यह एक नया ट्रेंड चला है। प्राचीन तीर्थों के मंदिरों को, आधुनिक रूप से भव्य बनाकर, उनका लोकार्पण कर के, उन्हे किसी निजी एजेंसी को, उनकी व्यवस्था करने के लिए सौंप दिया जाय। क्या उन मंदिरों के ट्रस्ट इतने अक्षम प्रबंधक हैं कि, वे उन मंदिरों का रख रखाव भी ढंग से नहीं कर सकते। सनातन तीर्थों के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के तीर्थों की व्यवस्था, उस धर्म से जुड़े ट्रस्ट या कोई प्रबंधन कमेटी करती है, न कि टेंडर भर कर, किसी व्यावसायिक कम्पनी की तरह ठेका लेने वाली कोई सेवा प्रदाता कॉर्पोरेट कंपनी। क्या सनातन तीर्थों की व्यवस्था, सदियों से उनका प्रबंधन करते आ रहे, धर्म से जुड़े ट्रस्ट, अब उन्ही मंदिरों का प्रबंधन करने में अक्षम हो गए हैं या वे तीर्थ प्रबंधन करना चाहते ही नहीं कि, सरकार को, अब दखल देना पड़ रहा है?
आखिर सदियों से इन मंदिरों का रखरखाव तो धर्म से जुड़े, ट्रस्ट ही करते आए हैं। दक्षिण के तीर्थ और मंदिरों का प्रबंधन आज भी ट्रस्ट कर रहे हैं। मथुरा वृंदावन के मंदिरों का प्रबंधन, उनसे जुड़े लोग पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। तीर्थ और पर्यटन स्थल में, स्पष्ट अंतर है। तीर्थ मंदिरों में, जाने वाले अधिकांश व्यक्ति, अपनी आस्था के कारण वहां जाते हैं, और अपनी मान्यता और हैसियत के अनुसार, दर्शन, पूजापाठ आदि करते हैं। और जब वही तीर्थ, पर्यटन स्थल में तब्दील हो जाता है तो, आस्था, गौण होने लगती है, और फिर, घूमना फिरना प्रमुख हो जाता है। लेकिन जब वहां घूमने फिरने गए ही हैं तो, बिलकुल, इस शेर की तर्ज पर कि, 'रिंद के रिंद रहे, हांथ से जन्नत न गई,' दर्शन भी करते चलें।
बनारस में, पहले काशी विश्वेश्वर मंदिर का भव्य कॉरिडोर बना और वह, बजाय एक ज्योर्तिलिंग तीर्थ के, खूबसूरत पर्यटन स्थल में बदल गया। ज्योर्तिलिंग अब भी हैं। वह स्थान आकर्षक और भव्य भी है। लोग दर्शन के बजाय, कॉरिडोर देखने आने लगे। मुझसे भी बनारस आने पर कहते हैं,
"कॉरिडोर देखला कि ना? देख आवा। बहुत बढ़िया बनल हव। आ जब जाया त दर्शनों कय लीहा।"
मैं भी कहता हूं,"देखब। टाइम मिली त चल जाब।"
लोग शाम बिताने, वहां जाने लगे। अब जब गए हैं तो बाबा का दर्शन भी कर लें। अब बाबा धाम के उस बदले हुए कलेवर को किसी निजी कंपनी के हांथ, प्रबंधन के लिए सौंप दिया गया है। अब वह तीर्थ, विश्वेश्वर से, विश्वनाथ, फिर विश्वनाथ धाम और अब काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में बदल गया है। बाबा वही हैं। जस के तस !
बाबा विश्वनाथ मंदिर का प्रबंधन पहले वहां के महंत जी देखते थे। मैं उनके यहां आता जाता था। वे मेरे बड़े पिता जी के मित्र थे। पर 1983 में जब चोरी हुई, तब उसके बाद, मंदिर की व्यवस्था सरकार ने ले ली और वहा एक पीसीएस अफसर, व्यवस्थापक के रूप में नियुक्त हो गए। चोरी के समय मैं मथुरा में नियुक्त था। वहां से छुट्टी पर जब बनारस आया तब, विश्वनाथ मंदिर भी गया। महंत जी से भी मिलने भी गया। कुछ देर बात चीत करने के बाद, मैने पूछा कि, "बाबा, ई चोरी कइसे हो गइल ?"
