गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसने बिलकिस बानो मामले में 11 दोषियों को उनकी 14 साल की सजा पूरी होने पर रिहा करने का फैसला किया क्योंकि उनका "व्यवहार अच्छा पाया गया" और यह रिहाई भी केंद्र सरकार की मंजूरी के बाद। निश्चित ही यह मंजूरी, केंद्र सरकार के गृह विभाग की मंजूरी के बाद ही की गई होगी।
गुजरात सरकार ने, अदालत में, यह भी कहा है कि
"निर्णय दिनांक 09/07/1992 की नीति के अनुसार "शीर्ष अदालत द्वारा निर्देशित" नियमों के अनुसार लिया गया था, न कि 'आज़ादी का अमृत महोत्सव' के उत्सव के हिस्से के रूप में, कैदियों को छूट का लाभ देने वाले सरकारी परिपत्र के अंतर्गत। सरकार ने छूट देने के लिए सात अधिकारियों द्वारा नियुक्त पैनल की राय पर विचार किया, और तब उनको रिहा करने का निर्णय लिया गया।"
शीर्ष अदालत में गुजरात सरकार ने जो जवाब दाखिल किया है, उससे पता चलता है कि,
"दोषियों की समय से पहले रिहाई के प्रस्ताव का एसपी, केंद्रीय जांच ब्यूरो, एससीबी, मुंबई और विशेष न्यायाधीश (सीबीआई), सिटी सिविल एंड सेशंस कोर्ट, ग्रेटर बॉम्बे द्वारा विरोध किया गया था. गुजरात के सभी अधिकारियों ने, रिहाई का विरोध किया था। 10 दोषियों की रिहाई के लिए उनकी अनापत्ति नही मिली थी। हालांकि, उनमें से एक कैदी, राधेश्याम भगवानदास शाह उर्फ लाला वकील की समय से पहले रिहाई पर एसपी दाहोद और डीएम, दाहोद ने भी आपत्ति जताई थी - यहां तक कि अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, जेल और सुधार प्रशासन, अहमदाबाद ने भी उनकी रिहाई की सिफारिश नहीं की थी।"
लाइव लॉ की खबर के अनुसार, रिपोर्ट में आगे है,
"सभी दोषी कैदियों ने आजीवन कारावास के तहत जेल में 14 साल से अधिक समय पूरे कर लिए हैं तथा बाद में गठित वरिष्ठ और संबंधित अधिकारियों के पैनल की राय, 09/07/1992 की नीति के अनुसार प्राप्त की गई है और गृह मंत्रालय, भारत सरकार को, उक्त पैनल की राय, एक पत्र के रूप में, दिनांक 28/ 06/2022 को, भारत सरकार के अनुमोदन/उपयुक्त आदेश हेतु, भेजी गई। भारत सरकार ने 11/07/2022 के पत्र के माध्यम से 11 कैदियों की समयपूर्व रिहाई के लिए सीआरपीसी की धारा 435 के तहत केंद्र सरकार की सहमति/अनुमोदन से अवगत कराया।"
यह मामला, बिलकिस बानो मामले के सजायाफ्ता दोषियों की समयपूर्व रिहाई के खिलाफ, पत्रकार रेवती लौल प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा और सुभाषिनी अली द्वारा दायर याचिका के संदर्भ में है। गुजरात सरकार द्वारा दाखिल जवाब में आगे कहा गया है,
"राज्य सरकार ने सभी रायों पर विचार किया और 11 कैदियों को रिहा करने का फैसला किया क्योंकि उन्होंने जेल में 14 साल और उससे अधिक की उम्र पूरी कर ली थी और उनका व्यवहार अच्छा पाया गया था। राज्य सरकार की मंजूरी के बाद, 10/08/2022 को रिहा करने के आदेश जारी किए गए हैं। इसलिए, उदाहरण के मामले में राज्य ने 1992 की नीति के तहत प्रस्तावों पर विचार किया है जैसा कि इस माननीय न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया है और 'आजादी का अमृत महोत्सव' के उत्सव के हिस्से के रूप में कैदियों को छूट के अनुदान के परिपत्र के तहत प्रदान नहीं किया गया है।"
यह जवाब, राज्य के गृह विभाग ने अदालत में दाखिल किया है।
याचिका का विरोध करते हुए गुजरात सरकार ने अदालत में कहा है कि,
"याचिका न तो कानून के अनुसार, सुने जाने योग्य है और न ही तथ्यों पर मान्य है, और तर्क दिया कि याचिकाकर्ताओं को, इस छूट के आदेशों को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है।"
आगे कहा गया है कि,
"यह अच्छी तरह से स्थापित है कि, यह जनहित याचिका एक आपराधिक मामले में चलने योग्य नहीं है। याचिकाकर्ता किसी भी तरह से, (इस छूट की) कार्यवाही से जुड़ा नहीं है। जिसने न तो आरोपी को दोषी ठहराया है, और न ही कार्यवाही के साथ रहा है, जो दोषियों को छूट प्रदान करने में संपन्न हुई,"
गुजरात सरकार ने, यह आरोप लगाते हुए शीर्ष अदालत में कहा है कि,
