गांधी अब दांडी के बहुत नजदीक आ गए थे। सागर तट करीब आता जा रहा था। 1 अप्रैल को, गांधी प्राचीन व्यापारिक शहर सूरत में प्रवेश कर गए थे। सूरत भारत का एक व्यापारिक शहर है। ईस्ट इंडिया कंपनी और यूरोप से आने वाली डच, पुर्तगाली औपनिवेशिक ताकतों का पहला पड़ाव सूरत ही पड़ा था। मुगल काल में भी सूरत एक व्यापारिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। शाहजहां और औरंगजेब के समय में, सूरत की जागीरदारी, मुगल शाहजादी जहांआरा को दी गई थी। एक समय, शिवाजी ने भी सूरत पर हमला करके, वहां के विदेशी औपनिवेशिक ताकतों से चौथ वसूली थी। ब्रिटिश काल में, यूरोप की औद्योगिक क्रांति के बाद, सूरत कपड़ों की मिल का एक बड़ा केंद्र बन गया था। आज भी सूरत, देश में वस्त्र उद्योग का एक प्रमुख केंद्र तो है ही, साथ ही, हीरा तथा अन्य रत्नों के व्यापार और उनके उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र भी है।
व्यापारिक रूप से, एक महत्वपूर्ण शहर होने के अतिरिक्त, सूरत राजनीतिक रूप से जागरूक शहर भी रहा है। इंडियन नेशनल कांग्रेस के इतिहास में सूरत का महत्व इसलिए भी है कि, विचारधारा और ब्रिटिश राज के खिलाफ किस तरह से प्रतिरोध जताया जाय, इसे लेकर कांग्रेस में पहला विभाजन, साल 1907 में ही हुआ था। यह विभाजन नरम दल और गरम दल के अलग अलग होने के कारण, हुआ था। ब्रिटिश शासन का खुल कर विरोध की नीति पर चलने के इच्छुक, गरमदल के नेता, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक थे तो, संवैधानिक रूप से ब्रिटिश राज का विरोध करने की नीति, गोपाल कृष्ण गोखले की थी। साल, 1885 में, एक सेफ्टी वाल्व सिद्धांत और उद्देश्य पर गठित इंडियन नेशनल कांग्रेस, केवल 12 साल में ही साम्राज्य के प्रति मुखर हो चली थी। अंग्रेजों को लगता था कि, कांग्रेस, आभिजात्य और विलायत पलट अंग्रेजीदा लोगों के संवैधानिक विरोध की औपचारिकता तक ही सीमित रहेगी पर, ऐसा हो नहीं सका। कांग्रेस का कलेवर, तेजी से बदल रहा था। स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा, का, भरी अदालत में, उद्घोष करने वाले तिलक गुट, की गरम दलीय नीतियां, जनता में, गोखले की संवैधानिक विरोध की नीति से अधिक लोकप्रिय हो रही थीं। तिलक को, ब्रिटिश, फादर ऑफ द इंडियन अनरेस्ट ऐसे ही नहीं कहते थे। तिलक और गोखले की मत वैभिन्यता के कारण, 1907 का सूरत विभाजन, इंडियन नेशनल कांग्रेस में हुआ पहला विभाजन था।
लेकिन, 1907 के ‘सूरत विभाजन’ की पृष्ठभूमि तो, 16 अक्तूबर 1905 के बंगाल विभाजन के बाद उठे बंगभंग आंदोलन के बाद ही बननी शुरू हो गई थी। तत्कालीन वाइसरॉय लार्ड कर्जन ने बंगाल प्रान्त को, उसका विशाल क्षेत्रफल और प्रशासन में कठिनाई होने के तर्क पर, दो भागों में बांट दिया था, ताकि, बंगाल प्रांत का सुगमता से प्रशासन और प्रबंधन किया जा सके। लेकिन, प्रशासनिक सुगमता के तर्क के अलावा, लॉर्ड कर्जन का एक गोपनीय उद्देश्य भी था, पूर्वी बंगाल में, मुस्लिम आबादी को अलग कर देना। 