Sunday, 23 October 2022

क्या देश में निदेशक ईडी के पद के लिए देश में और कोई काबिल अफसर ही नहीं है ? / विजय शंकर सिंह

सरकार, ईडी (एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट) यानी प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक, संजय मिश्र को तीन साल का और सेवा विस्तार देना चाहती है। पर सुप्रीम कोर्ट का सितंबर 2021 का एक फैसला इस सेवा विस्तार में आड़े आ रहा है। उक्त फैसले में संशोधन के लिए, सरकार ने शीर्ष अदालत से, अनुरोध किया है। सुप्रीम कोर्ट ने, सितंबर 2021 के फैसले में, संशोधन की मांग करने वाली केंद्र सरकार की उस याचिका पर, एनजीओ कॉमन कॉज से, जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। उक्त फैसले में, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के निदेशक को, अतिरिक्त सेवा विस्तार देने पर रोक लगा दी गई है।

शीर्ष अदालत ने, सितंबर  में अपने फैसले में मौजूदा ईडी निदेशक संजय कुमार मिश्रा को और सेवा विस्तार देने के खिलाफ फैसला सुनाया था। कोर्ट ने कहा था कि, "सरकार के पास ईडी निदेशक की नियुक्ति शर्तों मे बदलाव करने की शक्तियां हैं। लेकिन यह केवल दुर्लभतम मामलों में ही किया जाना चाहिए।" लेकिन सरकार, नए निदेशक की नियुक्ति के बजाय, वर्तमान निदेशक संजय कुमार मिश्र को ही तीन साल का सेवा विस्तार देना चाहती है। 

सितंबर 2021 के सेवा विस्तार देने की, सरकार की शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई सवाल नहीं उठाया है। अदालत का कहना है, "हालांकि हमने ईडी निदेशक के कार्यकाल को, दो साल की अवधि से, आगे बढ़ाने के लिए भारत संघ की शक्ति को बरकरार रखा है। लेकिन, हमें यह स्पष्ट करना है कि, सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त कर लेने वाले अधिकारियों को दिए गए कार्यकाल का विस्तार, केवल दुर्लभ और असाधारण मामलों में किया जाना चाहिए।" आगे फैसले में कहा गया है, "केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम की धारा 25 (ए) के तहत गठित समिति द्वारा, कारणों को दर्ज करने के बाद ही, चल रही जांच को पूरा करने की सुविधा के लिए विस्तार की उचित अवधि दी जा सकती है।" 

अदालत ने, विशेष रूप से संजय कुमार मिश्र के कार्यकाल के संबंध में, सुप्रीम कोर्ट ने, उनकी नियुक्ति आदेश में पूर्वव्यापी संशोधन की पुष्टि कर दी थी, जिससे उनका कार्यकाल दो से तीन वर्ष तक बढ़ गया था। हालांकि, इसमें यह भी कहा गया था कि "आगे कोई सेवा विस्तार नहीं दिया जा सकता है।"

सुप्रीम कोर्ट के सितंबर 2021 के फैसले के बाद, पिछले साल ही, सरकार ने, एक अध्यादेश लाकर,  केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) अधिनियम में संशोधन, कर दिया है कि, "सरकार, ईडी निदेशक के कार्यकाल को पांच साल तक बढ़ाने के लिए, सक्षम है।" सीवीसी में किए गए इस अध्यादेश संशोधन को, फिलहाल, 8 जनहित याचिकाओं के द्वारा, शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई है। 

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) निदेशक, संजय कुमार मिश्र को पहली बार नवंबर 2018 में, दो साल के कार्यकाल के लिए ईडी निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। दो साल का कार्यकाल नवंबर 2020 में समाप्त हो गया था। मई 2020 में, वह 60 वर्ष की सेवानिवृत्ति की आयु तक पहुंच भी गए थे। हालांकि, 13 नवंबर, 2020 को केंद्र सरकार ने एक कार्यालय आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि, "राष्ट्रपति ने 2018 के आदेश को इस आशय से संशोधित किया था कि, 'दो साल' के समय को 'तीन साल' की अवधि में बदल दिया जाय।" इस आदेश को, एक संस्था कॉमन कॉज ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।

सेवा विस्तार पर अदालतों के निर्णय स्पष्ट हैं कि, सेवा विस्तार, अत्यंत अपरिहार्य और दुर्लभतम स्थिति में ही किसी अफसर का किया जाना चाहिए। यह सेवा विस्तार, तकनीकी और ऐसी सेवाओं के लिए है, जहां कोई अन्य विकल्प आसानी से उपलब्ध न हो, तो जो अधिकारी पद पर हैं, उन्हे सेवा विस्तार देकर, उनसे काम लिया जा सकता है। सवाल उठता है क्या ईडी निदेशक का पद, तकनीकी है और दुर्लभतम कोटि में आता है ?

