Sunday 23 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (11)


“हिंदुस्तानियों को यह लगने लगा कि हर कानून उन्हें नीचा दिखाए जाने के लिए बनाए जा रहे हैं। उनके मज़हब से भटका रहे हैं। आखिर वह समय आ गया जब उन्हें ब्रिटिश सरकार एक धीमा जहर, एक रेत की रस्सी, एक विश्वासघाती आग की लपट की तरह दिखने लगी। उन्हें लगने लगा कि अगर आज उनका घर बच भी गया, तो कल नहीं बचेगा।”

- सैयद अहमद ख़ान (The Cause Of The Indian Revolt पुस्तक में)

सिपाही विद्रोह या राजे-रजवाड़ों द्वारा उकसाया हुआ ब्रिटिश-विरोधी संग्राम कहना 1857 के साथ न्याय नहीं है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिज़रायली का भी मानना था कि इसे मात्र विद्रोह (mutiny) तक सीमित रख कर नहीं देखा जा सकता। यह कहा जा सकता है कि इसे ‘स्वतंत्रता संग्राम’ कहना आने वाली सदी में राष्ट्रवाद के हुंकार के लिए आवश्यक रहा होगा। 

कई राष्ट्रवादी गीतों के रचयिता सावरकर अपनी अलंकृत भाषा में ‘विस्फोट’, ‘अग्नि-कल्लोल’ जैसे खंडों में अक्सर जोश से भरे उद्गार लिखते हैं, जहाँ इतिहास और काव्य में भेद कठिन है। जैसे उन्होंने भगीरथी (गंगा नदी) के शब्द लिखे- “हे कुंवर सिंह! तेरे कारण यह देवी जाह्नवी पुत्रवती हुई है”। इसमें पारंपरिक इतिहासकार टिप्पणी कर सकते हैं कि भला भगीरथी ने ऐसा कब और कैसे कहा, लेकिन इसके मायने अलग थे। उनके पाठक यूपीएससी के लिए इतिहास के नोट्स बनाने वाले लोग नहीं थे, बल्कि वह आम जनता से संवाद कर रहे थे। 

1857 के विश्लेषण में कई अन्य आयाम जुड़े हैं। उन सभी का केंद्र-बिंदु एक नज़र आता है कि यह ‘सांस्कृतिक बदलाव’ के प्रति एक बिखरा हुआ विद्रोह था। स्थानीय कारण भिन्न थे, लेकिन उनकी जड़ें एक थी। 

1843 से 1849 के मध्य सुदूर उत्तर-पूर्व में सिंघपो जनजाति के नेता निरंग फिदू और कदमा सिंघपो ने ब्रिटिश छावनी पर हमला कर उन्हें भारी हानि पहुँचायी और कई ब्रिटिश फौजियों को मार डाला। वे किस तरह के राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर ऐसा कर रहे थे? इसे समझना आधुनिक दुनिया के लिए भी आवश्यक है। एक उदाहरण देता हूँ।

बंगाल प्रांत का एक बड़ा हिस्सा पहाड़ों और जंगलों का था, जिसका एक अंश अब झारखंड राज्य बन चुका है। राजमहल पहाड़ियों और उसकी तराई के इस इलाके में पहाड़िया लोग जंगलों में रह कर झूम खेती करते हुए जीवन-यापन करते थे। कंपनी के लिए यह समृद्ध इलाका कोई कमाई नहीं देता, और यहाँ के पहाड़ी इन्हें हस्तक्षेप भी नहीं करने देते।

अठारहवीं सदी के अंत से अंग्रेज़ों ने संथाल जनजाति के लोगों को यहाँ बसाना शुरू किया। ये उनके आदेश पर जंगलों को काट कर मैदान में बदल कर पारंपरिक खेती करने लगे। जैसे-जैसे जंगल कटने लगे, पहाड़िया लोग बचे-खुचे जंगलों में सिकुड़ते चले गए। संथालों का यह मैदानी इलाका कहलाया ‘दामन-ई-कोह’ (पर्वतों का आंचल)।

इसका विस्तार इसी से समझें कि 1838 में यहाँ कुल 40 संथाल गाँव और 3,000 संथाली थे। 1851 में कुल 1471 गाँव और 82,795 संथाली (और अन्य) जनसंख्या आ गयी। कितने जंगल काट दिए गए होंगे! एक पूरी संस्कृति ही बदल दी गयी। मैं यहाँ अभी मिशनरी ईसाई अतिक्रमण की बात नहीं छेड़ूँ, तो भी हज़ारों वर्षों के पहाड़ी जीवन को एक दशक में यूँ बदल देना कितना सही था? 