1857 के विप्लव के दौरान, हिंदू मुस्लिम एकता से अंग्रेजो ने, सबसे जरूरी सबक यही ग्रहण किया कि, किसी भी प्रकार का साम्प्रदायिक सद्भाव, भारत में, उनके साम्राज्य के अस्तित्व के लिए खतरनाक हो सकता है। और यह सबक, 1947 तक, जब तक भारत का अंग भंग नहीं हुआ, वे अपने मस्तिष्क से अलग नहीं कर पाए। साम्प्रदायिक आधार पर किये गए बंग भंग का पूरे बंगाल में विरोध तो हुआ ही, साथ ही, यह एक राष्ट्रीय आंदोलन भी बन गया। इसका असर ब्रिटिश सरकार पर भी पड़ा और बाद में, यह विभाजन सरकार को, 1911 में रद्द भी करना पड़ा। हालांकि, इसके रद्द करने पर भी, कुछ हिस्सों में विरोध हुआ, पर उसका बहुत प्रभाव नहीं पड़ा।बंग भंग आंदोलन की देशव्यापी व्यापकता और बंगाल में, इस आंदोलन की, अतिशय लोकप्रियता ने, न केवल क्रांतिकारी आंदोलन को मजबूत किया, बल्कि कांग्रेस, का सबल प्रतिरोधी चरित्र भी उभर कर सामने आया।
किन्तु सूरत कांग्रेस अधिवेशन में, कांग्रेस के विभाजन का तात्कालिक कारण, बंगभंग आंदोलन नहीं बल्कि, कांग्रेस के अंदर का वैचारिक द्वंद्व था जो तिलक और गोखले की विचारधारा के रूप में, सतह पर आ गया था। तिलक के समर्थक चाहते थे कि, कांग्रेस का 1907 का अधिवेशन नागपुर में हो, और बाल गंगाधर तिलक या लाला लाजपतराय इसके अध्यक्ष बनें तथा इसमें स्वेदशी व बहिष्कार आंदोलन और राष्ट्रीय शिक्षा के पूर्ण समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया जाये। जबकि, उदारवादियों जिसे नरम दल के रूप में इतिहास में कहा जाता है, ने अधिवेशन को सूरत में ही आयोजित करने, रासबिहारी घोष को अध्यक्ष बनाने तथा स्वदेशी, बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रस्ताव को वापिस लेने की जोरदार मांग की। दोनों ही पक्षों ने अपना अड़ियल रूख बनाये रखा तथा किसी भी समझौते की संभावना को नकारते हुए कांग्रेस का विभाजन को सुनिश्चित कर दिया।
किन्तु, यह विभाजन महज़ इन दोनों पक्षों के मध्य वैचारिक वैभिन्यता का ही परिणाम नहीं था। इसके पीछे सरकार की भी सोची समझी रणनीति अपना काम कर रही थी। सरकार ने कांग्रेस के प्रारंम्भिक वर्षों से ही, उदारवादियों के साथ सहयोगात्मक रूख बनाये रखा था। किन्तु, बाद के वर्षों में, स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलनों के उभरने से कांग्रेस के प्रति सरकार का मोह भंग हो गया तथा उसने ‘अवरोध, सांत्वना एवं दमन’ की त्रिचरणीय रणनीति बनाई। अपनी रणनीति के प्रथम चरण में सरकार ने उदारवादियों (नरम दल) को डराने हेतु अतिवादियों (गरम दल) के दमन की नीति अपनाई। द्वितीय चरण में सरकार ने उदारवादियों की कुछ मांगों पर सहमति जताकर उन्हें आश्वासन भी दे दिया कि यदि वो खुद को अतिवादियों से दूर रखें, तो देश में संवैधानिक सुधार संभव हो सकते हैं। इस प्रकार उदारवादियों को अपने पक्ष में करने के तथा उन्हें अतिवादियों के खिलाफ खड़ा करने के बाद, सरकार के लिये अतिवादियों का दमन करना आसान हो गया।
लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी वैचारिक द्वंद्व तो सामने आ ही गया था और जनता ने, गरम दल या राज के विरुद्ध सशक्त प्रतिरोधात्मक कदम उठाने वालों का समर्थन किया। दुर्भाग्य से उस दौर में जब पूरे राष्ट्र को अपने सभी राष्ट्रवादियों के समन्वित प्रयासों की जरूरत थी, उसी वक्त ये दोनों पक्ष (उदारवादी व अतिवादी) ब्रिटिश नीति के शिकार हो गए एवं उसकी परिणिति सूरत विभाजन के रूप में सामने आई। कालान्तर में, अपना मन्तव्य पूरा करने के बाद, सरकार ने उदारवादियों की भी, घोर उपेक्षा की। अतः यह कहना उचित प्रतीत होता है कि, सूरत विभाजन अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार की रणनीति का प्रतिफल था।
उसी ऐतिहासिक शहर सूरत में, गांधी अपनी दांडी यात्रा के दौरान पहुंचते हैं और, वहां, मिल मालिकों के एक प्रतिनिधिमंडल से उनकी मुलाकात होती है। गांधी और उनके पहले, विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार आंदोलन ने घरेलू वस्त्र उद्योगों को लाभ पहुंचाया था। चरखे से आज़ादी नही मिलती है, अक्सर यह जुमला उछालने वाले लोग, यह भूल जाते हैं कि, चरखे और खादी आंदोलन, ब्रिटिश के लिये, भारत को, बाजार न बन जाने के खिलाफ, एक जनआंदोलन था। चरखा, स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता, जो स्वतंत्र चेतना के अनिवार्य तत्व होते हैं, का आधारभूत स्तम्भ था। गांधी ने जनता में, इन्ही मूल्यों को रोपा और उन्हें ब्रिटिश बाज़ारवादी शोषण के खिलाफ एकजुट किया। गांधी को एक सीमित और तयशुदा फ्रेम में रख कर नहीं देखा जा सकता है। सूरत शहर में तापी नदी के किनारे, नदी की रेत पर, एक 'विशाल सभा' को गांधी जी ने, संबोधित किया, जिसमें एक लाख से भी अधिक लोगों ने भाग लिया। उसी सभा मैं, 170 ग्राम प्रधानों ने, गांधी जी को अपने त्यागपत्र की प्रतियां भेंट कीं।
सूरत में गांधी जी ने कोई लम्बा भाषण नहीं दिया और न ही उन्होंने, उन बातों को दुहराया जो उन्होंने असलाली से लेकर बोरसाद तक की सभाओं में, अपनी सत्याग्रह यात्रा के दौरान, जनता से कहीं थी। 3 सितम्बर 1930 को, उनकी यात्रा सूरत से निकल कर, पहली बार, ब्रिटिश राज के इलाके को छोड़ कर, बड़ौदा रियासत के राज्य में प्रवेश करने के लिए आगे बढ़ रही थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने, देसी रियासतों को हड़पने की नीति, विशेषकर, लॉर्ड डलहौजी की डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स, के द्वारा, अनेक देसी रियासतों को, ब्रिटिश भारत का अंग बना लिया था। 7 फरवरी 1856 को, अवध, इस नीति की अंतिम शिकार बना था। फिर तो, 1857 में विप्लव ही हो गया और वाइसरॉय लार्ड कैनिंग ने 1 नवंबर, 1858 को इलाहाबाद मे एक दरबार आयोजित कर महारानी विक्टोरिया की घोषणा को सार्वजनिक किया और भारत, अब ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन से मुक्त होकर, ब्रिटिश क्राउन के अंतर्गत आ गया। उस समय तमाम रियासतों को कंपनी द्वारा हड़प लेने के बाद भी बहुत सी रियासतें बच गई थी, जिनमें से बड़ौदा की रियासत भी एक थी। रियासतों के बारे में, महारानी विक्टोरिया की घोषणा इस प्रकार थी,