तब महंत जी ने कहा कि "ई चोरी ना हे। बाबा के ईहां बिना उनके मर्जी के कउनो चोरी हो सकेला? बाबा त, खुदे चोरवन के, बुलाय के सोना दे देहलन। कहलन, ले जो सारे, तोहनन के जरूरत हे, त ले जो। हम सोना ले के का करब। आ हम्में चाही त, केहू दे देही।"
यही तो बनारस का बनारसीपना है।
बहरहाल, चोरी हुई थी। चोर पकड़े भी गए। बाबा के अरघा का सोना काट कर वे ले गए थे। कुछ सोना बरामद भी हुआ था। उस समय त्रिनाथ मिश्र एसएसपी वाराणसी और श्रीश चंद्र दीक्षित डीजीपी थे। बाद में त्रिनाथ मिश्र, सीबीआई के निदेशक पद से रिटायर हुए। श्रीश चंद्र दीक्षित सर, विश्व हिंदू परिषद में शामिल हो गए और बनारस से बीजेपी के टिकट पर सांसद भी रहे। चोरी के बाद, जब विश्वनाथ मंदिर का प्रबंधन, सरकार ने ले लिया, तब बनारस के एक प्रमुख, हास्य कवि हुआ करते थे, चकाचक बनारसी, उन्होंने एक कविता लिखी थी, तोहूं राजा विश्वनाथ जी हो गइला सरकारी। चकाचक जी भी अब नहीं रहे। वे स्थानीय कवि सम्मेलनों की जान हुआ करते थे। अब बाबा कॉरिडोर बनने के बाद, मंदिर और परिसर की व्यवस्था, किसी निजी कंपनी को दे दी गई।
अब काशी विश्वनाथ परिसर से, पंच विनायक, पंचक्रोशी मार्ग और अनेक पौराणिक विग्रह या तो सुंदरीकरण अभियान में ध्वस्त कर दिए गए या फिर टूट फूट गए। अब बस बाबा बचे हैं और उनकी कचहरी, बदल कर एक भव्य कॉरिडोर हो गई है। खबर है, वहां होटल, फूड ज्वाइंट्स आदि खुलने वाले हैं। गंगा तक एक लम्बा और विस्तीर्ण कॉरिडोर बन गया है। अब यह बनारस का एक प्रमुख पर्यटन स्थल बन गया है।
इधर दूसरे ज्योर्तिलिंग, उज्जैन के महाकालेश्वर में भी एक भव्य कॉरिडोर बना है और उसके बाद खबर आई कि, उसकी व्यवस्था भी, कोई निजी कम्पनी देखेगी। मैं उस कॉरिडोर बनने के बाद, वहां नहीं गया हूं, इसलिए जो परिवर्तन हुए हैं, उन्हे मैं नहीं बता पाऊंगा। लेकिन फोटो और अखबारों में जो छपा है उससे लगता है तीर्थ में काफी कुछ बदलाव आ गया है। भारतीय और सनातन तीर्थ आज के नहीं हैं और इनका इतिहास सदियों पुराना रहा है। इनका प्रबंधन भी, स्थानीय महंत ट्रस्ट आदि करते रहते हैं। उन्हे धन की कमी, धनाढ्य वर्ग के लोग, आस्थावान तीर्थयात्री और राजा महाराजा, नहीं होने देते थे। अब राजा महाराजा तो रहे नहीं, पर आस्थावान धनाढ्य अभी भी धन की कमी नहीं होने देते हैं।
अब तो, मंदिरों में सामान्य दर्शन से लेकर वीआईपी दर्शन तक के लिए शुल्क भी निर्धारित है यानी जैसी जेब होगी, वैसी ही प्रभु का सामिप्य मिलेगा। आस्था पर, जेब भारी पड़ गई और इस बात पर, किसी आस्थावान की आस्था आहत भी नहीं हुई। यह प्रथा, तो दरिद्रनारायण की मूल धारणा के ही विपरीत है। शुल्क आधारित दर्शन की परंपरा तिरुपति से संभवतः शुरू हुई है। तिरुपति तो, विष्णु का मंदिर है, विष्णु तो ठहरे ऐश्वर्य के स्वामी, लक्ष्मीपति, पर शिव तो ठहरे, औघड़, आशुतोष और सर्वसुलभ, पर अब वे भी विष्णु की देखादेखी, शुल्क आधारित दर्शन देने लगे!
सनातन आस्था के केंद्र चाहे वे ज्योतिर्लिंग हों या शक्तिपीठ या अन्य प्राचीन वैष्णव परंपरा के मंदिर, उन सब तीर्थों का तीर्थत्व नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। रही व्यवस्था, निजी कंपनियों द्वारा किए जाने की तो, वे जब प्रबंधन करेंगी तो, 'मैनेज' ही करेंगी। मैनेज शब्द भी एक गूढ़ शब्द है। उनका मैनेजमेंट, लाभ हानि पर ही आधारित होगा और वे उन तीर्थों के तीर्थत्व, शुचिता सनातन आस्थाभाव का कितना ख्याल रखेगी यह तो, भविष्य ही बताएगा।
(विजय शंकर सिंह)
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