“पूरब से ईसाईयत को उखाड़ फेंकने के लिए पूरे हिंदू भारत की नज़र खालसा सेना पर थी”
All Hindoo India looked to the Sikh Army for the expulsion of Christianity from the East
- हर्बर्ट एडवर्ड्स, ब्रिटिश जनरल गॉग के सहायक (Aide-de-Camp)
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद शाहखाने के प्रभारी मिश्र बेली राम ने यही उचित समझा कि कोहिनूर जगन्नाथपुरी न भेजी जाए, बल्कि इसे पंजाब के राजा के बाजूबंद में ही बाँधी जाए। वह उस वफ़ादार परंपरा के थे, जो उनके बेटों से भी तब तक हीरा छुपाते रहे, जब तक उनमें से एक गद्दी पर न बैठ गया। बहरहाल, महाराज के मरते ही इतने षडयंत्र शुरू हुए कि चार साल के अंदर तीन राजा मारे गए।
अब बचे थे एक आख़िरी राजकुमार दलीप सिंह, जिनकी उम्र थी मात्र पाँच वर्ष। शंका तो यह भी थी कि पक्षाघात के बावजूद बूढ़े महाराज ने उनको जन्म कैसे दिया होगा। लेकिन, महाराज ने ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी चुना था, इसलिए ऐसी शंका का मूल्य नहीं। 1843 में जब एक अनपढ़ माँ रानी जिंदन ने गोद में बिठा कर उस बालक के बाजू में कोहिनूर बाँधा तो अंग्रेजों को अपना लक्ष्य बच्चों का खेल लगने लगा।
लेकिन, महाराज के कुत्तों के प्रभारी के बेटी महारानी जिंदन ने उनकी आशाओं के विपरीत पूरे कौशल से कमान संभाली। 1845 की दिसंबर तक अंग्रेजों ने बंगाल से अपनी सेना बुला कर सतलज किनारे क़िलाबंदी शुरू कर दी थी। रानी ने अपनी खालसा सेना को आक्रमण का निर्देश दे दिया।
मगर अंग्रेजों के युद्ध लड़ने का तरीका सदा से गुप्तचरी और अधिक उपमा दें तो ‘मीर जाफ़री’ पर आधारित था। महारानी के दोनों ओपनिंग बैट्समैन लाल सिंह और तेज सिंह पहले ही फिक्स कर लिए गए थे। ब्राह्मण परिवार के लाल सिंह वज़ीर थे, और सिख तेज सिंह सिपहसलार। इसके कई प्रामाणिक उल्लेख हैं कि दोनों अंग्रेज़ों से मिले हुए थे। जम्मू के राजा गुलाब सिंह भी उनसे मिले हुए थे, जिन्हें बाद में अंग्रेजों ने कश्मीर दिलाया और डोगरा वंश की स्थापना हुई।
खैर, इन षडयंत्रों से बेखबर सिख सेना पूरे जोश से लड़ी। फ़िरोजशाह के युद्ध में स्थिति यह हो गयी कि जनरल हार्डिंग स्वयं पकड़े जाने की स्थिति में आ गए। उन्होंने अपनी हार देखते हुए सभी दस्तावेज जलाने के आदेश दे दिए, और नेपोलियन बोनापार्ट की वह बेशक़ीमती तलवार अपने सहयोगी को दे दिया, जिसे उन्होंने बड़े जतन से पाया था। हार्डिंग ने उस रात को ‘दहशत की रात’ संबोधित किया है, जब पंजाबी सेना उन पर टूट पड़ी थी।
लेकिन, तभी तेज सिंह ने सेना को वापस लौटने का आदेश दे दिया, और बाज़ी पलट गयी। अंग्रेज़ों ने अगले दिन बैक-अप बढ़ा कर सिखों का कत्ल-ए-आम कर दिया।
सोबरन के युद्ध में तो तेज सिंह ने हद ही कर दी। जब सेना अंग्रेजों से लड़ रही थी। वह स्वयं पुल पार कर वापस अपनी सीमा में आ गए, और सभी पुल उड़वा दिए। अब उनकी सेना सतलज के पार मर रही थी, और वह दूसरी तरफ़ से खड़े-खड़े देख रहे थे। मैंने पहले ‘दास्तान-ए-पाकिस्तान’ में पाकिस्तान के मेजर भट्टी का ज़िक्र किया है, जिन्होंने बरकी में इसी तरह पुल उड़ा कर भारतीय सेना को रोका था। लेकिन, उस केस में वह स्वयं अपनी सेना को सुरक्षित कर पुल उड़ाते हुए शहीद हुए थे। यहाँ तो नौ हज़ार सिखों को मरता हुआ छोड़ कर सेनापति ही अपनी जान बचा रहे थे।
यहाँ एक महत्वपूर्ण जिक्र यह ज़रूरी है कि सिखों के सामने गोरे अंग्रेज़ नहीं थे, बल्कि उन्हें मारने वाले बंगाल रेजिमेंट के वे सैनिक थे जो ‘पुरबिया’ कहलाते। यह मुख्यत: आज के बिहार-यूपी के सैनिक थे। यह पुरबियों से ऐसी नफ़रत बो गया, जिसकी छाप 1857 में दिखाई देनी वाली थी। कुछ ऐसे ही मराठों से युद्ध में मद्रास रेजिमेंट मद्रासियों से नफ़रत बो गयी थी।
बहरहाल इन नफ़रतों से भला अंग्रेजों का ही हुआ। 1847 की भैरावल संधि के अनुसार अब उनका एक रीजेंट बालक राजा के वयस्क होने तक दरबार में मौजूद रहने वाला था, और उनकी सेना पंजाब की सुरक्षा करने वाली थी। संधि में यह कहा गया था कि राजा के वयस्क होते ही अंग्रेज़ पंजाब छोड़ कर खुशी-खुशी लौट जाएँगे।
अंग्रेज़ भला कहाँ लौटने वाले! अगले ही साल एक ऐसा व्यक्ति गवर्नर जनरल बन कर आ रहा था, जो ऐसी ही ऊट-पटांग पॉलिसी से कई रियासत हथियाने वाला था।
मूल नाम था जेम्स ब्राउन-रैम्से, भारत में कहलाए लॉर्ड डलहौजी।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
Praveen Jha
1857 की कहानी - एक (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-5.html
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