ईडी निदेशक का पद अब तक या तो आईपीएस या आईआरएस अधिकारियों के कैडर के अफसरों को मिलता रहा है, क्योंकि यह संस्था, मूलतः एक जांच एजेंसी है। यह दोनो कैडर सामान्य रूप से प्रशासनिक कैडर हैं। दोनो ही कैडर में, उच्च पदों पर तैनात अनेक ऐसे योग्य अफसर, उपलब्ध हैं, जो इस संस्था के प्रमुख का कार्यभार कुशलता से संभाल सकते हैं। लेकिन सरकार ने फिलहाल, कोई नया निदेशक ढूढने के बजाय, वर्तमान निदेशक को ही सेवा विस्तार देने का निर्णय किया है, जिसे अदालत में चुनौती दी गई है। 

जब से ऑपरेशन लोटस के नाम पर, लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकारों को, गिराने का राजनैतिक कृत्य किया जा रहा है, उन सबमें ईडी की सक्रिय भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। ईडी को भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में जांच करने की शक्तियां हैं और यह उनका कर्तव्य भी है, पर जब ऑपरेशन लोटस के साथ साथ, ईडी की भी समानांतर सक्रियता दिखती है तो, ईडी पर, लोगों का संदेह उठना लाजिमी है। अक्सर यह सवाल उठता है कि, आखिर ईडी के निशाने, गैर भाजपा सरकारें और विपक्षी दल के नेता ही क्यों रहते हैं। और इस सवाल का जवाब, न तो सरकार देती है और न ही, ईडी पर टीवी डिबेट में, इसका जवाब भाजपा के प्रवक्ता देते हैं या फिर आईटी सेल के लोग। 

पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस ने ईडी की कार्यप्रणाली पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। उक्त रिपोर्ट के अनुसार, देश में सारे राजनीतिक छापों में, साल 2014 के बाद विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी के मामलों में 4 गुना उछाल आया और यह आंकड़ा, 95% तक पहुंचा है। अखबार के अनुसार, पिछले 18 सालों में ईडी द्वारा बुक, गिरफ्तार, छापे या पूछताछ किए गए प्रमुख राजनेताओं की संख्या 147 है, जिसमें 85 प्रतिशत विपक्ष के नेताओं के नाम शामिल है। 

साल, 2014 में एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद के जांच के पैटर्न से पता चलता है कि, इस दौरान एजेंसी ने 121 नेताओं पर छापा/पूछताछ/गिरफ्तारी की, जिसमें 115 विपक्षी नेता थे। जबकि, यूपीए शासन में एजेंसी द्वारा केवल 26 राजनीतिक नेताओं की जांच की गई थी. इनमें विपक्ष के 14 (54 फीसदी) नेता शामिल थे। ईडी के मामलों में, हो रही बढ़ोतरी मुख्य रूप से प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के कारण है। 

विपक्ष ने संसद में कई बार ईडी का मुद्दा उठाया है। विपक्ष के नेताओं का आरोप है कि, एजेंसी द्वारा उन्हें अनुचित तरीके से निशाना बनाया जा रहा है। मीडिया के अनुसार, साल 2014 से ईडी ने, विपक्ष के कई नेताओं की जांच की है। इसमें कांग्रेस - 24, टीएमसी - 19, एनसीपी - 11, शिवसेना - 8, डीएमके - 6, बीजद - 6, राजद - 5, बसपा - 5, एसपी - 5, टीडीपी - 5, आप - 3, इनेलो - 3, वाईएसआरसीपी - 3, सीपीएम - 2, एनसी - 2, पीडीपी -2, अन्नाद्रमुक - 1, मनसे - 1, एसबीएसपी - 1 और टीआरएस - 1 के नेता रहे हैं। 

अब कुछ और रोचक विवरण पढ़े। 
० असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा के खिलाफ सीबीआई और ईडी ने 2014 और 2015 में सारदा चिटफंड घोटाले की जांच की थी, जब वह कांग्रेस में थे। सीबीआई ने 2014 में उनके घर और कार्यालय पर छापा मारा और यहां तक ​​कि, उनसे पूछताछ भी की। हालांकि, उनके बीजेपी में शामिल होने के बाद से इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई। 
० तत्कालीन टीएमसी नेता सुवेंदु अधिकारी और मुकुल रॉय को नारद स्टिंग ऑपरेशन मामले में सीबीआई और ईडी ने जांच के दायरे में रखा था। दोनों ही पिछले साल पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हो गए थे और उनके खिलाफ मामलों में कोई प्रगति नहीं हुई। 

इस तरह की जांचों से न केवल एजेंसी की साख पर असर पड़ता है और उसकी विश्वसनीयता कम होती है बल्कि वह किसी बड़ी राजनीतिक साजिश का एक उपकरण बन कर रह जाती है। अब जब ईडी पर राजनैतिक रूप से जांच करने के आरोप लग रहे हैं तो, इसी बीच उक्त एजेंसी के प्रमुख, का सेवा विस्तार के लिए सरकार का ज़िद पकड़ लेना, एजेंसी की पक्षपात रहित जांच और कार्य पर अनेक संदेह पैदा करता है। अब देखना है कि, सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या निर्णय देता है। पर फिलहाल तो सरकार की नजर में, ईडी निदेशक का कोई विकल्प, उसके पास नहीं है। 

(विजय शंकर सिंह)

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