अंग्रेज़ अगर सिख महाराज दलीप सिंह और मराठा राजा शाहजी (अप्पा जी) को सम्मान दे रहे थे, इसकी स्पष्ट वजह थी कि ये दोनों ही योद्धा वर्ग थे। ब्रिटिश सेना को इनकी ज़रूरत थी। बंगाल रेजिमेंट और मद्रास रेजिमेंट के बाद भारी संख्या में सिखों और मराठाओं को भर्ती कर उनकी सेना शक्तिशाली हो रही थी।
1848 में सतारा के छत्रपति शाहजी की मृत्यु हो गयी। लॉर्ड डलहौज़ी चार महीने पूर्व ही कुर्सी पर बैठे थे, और यह प्रश्न उठा कि नि:संतान शाहजी के राज्य का क्या किया जाए?
ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम और ब्रिटिश इतिहासकार जॉन केये लिखते हैं,
“हिंदुओं में मान्यता है कि पुत्र ही पितर को मुखाग्नि देता है और मुक्ति में सहयोग देता है। पुत्र जन्म से भी हो सकता है, दत्तक भी, और कुछ अन्य रूप भी हैं। हिंदू धर्म में दत्तक पुत्रों का ऐतिहासिक महत्व रहा है। लेकिन, जहाँ तक राजाओं की बात है, उनकी कई रानियाँ होती हैं; इसलिए किसी और के पुत्र को दत्तक बनाने की अमूमन ज़रूरत नहीं होती।
ब्रिटिश साम्राज्य के नियमों के मुताबिक़ भी दत्तक पुत्र को पिता की संपत्ति का अधिकार है। लेकिन, जहाँ तक राज्य की गद्दी का प्रश्न है, उस पर यूँ ही अधिकार नहीं बन जाता। कुछ दुर्लभ अपवादों में ही ऐसा संभव है।”
शाहजी ने अपनी मृत्यु के दो घंटे पूर्व ही एक दत्तक-पुत्र अपनाया था, इसलिए मामला पेचीदा हो गया था। बंबई के गवर्नर जॉन क्लर्क ने सुझाया कि मराठों को नाराज़ करना अच्छा न होगा। राजा ने जो भी उत्तराधिकारी चुना है, उन्हें ही राजा बनाया जाए। मगर उनका कार्यकाल खत्म हो रहा था, और नए गवर्नर फॉकलैंड का मानना था कि राज्य की ज़िम्मेदारी इस तरह तय नहीं हो सकती। निजी संपत्ति पर अवश्य अधिकार स्वीकार्य है। मराठा राजपरिवार अपने पक्ष में तर्क रख रहे थे कि हिंदू धर्म में दत्तक परंपरा से राजा बनाए जाने के अनेकों उदाहरण हैं।
लॉर्ड डलहौज़ी ने आखिर सभी दलीलें सुन कर अंतिम निर्णय दिया,
“अगर यह पुत्र अयोग्य भी होता, किंतु राजा का रक्त होता, तो मुझे राज्य सौंपना ही होता। चूँकि ऐसा नहीं है तो निर्णय हमारे हाथों में है। सतारा राज्य एक समृद्ध राज्य है, जहाँ एक कुशल प्रशासन की आवश्यकता है। यह जो भी दत्तक-पुत्र हैं, इनके विषय में स्वयं राजा भी मृत्यु-शय्या पर ही जान पाए। हम यह भला किस आधार पर मान लें कि वह योग्य हैं? इसलिए, सतारा प्रशासन अब ब्रिटिश राज के अंतर्गत कंपनी के ज़िम्मेदारी में ली जाती है।”
यह नीति पहले भी कुछ राज्यों में अपनायी गयी थी, मगर सतारा मराठों का एक प्रतीकात्मक गढ़ था, शिवाजी की गद्दी थी, इसलिए इसका महत्व भिन्न था। इस राज्य की सालाना आय ही पंद्रह लाख रुपए थी, जो उस काल-खंड में अच्छी-खासी कही जाएगी।
दूसरी बात यह थी कि मराठों के मुख्य पेशवा बाजीराव द्वितीय पिछले पच्चीस वर्षों से बिठूर (अब उत्तर प्रदेश) में अपने पंद्रह हज़ार मराठी परिजनों आदि के साथ थे। उनकी सालाना पेंशन आठ लाख रुपए थी, जो किसी भी पेंशन से अधिक थी। वह ब्रिटिश सरकार से लगभग ढाई करोड़ रूपए पा चुके थे, और वहाँ मंदिर आदि निर्माण कर स्थापित थे।
समस्या तब आयी जब उन्होंने ढोंढू पंत यानी नाना साहेब को दत्तक-पुत्र बनाया और मर गए। ब्रिटिश राज ने पेंशन बंद कर दी तो नाना साहेब ने अपने दीवान अज़ीमुल्ला ख़ान को लंदन भेजा कि पेंशन जारी रखी जाए। उनका तर्क था कि उनके पिता ने आखिर पुणे की गद्दी सौंपी थी, जिससे चार लाख सालाना ब्रिटिश सरकार कमा रही है। कुछ तो उन्हें मिले ही।
ब्रिटिश सरकार ने यही निर्णय दिया कि बाजीराव द्वितीय की संपत्ति और बिठूर पर तो उनका अधिकार होगा, लेकिन पेंशन नहीं मिलेगी। बाजीराव द्वितीय ने लगभग 28 लाख रूपए की रकम छोड़ी थी, और बिठूर की जायदाद मिल रही थी। आगरा के लेफ़्टिनेंट जनरल ने उन्हें सुझाया कि वह सपरिवार वापस दक्कन लौट जाएँ, और बिठूर से धन अर्जित करते रहें।
तभी, उनकी बचपन की दोस्त मणिकर्णिका ताम्बे की एक आवाज़ उन तक पहुँची। वह अब बिठूर से कुछ ही दूर एक प्रांत की महारानी थी, जो कह रही थी,
“मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - एक (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-8.html
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