Monday, 17 October 2022

प्रवीण कुमार झा / 1857 की कहानी - एक (5)


(चित्र: महारानी विक्टोरिया के गले में कोहिनूर) 

“हर दिन कोई सरकारी अफ़सर ब्रिटिश साम्राज्य में चालीस लाख़ की प्रजा लाकर नहीं देता। हर दिन कोई मुगलों के बेशक़ीमती रत्नों और ऐतिहासिक किलों को सरकार की संपत्ति नहीं बनाता। हर दिन कोई कोहिनूर हीरे को अपनी साम्राज्ञी के ताज़ में नहीं सजाता। यह सब मैंने किया है। मैं बेवजह नहीं इतरा रहा।”

- लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब विजय के बाद अपने मित्र को लिखी चिट्ठी 

कोह-ई-नूर (रोशनी का पर्वत) हीरे की यात्रा सुना कर मैं 1857 के मूल कथा से नहीं भटकना चाहता। लेकिन, वहाँ तक पहुँचने के लिए ऐसी कथाओं को छूकर गुजरना ही होगा। यह ऐसी कड़ी है, जिसके बिना सभी तार नहीं जुड़ पाएँगे। 

रूस के इतिहास में मैंने ‘ग्रेट गेम’ की चर्चा की थी। ऐसा खेल जो दो बड़ी शक्तियों रूस और इंग्लैंड के मध्य खेला जा रहा था, और ईनाम था- ‘भारत’। यह वही समय था जब ब्रिटेन स्वयं ईस्ट इंडिया कंपनी से कमान अपने हाथ में ले रहा था। उसे डर था कि ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में पैठ बना रहा रूस, तो भारत पर कभी भी दस्तक दे सकता है। कंपनी के चंद रंगरूट भला रूस का क्या मुकाबला करेंगे? यह तो महाशक्तियों की लड़ाई है, जो शासकों के बीच ही लड़ी जा सकती है।

विलियम बैंटिक के आते ही 1830 की जनवरी से ‘ग्रेट गेम’ शुरू हो गया। पहले यह अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते रूस की जासूसी तक सीमित था, लेकिन ध्येय था कि काबुल जीत कर रूस को ब्लॉक कर दिया जाए। समस्या यह थी कि ब्रिटिश भारत और काबुल के बीच महाराजा रणजीत सिंह ने नाकाबंदी कर रखी थी।

बूढ़े और लकवाग्रस्त हो चुके ठिगने कद के रणजीत सिंह में अब भी जान बाकी थी। इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने उस समय अपनी आधी पलटन सतलज किनारे ही लगा रखी थी। फिर भी सतलज पार नहीं कर रहे थे। ऐसा नहीं कि ब्रिटिश तोपों में दम नहीं था, मगर वह उन पर कूटनीति से विजय चाहते थे। ‘कम हानि, अधिक लाभ’ वाली नीति अंग्रेजों की हमेशा से रही।

पहले कैप्टन ऑसबोर्न उनके पास पहुँचे, जब सोने के तख़्त पर बैठे और बाजूबंद में कोहिनूर हीरा लगाए रणजीत सिंह उनसे मिले। इस हीरे की यात्रा पर पुस्तक में विलियम डैलरिम्पल लिखते हैं कि रणजीत सिंह जल्दी-जल्दी इतने सवाल पूछते थे, जैसे वहाँ भी ‘रैपिड फायर राउंड’ हो रहा है। ‘कौन सी शराब पी?’, ‘कितने कप पी?’, ‘बोतल में कितनी बची?’, ‘वह कब पीयोगे?’ ऐसे ही बेतुके प्रश्नों के मध्य वह काम की बात निकलवा भी लेते। 

आखिर 1838 में स्वयं गवर्नर जनरल ‘अर्ल ऑफ ऑकलैंड’ अपनी खूबसूरत बहन के साथ आए, और अंग्रेज़ों और खालसा सेना की संयुक्त ड्रिल शुरू हो गयी। यह एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध की पूर्वपीठिका थी।

मगर रणजीत सिंह स्वयं अब बिस्तर से उठ नहीं पाते थे। अंग्रेज़ उनके मरने का ही इंतज़ार कर रहे थे। हालात यह थे कि जब 1839 में वह आखिरी साँसें ले रहे थे, तो अंग्रेजों के जासूस यह रपट बना रहे थे कि कोहिनूर का क्या होगा? कलकत्ता से लंदन कोहिनूर का स्टेटस अपडेट भेजा जा रहा था, वह भी उस जमाने में!

अब यहाँ पुन: धर्म की बात लाता हूँ, क्योंकि यह सभी तर्क 1857 तक पहुँचने में मदद करेंगे। रणजीत सिंह को दरबारी ब्राह्मणों ने इस वसीयतनामे के लिए तैयार कर लिया कि ब्रह्माण्ड के संतुलन के लिए इस ‘श्यामांतक मणि’ को जगन्नाथ जी के चरणों में लौटाना आवश्यक है। उन्होंने विष्णु पुराण और भागवत पुराण के हवाले यह स्थापित किया कि दरअसल यह हीरा पौराणिक है, भगवान कृष्ण से जुड़ा है, जिसे नादिरशाह ने कूह-ई-नूर बना दिया। आखिरी वक्त में ईश्वर को स्मरण करते रणजीत सिंह भी ‘रैपिड फायर’ सवाल-जवाब की हालत में नहीं थे। उन्होंने सर हिला कर सहमति दे दी। 

जब अंग्रेजों को यह खबर मिली तो लंदन में हड़कंप मच गया। उन्हें डर था कि हीरा एक बार जगन्नाथपुरी चला गया, तो उसे निकालना बड़ा कठिन होगा (हालाँकि त्र्यंबकेश्वर से तो पहले एक उड़ा चुके थे)।

20 अक्तूबर 1839 को इंग्लैंड के ‘The Era’ अखबार में एक बौखलायी हुई खबर छपी,

“शेर-ए-पंजाब की मृत्यु हो चुकी है। उन्होंने अपने वसीयत में कोहिनूर हीरे को जगन्नाथ मंदिर को दान कर दिया है। अब पुरोहित इसे निर्जीव मूर्ति में लगाएँगे। इस तानाशाह ने दुनिया के सबसे महंगे रत्न को फालतू, मूर्तिपूजक पुरोहित को दे दिया!”

ब्रह्माण्ड का संतुलन का तो पता नहीं, मगर इस हीरे के फेर में भारत का संतुलन बिगड़ने वाला था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (4) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-4.html




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