"याचिका में राजनीतिक साजिश है, अतः यह याचिका खारिज किए जाने योग्य है। जिस प्रकार से, मुकदमे की सुनवाई/ट्रायल के दौरान किसी तीसरे अजनबी पक्ष को, कानून के अनुसार, न तो अभियोजन और न ही अभियोजन की स्वीकृति के संबंध में दखल देने पर रोक है, इसी तरह, उसे इस प्राविधान के अनुसार, सरकार के निर्णय में भी दखल देने की अनुमति नहीं है। यह निर्णय सरकार ने नियमों और प्राविधानो के अनुसार लिया है।"
सुभाषिनी अली और अन्य की ओर से दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 25 अगस्त को सरकार को नोटिस जारी किया था। शीर्ष अदालत ने 9 सितंबर को टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा और अन्य द्वारा 11 दोषियों की समय से पहले रिहाई के खिलाफ दायर इसी तरह की याचिकाओं पर भी नोटिस जारी किया था। 15 अगस्त, 2022 को, गुजरात सरकार द्वारा छूट दिए जाने के बाद, सभी दोषियों को गोधरा की एक जेल से रिहा कर दिया गया था। मई 2022 में, सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि गुजरात सरकार मामले में छूट पर विचार करने के लिए उपयुक्त सरकार थी और निर्देश दिया कि दो महीने के भीतर छूट के आवेदनों पर फैसला किया जाए।
यह अपराध, जो 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुआ था, बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और एक सांप्रदायिक हमले में उसकी तीन साल की बेटी सहित उसके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या से संबंधित है। बिलकिस बानो, अपराध का एकमात्र जीवित गवाह हैं। इस मुकदमे की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी और सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे को, गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया था। 2008 में, मुंबई की एक सत्र अदालत ने सामूहिक बलात्कार और हत्या के लिए 11 लोगों को दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बॉम्बे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने सजा को बरकरार रखा था।
कभी कभी नियमों के अनुसार निर्णय सही दिखते हैं पर उनमें उन्ही नियमों की आड़ में ही कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जिनका राजनीतिक निहितार्थ साफ और स्पष्ट रूप से दिखता है। यदि अनुकंपा और बेहतर चाल चलन पर कैदियों को रिहा करने की नियमावली देखें तो, गुजरात सरकार एक विधिपालक सरकार की तरह नजर आ रही है और उसने अच्छे चाल चलन के आधार पर 11 कैदियों को, पहले उनके छोड़े जाने के बारे में अधिकारियों की राय मांगी, फिर अपनी राय से केंद्र सरकार को अवगत कराते हुए, उनसे निर्देश मांगे और फिर एक कानून का पालन करते हुए उन सजायाफ्ता कैदियों को रिहा कर दिया। अब यह पता नहीं है कि, कैदियों को छोड़ने की कार्यवाही, शुरू ही नीचे से हुई और फिर नियमानुसार सीढ़ी दर सीडी चढ़ते हुए नॉर्थ ब्लॉक में गई या नॉर्थ ब्लॉक से ही ऐसा करने का कोई निर्देश मिला, जिसका एक यांत्रिक अनुपालन किया गया और सरकार ने विचारोपरांत, जनहित में उन्हे रिहा करने का निर्णय ले लिया।
मैं अपने प्रोफेशनल अनुभव से बता सकता हूं कि ऐसे कैदियों को छोड़े जाने या मुकदमा वापस लिए जाने का निर्णय सरकार के स्तर से होता है और यह निर्णय, राजनीतिक रूप से लिया जाता है। नीचे से जो रिपोर्ट जाती है उसमे अक्सर, रिहा न करने या मुकदमा वापस न लेने की ही बात लिखी जाती है, पर सरकार को ऐसी किसी भी संस्तुति या परामर्श को, रद्द कर अपने निर्णय लेने का विशेषाधिकार होता है और वह ऐसा करती भी है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ होगा। यह अलग बात है कि अब जब मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया है तो नियम कानूनों की आड़ ली जा रही है।
सुप्रीम कोर्ट और याचिकाकर्ता के वकील, गुजरात सरकार द्वारा दाखिल इस जवाब पर क्या तर्क देते है, यह तो अभी पता नहीं है, पर जिन अपराधो में वे 11 अपराधी सजायाफ्ता है और जिस तरह से उनके छूटने पर सत्तारूढ़ दल से जुड़े कुछ संगठनों ने जश्न मनाया और उनका स्वागत किया उससे यह संदेह स्वाभाविक रूप से उपजता है कि, चेहरे को देख कर कानून की व्याख्या की गई है और इन्हें रिहा करने का निर्णय एक राजनीतिक निर्णय है, भले ही उसे नियम कायदों की चाशनी में लपेट कर प्रस्तुत किया गया हो।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
अच्छा विश्लेषण,
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