एक ने दरवाजे के दायीं तरफ़ लगी सफ़ेद तख़्ती पढ़ कर मेरी बात काटी कि यहाँ ऐसी बात तो नहीं लिखी। जो बात लिखी थी, वह तो ख़ैर मालूम थी। 

उस पर लिखा था-

“कैप्टन हडसन ने मिर्जा मुगल, खिज्र सुल्तान और मिर्जा अबूबकर तीन राजकुमारों को हुमायूँ के मकबरे पर दिनांक 22 सितंबर 1857 को हिरासत में लिया और एक बैलगाड़ी में दिल्ली भेज दिया। कैप्टन हडसन उनके पीछे आए और इस स्थान पर उन्हें मिले। चारों ओर बहुत भीड़ थी। इस भय से कि भीड़ कहीं राजकुमारों को मुक्त न करवा ले, कैप्टन ने उनके ऊपरी वस्त्र उतरवा लिए और एक-एक कर तीनों को गोली मार दी।”

बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग की छाती के बीचों-बीच शूल की तरह यह खूनी दरवाजा मौजूद है, जहाँ उनके शहज़ादों को मौत के घाट उतारा गया। भले अब वहाँ से गुजरते लोगों की निगाह भी नहीं जाती। इसकी पटकथा तो सदियों पहले लिखी जा चुकी थी। 

31 दिसंबर, 1600 ई. में महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके अनुसार वह डच ईस्ट इंडिया कंपनी (VOC) की तरह ईस्ट इंडीज़ (इंडोनेशिया आदि) में अपनी दुकान बिठा सकती थी। मगर कंपनी की नज़र भारत पर थी। उन्होंने पैरवी लगवा कर शाही राजदूत थॉमस रो को शहंशाह जहाँगीर से मुलाक़ात करने का अनुरोध किया।

स्वयं थॉमस रो के वर्णन के अनुसार जहाँगीर को चित्रकलाओं का शौक था। अपनी एक प्रेमिका का चित्र उन्होंने तोहफ़ा रूप में दिया। उन्होंने लिखा है, 

“(जहाँगीर) पूछते कि मैं कौन सी शराब पीता हूँ? कितनी पीता हूँ? बीयर (Beere) क्या होता है? क्या यहाँ बनाया जा सकता है?”

आगरा में हुई इस चकल्लस के कुछ ही दशकों के अंदर सूरत, मसुलीपट्टनम और पटना में ईस्ट इंडिया कंपनी के अड्डे खुल चुके थे। अगली दो सदियों में एक तरफ़ मुगलों का अवसान होता गया, दूसरी तरफ़ ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने प्रमुख पश्चिमी प्रतिद्वंद्वी फ्रांस को भारत से लगभग बेदख़ल कर दिया। 

1799 में टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद अब उनके समक्ष मराठा ही मुख्य ताक़त थे, जो स्वयं बिखरने लगे थे। दिल्ली की गद्दी पर बैठे दृष्टिहीन हो चुके शाह आलम के लिए तो चुटकुला था, 

“सुल्तान-ए-शाह आलम
अज दिल्ली ता पालम”

[सुल्तान का राज दिल्ली से पालम तक]

कंपनी के वजूद को अगर कोई खतरा था, तो शायद वह भारत से नहीं, लंदन से था। एक वाक्य का उत्तर पूछा जाए कि 1857 से आखिर क्या हासिल हुआ, तो यह कहा जा सकता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम-ओ-निशां हमेशा के लिए मिट गया।*
(क्रमश:) 

प्रवीण झा
Praveen Jha 

*अब ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ नामक ब्रांड के मालिक संजीव मेहता नामक एक भारतीय व्यवसायी हैं, हालाँकि विलियम डैलरिम्पल ने अपनी पुस्तक ‘अनार्की’ में किसी केरल के व्यवसायी को इसका मालिक बताया है।

1857 की कहानी (भूमिका) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/prelude-1857.html 

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