"देशी नरेशो को यह विश्वास दिलाया गया कि, ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उनके जो समझौते या संधियाँ हुई हैं, उनका भविष्य मे विधिवत् तथा पूर्ण रूप से उसी प्रकार पालन किया जायेगा जिस प्रकार कम्पनी उनका पालन करती आ रही थी।"
इस प्रकार बड़ौदा का राज्य ब्रिटिश सरकार से अलग था। और दांडी, ब्रिटिश हुकूमत के अधीन। पर दांडी पहुंचने के लिये, बड़ौदा से ही रास्ता था। गांधी अब बड़ौदा रियासत के अंदर थे।
दांडी यात्रा की समीक्षा के रुप मे, 'सूरत के बाद के गांवों में होने वाली बैठकों में एक नई विशेषता', नाम की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसमें कहा गया कि, 'कई अच्छे मुसलमान... बैठक में रोजाना शामिल हों'। इस रिपोर्ट में मुसलमानों को, स्वाधीनता संग्राम के इस सत्याग्रह से जोड़ने के लिये एक अलग से आंदोलन शुरू किया गया था। धामन गाँव में, 'सभा को संबोधित करते हुए एक मौलवी ने, गांधीजी को यह आश्वासन दिया कि, मुसलमान स्वराज के लिए लड़ने में अपने हिंदू भाइयों से पीछे नहीं रहेंगे'। गांधी के नमक सत्याग्रह आंदोलन को लेकर मुस्लिम समाज का संशय, पहले भी था। गांधी के निकट मित्र, अली बंधु, इस बात से नाराज़ थे कि, गांधी ने अपनी, नमक सत्याग्रह योजना के बारे में उनसे कोई परामर्श नहीं किया। परामर्श तो, उन्होंने नमक सत्याग्रह के बारे में, कांग्रेस के बड़े नेताओं से भी नहीं किया था, बस लाहौर कांग्रेस 1930 के अधिवेशन से वापस लौटने के बाद, अपने इस अनोखे सत्याग्रह आंदोलन की सूचना, उन्होंने दी थी। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं, जो कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य थे, ने भी इसे कभी क्विक्जॉटिक कहा तो कभी इसकी सफलता पर संदेह व्यक्त किया। पर तत्कालीन कांग्रेस के अध्यक्ष, जवाहरलाल नेहरू ने, गांधी के इस आंदोलन के साथ अपनी पूरी सहमति जताई। पर अब, जब 12 मार्च 1930 को, अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से निकली दांडी यात्रियों की टोली, दांडी के सागर तट पर पहुंच रही है तो, इस आंदोलन पर संशय उठाने वाले लोगों, जिनमे सरोजनी नायडू भी थीं, के स्वर बदलने लगे। एक बेहद सामान्य से दिखने वाले कार्यक्रम को, अंतरराष्ट्रीय परिघटना में बदल देना, गांधी के ही बस का था । यह ज़र्रे को आफताब बना देने जैसा था।
मौलवी के इस आश्वासन पर कि, मुस्लिम भी, इस सत्याग्रह में भाग लेंगे, गांधी ने इसके उत्तर में, दक्षिण अफ्रीका में किये गए अपने सत्याग्रहों में वहां की मुस्लिम भागीदारी का उल्लेख किया। दक्षिण अफ्रीका में भी ब्रिटिश शासन ने हिन्दू मुस्लिम के बीच मतभेद पैदा करने की घृणित कोशिश की थी, पर गांधी ने उसे नाकाम कर दिया था। गांधी और उनके सहयात्री, दांडी के निकट एक गांव, नवसारी पहुंचे और उस रात वहीं रुके। नवसारी, सागर तट पर एक छोटा सा गांव था, जहां पारसी समुदाय की बहुतायत थी। समृद्ध