धीरे-धीरे यहाँ बंगाल प्रांत के जमींदार, महाजन, और अन्य व्यवसायी आने लगे, जो संथालों से उनकी ज़मीन भी हथियाने लगे। एक वर्णन है कि उस समय दो तरह के बटखरे रखे जाते- एक भारी बटखरा था ‘किनाराम’, जिससे संथालों से अनाज खरीदा जाता, और एक हल्का बटखरा था ‘बेचाराम’ जिससे उन्हें चीजें बेची जाती। 

जब कई संथाली अपनी ही ज़मीन में बंधुआ बनते गए, तो उनके ‘देवताओं’ ने आदेश दिया कि उन्हें एकजुट होना होगा। अलग-अलग गांवों में बीर सिंह, सिद्धू-कान्हू, मोरगो राजा ने संथालों को संगठित करना शुरू किया। 25 जुलाई, 1855 को कैथी लिपि में एक घोषणापत्र तैयार किया गया जिसका अर्थ था, 

“इन महाजनों और इनके मालिक कंपनी साहबों का पाप अब खत्म करना होगा। इन सबने मिल कर हमारे जीने का तरीका बदल दिया।”

उसके बाद के घटनाक्रम को लूट, डकैती और हत्याओं की तरह दर्ज किया गया है, जो न सिर्फ़ अंग्रेजों बल्कि बंगाली और अन्य सवर्ण महाजनों के ख़िलाफ़ भी था। भागलपुर के कमिश्नर ने एक चिट्ठी में लिखा है,

“वे छोटे-छोटे समूहों में घूमते हैं, लेकिन जैसे ही पकड़ने जाओ तो ढोल बजाते हैं; और न जाने कहाँ से दस हज़ार संथाल अचानक सामने आ जाते हैं!”

16 जुलाई, 1855 को अपने तीर-धनुष से संथालों ने मेजर बरॉ की सशस्त्र फौज को हरा दिया, और पच्चीस सिपाही वहीं के वहीं मारे गए जिनमें अंग्रेज़ सर्जंट भी शामिल थे। उनके पीछे जो बैक-अप आ रही थी, वह खबर सुनते ही रास्ते से लौट गयी।

इस पूरे घटनाक्रम को कंपनी ने अपने ख़िलाफ़ एक ‘विद्रोह’ का नाम दिया, जिसके लिए उन्हें अपनी कई टुकड़ियाँ तैनात करनी पड़ी, कई संथालों को मारा गया। आखिर इस पूरे दामन-ई-कोह को विभाजित कर संथाल परगना में तब्दील करना पड़ा। 

अरुणाचल और असम में हो रहे विद्रोह की नींव भी कुछ ऐसी ही थी, जो जीवन-शैली में अचानक बदलाव और जंगलों के व्यवसायीकरण से उपज रही थी। इनकी वजह यह नहीं थी कि फलाँ राजा की पेंशन बंद हो गयी, या उत्तराधिकार न होने के कारण गद्दी चली गयी। उससे अधिक सूक्ष्म स्तर पर थी। 

इनके लिए मातृभूमि का अर्थ मूलभूत था और इस कारण विद्रोह के मायने स्पष्ट थे। जब हम जन-आंदोलन की छवि बनाते हैं, तो वह कुछ यूँ बनती है कि ढोल बजाते ही हुंकार करते दस हज़ार लोग जमा हो जाएँ। अगर ऐसा विस्तृत स्तर पर होता तो किसी भी प्रशासन के लिए इसे सँभालना असंभव होता। लेकिन, भले अंतिम लक्ष्य एक हो, अक्सर लोग यह ढूँढते हैं कि ढोल बजाने वाला किस क्षेत्र, किस जाति, किस धर्म का है। यह बात अंग्रेज़ बखूबी जानते थे। 
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha

1857 की कहानी - एक (10) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-10.html 

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