Sunday, 16 October 2022

प्रवीण कुमार झा / 1857 की कहानी - एक (4)



भले सती प्रथा बड़े तौर पर भड़काऊ मुद्दा नहीं थी, लेकिन धर्म में हस्तक्षेप की चर्चा चलने लगी थी। ब्रिटिश राज के दस्तक और ईसाइ मिशनरियों की गतिविधियों को हिंदू और मुसलमान, दोनों ही अपने तरीके से देख रहे थे। 

औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद जब मुगलों का अवसान तय हो गया, तो मुसलमानों का मनोबल गिरने लगा था। बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला की हार के बाद जब टीपू सुल्तान की भी अंग्रेजों से हार हुई, तो शाह अब्दुल अज़ीज़ दहलवी ने अपने फतवे में कहा,

“हिंदुस्तान अब दार-उल-इस्लाम नहीं रहा”

वहीं, हिंदुओं की आख़िरी उम्मीद मराठों से थी, जो पहले ही एक संघ (confederacy) रूप में थे। पेशवा, होलकर, सिंधिया, गायकवाड़, भोंसले और तमाम खेमे आपस में ही भिड़ने लगे थे।

जब मैंने लिखा कि कंपनी कारतूस गिन कर लड़ती थी, तो इसका यह भी अर्थ था कि वह फ़िज़ूल की लड़ाई नहीं लड़ती। भारत के विकेट अपने-आप ही गिर रहे थे, कंपनी सिर्फ़ गिल्लियाँ समेट रही थी। टीपू सुल्तान को हराने के बाद जब कंपनी लगभग पूरे प्रायद्वीप पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शासन चलाने लगी थी, तो कितने अंग्रेज़ अफ़सर या सिपाही रहे होंगे?

1800 ई. की गिनती के अनुसार मात्र 600 अंग्रेज़ अफ़सर कुल 1,55,000 ‘भारतीय’ सिपाहियों की सहायता से शासन चला रहे थे और गाहे-बगाहे युद्ध लड़ रहे थे। 

मराठों से आखिरी युद्ध का उदाहरण देता हूँ, जो 1817-19 में लड़ा जा रहा था। खड़की (पुणे के निकट) में मराठों की लगभग तीस हज़ार सैनिकों की सेना के सामने मात्र तीन हज़ार की ब्रिटिश फौज थी। उस फौज में भी कुछ अफ़सरों को छोड़ कर सभी भारतीय सिपाही। फिर भी पेशवा की हार हुई। जहाँ 500 मराठा सिपाही मारे गए, वहीं सिर्फ़ 90 ब्रिटिश भारतीय सिपाही मरे। 

मैं जब नासिक के त्र्यंबकेश्वर मंदिर गया था, तो मालूम पड़ा कि उसी युद्ध के दौरान वहाँ सुशोभित 90 कैरेट का नासिक हीरा गायब हो गया। मान्यता है कि बाजीराव द्वितीय ने छुप-छुपा कर वह हीरा अंग्रेजों के हाथ में दे दिया, और युद्ध से पहले ही अपनी पेंशन पक्की कर ली। बाद में उन्हें कानपुर के निकट गंगा किनारे बिठूर में टिका दिया गया। वह हीरा लंदन-न्यूयार्क होते हुए टुकड़ों में बिखर कर अब लेबनान में किसी सेठ के पास है।

राजा-नवाबों या कंपनी के लिए उस हीरे का महत्व भले लेन-देन तक सीमित हो, मगर मंदिर के तीर्थयात्रियों पर इसका प्रभाव न पड़ा हो, यह संभव नहीं। उन्हें जब यह मालूम पड़ा कि उनके शिवालय का हीरा लंदन में नीलाम हो रहा है, तो वह किसी विद्रोह की अपेक्षा करने लगे। जबकि 1857 के ब्रिटिश इतिहास में इस कारण को तवज्जो ही नहीं दी गयी। वे सती प्रथा उन्मूलन से इसे जोड़ते रहे, जिसे धार्मिक कुरीति से जोड़ने में सहूलियत थी। अगर नैतिक जीत ही दिखानी थी, तो मंदिर का हीरा ही वापस कर देते। यूँ भी उसकी कीमत मात्र तीन हज़ार पाउंड लगायी गयी थी, जिससे ब्रिटिश खजाने में भला क्या इज़ाफ़ा हुआ होगा! 

हिंदुओं और मुसलमानों के अतिरिक्त एक तीसरा खेमा भी था। बल्कि यह इकलौता खेमा था, जो उन्नीसवीं सदी में गिरने के बजाय चढ़ता ही चला गया। बिखरने के बजाय जुड़ता चला गया। कमजोर होने के बजाय शक्तिशाली होता गया।

आज अगर पाकिस्तान के कुछ प्रांत महाराजा रणजीत सिंह को अदब से याद करते हैं, उसकी वजह यह है कि पूरा वर्तमान पाकिस्तान उनके द्वारा ही एकीकृत किया गया था। यह ‘सिख खालसा राज’ कहा जाता, हालाँकि इसमें बहुसंख्यक मुसलमान और हिंदू थे। अंग्रेज़ों के साथ करार यह था कि दोनों में कोई भी सतलज नहीं पार करेंगे। मोटे तौर पर कुछ ऐसी ही सीमा-रेखा अब भारत-पाकिस्तान के मध्य है।

मगर जब लॉर्ड बैंटिक ‘इंडिया’ के गवर्नर बने तो कुछ अफ़सर घोड़े पर बैठ कर सतलज किनारे घूम आते। उन्हें उस पार दो खजाने दिख रहे थे। पहली थी जोश से भरी खालसा सेना, जिसे वह अपने औपनिवेशिक युद्धों में प्रयोग कर सकते थे। 

दूसरी तो कुछ ऐसी ही चीज थी जिसे उन्होंने मराठों से हासिल किया था।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (3) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-3.html 

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