पारसी समुदाय के अनेक लोग बम्बई में रहते थे पर, नवसारी के खूबसूरत मौसम और सागर के नज़दीक होने के कारण, अपने अपने मकान यहां बनवा रखे थे। यह एक प्रकार से हॉलिडे होम के रूप में धनाढ्य पारसी व्यापारियों द्वारा उयोगोग में लाया जाता था। खामोशी में सदा डूबा रहने वाला नवसारी गांव, अचानक चहल पहल से भर उठा और गांधी के प्रवेश करते ही, दुनियाभर में चर्चित हो गया। बॉम्बे क्रॉनिकल के रिपोर्टर जिसने, दांडी यात्रा की, विस्तार से कवरेज किया था, नवसारी के बारे में लिखता है, "पूरे नवसारी में, 'दूर-दराज के आये हुए स्वयंसेवकों की भीड़ थी। मिस्टर गांधी और उनकी पार्टी का, पूरे उत्साह से, आह्लादित कर देने वाली भावना के साथ, नवसारी के लोगों ने स्वागत किया। ऐसा लग रहा है जैसे, गकवार के क्षेत्र में इस छोटे से शहर ने, तीर्थयात्रियों के स्वागत कर के, ब्रिटिश साम्राज्य को मात देने की कसम खा ली है।"
इस प्रकार, पूरी यात्रा के दौरान, हर उस गाँव में, जहाँ यात्रा दल ने पड़ाव डाला, गांधी ने, उस गाँव के निवासियों से एक ही बात कही कि, 'एक बड़ी परीक्षा (हम सबके सामने) आने वाली है।' उन्होंने अपनी राजनीतिक अपील को ग्रामीण जीवन से जोड़ते हुए, खादी, गौ-रक्षा, स्वच्छता और अस्पृश्यता जैसे जनजीवन से जुड़े मुद्दे भी उठाए। उनकी अपील पैसे या चंदे के लिए नहीं, बल्कि दृष्टिकोण बदलने के लिए थी। उन्होंने गांवों के अधिकारियों से अपने पदों से इस्तीफा देने का आह्वान किया, जिससे शोषक शासन को बल मिलता था। यात्रा के दौरान, उन्होंने प्रेस साक्षात्कार देना और नवजीवन और यंग इंडिया में अपने नियमित लेख या टिप्पणियां लिखना, स्वराज का अपना संदेश फैलाना और आने वाले दिनों में अभियान के संचालन के लिए, ज़रूरी निर्देश देना भी जारी रखा। यात्रा के पच्चीस दिनों में, सत्याग्रहियों का यात्री दल, गांधी के तीन दिनों के मौन को छोड़कर, बाईस दिनों तक लगातार चलता रहा। अपने यात्रा मार्ग में, गांधी चालीस गांवों और कस्बों से गुजरे और हर जगह उन्होंने उपस्थित जनसमूह को संबोधित किया। बॉम्बे क्रॉनिकल के अनुसार, 'महात्मा के आह्वान पर पूरा देहात जाग उठा।' जगह जगह, कम से कम पचास हजार लोगों ने, राष्ट्र के लिए उनके प्रेरक संदेश को सुना। गांधी के भाषण, आम तौर पर भावुक और हमेशा, बिना लाग लपेट के दृढ़ता से भरे होते थे और उनका निश्छल स्वर, श्रोताओं के दिलों में घर कर जाता था। यात्रा की तमाम थकान और अन्य कठिनाइयों के बावजूद, उन्होंने कभी भी खुद को ऐसा आराम नहीं दिया, जो उनकी 'सेना' के आखिरी आदमी को भी, न मिला हो। गांधी ने खुद के लिये कोई भी विशेष सुविधा स्वीकार नहीं किया। बल्कि एक जगह, घुटनों में तकलीफ के बावजूद, उन्होने, टट्टू पर भी बैठने से इनकार कर दिया था।
दांडी यात्रा, का अब अंतिम दिन था। रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक, गांधी द ईयर्स, दैट चेंज्ड द वर्ल्ड में, एक प्रत्यक्षदर्शी का विशद विवरण, जो गांधी को पैदल चलते हुए, दांडी के पास से खड़ा देख रहा था, बॉम्बे क्रॉनिकल के संदर्भ से, उध्दृत किया है। यह रोचक विवरण पढ़े,
" जब मैंने 4 अप्रैल की सुबह उन्हे देखा तो, वह (गांधी जी) विजलपुर (नवसारी के आगे का एक छोटा सा गांव) की ओर से सीधी सड़क पर तेजी से आ रहे थे। पीछे, रेलवे स्टेशन की छत पर लाल सूरज उग आया था, और उनका (गांधी जी का) खुला चेहरा और शरीर, प्रातःकाल के उजाले में, सुनहरी रंगत में, बदला हुआ दिख रहा था। उनके पीछे एक बड़ी भीड़ उनका अनुसरण करते चली आ रही थी, जिसमें, उनके अस्सी सहयात्री और अन्य स्वयंसेवक (भीड़ में) खो गए थे। गांधी जी की गति, दौड़ने और चलने के बीच की थी। मुझे नहीं लगता था कि, वह अपने साथियों का किसी निजी उद्देश्य के लिए उपयोग कर रहे हैं। वह (गांधी जी) मजबूत लग रहे थे। मजबूत पर दुबले और दृढ़ कदमों से तेजी से आगे बढ़ते आ रहे थे। नगर पालिका ने बहुत ही कुशलता से, आने वाली सड़क पर पानी का छिड़काव किया था। ग्रामीण और धूल भरी सड़क, शांत और स्पष्ट और सुंदर दिख रही थी। लोग अलग अलग तरह से चल रहे थे। किसी किसी की चाल हंसी ला रही थी। मान लीजिए, उन्होंने (गांधी जी) किसी जिप्सी पेडलर की तरह, धीमी चाल से इस जुलूस का नेतृत्व किया होता तो, यह कितना अजीब लगता। मुझे एहसास हुआ कि, यह बूढ़ा आदमी कितना घाघ, कलाकार और यथार्थवादी होगा, जिसने अपनी चाल की गति से भी संदेश दे दिया। तेज और बिना रुके चलते जाने से भी वे (गांधी जी) अपना संदेश और संकल्प जनता में गंभीरता से संप्रेषित कर रहे थे। उन्होंने अपने भक्तों (गांधी के दर्शन के लिए खड़ी भीड़) से जो सड़क के किनारे खड़े थे, से सम्मान लेने के लिए भी कोई अवसर नहीं छोड़ा। भीड़ से निकल कर, जब एक महिला ने उनके माथे पर कुमकुम का टीका लगाया और एक आदमी ने गुलाब जल की बौछार की, तो, वे इसे स्वीकार कर के तेजी से आगे बढ़ गए।"
(के.सी.बी. द ग्रेट ट्रैक, पर्सनल इंप्रेशंस, बॉम्बे क्रॉनिकल, 20 अप्रैल 1930)
5 अप्रैल 1930 को, दांडी पहुंच जाने के बाद, गांधी जी ने एसोसिएटेड प्रेस को, अपना बयान जारी किया। उन्होंने सबसे पहले, पूरी यात्रा के दौरान, सरकार द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न करने की नीति के लिए, सरकार की सराहना की। उन्होंने कहा कि, वह 6 अप्रैल को सुबह साढ़े छः बजे, नमक बनाकर, सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत करेंगे। 6 अप्रैल 1930 के दिन का ही चयन, गांधी जी ने नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए क्यों चुना, इस को स्पष्ट करते हुए, उन्होंने 6 अप्रैल की तिथि के महत्व को सबके सामने रखा। उन्होंने तिथि के महत्व पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, "6 अप्रैल हमारे लिए महत्वपूर्ण रहा है और यह एक पवित्र तिथि है। दमनकारी रॉलेट एक्ट के खिलाफ, पहली देशव्यापी हड़ताल, 6 अप्रैल 1919 को ही हुई थी।" उल्लेखनीय है कि, इसी रॉलेट एक्ट के खिलाफ हो रही, अमृतसर के जलियांवाला बाग की जनसभा में भीषण और जघन्य नरसंहार हुआ था, जिसने देश के स्वाधीनता आन्दोलन की दशा और दिशा दोनों को ही बदल दिया था। 6 अप्रैल 1919 को आयोजित हड़ताल, रॉलेट एक्ट के खिलाफ, हुई पहली ऐसी हड़ताल थी, जिसका देशव्यापी प्रभाव पड़ा था। बारह साल बाद, फिर एक ऐसी घटना घटने जा रही थी, जो स्वाधीनता संग्राम के, एक बदलाव विंदु के रूप में इतिहास में दर्ज होने वाली थी।
मार्च, 1930 की, 5 तारीख को, गांधी उस गांव में पहुंचे, जहां उन्होंने नमक कानून तोड़ने की योजना बनाई थी। रामचंद्र गुहा की किताब, गांधी, द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड, पृष्ठ 344 पर अंकित, यात्री दल के साथ चल रहे, , 'बॉम्बे क्रॉनिकल' के एक संवाददाता की रिपोर्ट का यह अंश पढ़े,
"दांडी का सादा और छोटा गांव अब एक शहर जैसा दिख रहा है। नवसारी और इस गांव के बीच का रास्ता आने जाने वाले लोगों से भरा हुआ है, जिनमें से कई तो, लंबी दूरी तय कर के दूर दूर से आए हुए हैं। आस-पास के गांवों से, बैलगाड़ियों से पीने का पानी दांडी लाया जा रहा है, क्योंकि दांडी में पानी के केवल दो ही कुएं हैं, जो वहां की भीड़ को देखते हुए, अपर्याप्त हैं। खाने-पीने की कई दुकानें खोल दी गई हैं। दांडी ग्राम, गांधी के प्रारंभिक गुरु और ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के प्रथम भारतीय सदस्य, दादाभाई नौरोजी के जन्मस्थान नवसारी से, ग्यारह मील की दूरी पर स्थित है। सामान्य रूप में, गाँव की आबादी, लगभग दो सौ लोगों की है, जिनमें ज्यादातर मछुआरे है। इस जगह की अच्छी जलवायु और समुद्री हवा ने, कुछ अमीर लोगों को आकर्षित किया और उन्होंने, यहां अपनी छुट्टियां बिताने के लिए, अपने बंगले बनावाए हैं। इन्हीं में से गांधी जी के मेजबान, निजामुद्दीन वासी, बंबई के एक समृद्ध कटलरी व्यापारी शामिल हैं। यह छोटा सा गांव दांडी, अब एक तीर्थस्थल बन गया था, जिसमें 'आगंतुकों का एक अंतहीन सिलसिला जारी है। लोगों की उत्कंठा इसलिए भी है कि, इसी गांव के पास गांधी नमक बनाकर, ब्रिटिश कानून तोड़ने वाले है। यह एक प्रकार का युद्धक्षेत्र बन गया है। दांडी में ही, आबकारी निरीक्षकों और पुलिसकर्मियों सहित सौ सरकारी अधिकारी भी, गांधी की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए दांडी पहुंच गए हैं। दांडी निवासी ग्रामीणों ने, उन्हें ( सरकारी अधिकारियों और पुलिस को) ठहरने की जगह देने से मना कर दिया है, इसलिए उन्होंने बाहर टेंट में अपना डेरा डाल दिया है।" एक रिपोर्टर ने पुलिसकर्मियों से बात की, और बातचीत के बाद उसने लिखा, "और हैरानी की बात यह है कि, सरकार के इन एजेंटों को अभी तक अपने काम के बारे में, कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। वे अपने मुख्यालय से लगातार संपर्क में हैं और ऐन वक्त पर किसी निर्देश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
....क्रमशः
(विजय शंकर सिंह)
गांधी की दांडी यात्रा (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/10.html
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