मुद्राराक्षसम् का संक्षिप्त भावानुवाद: षष्ठ अंक ~
मुद्राराक्षसम् का छठा अंक कथात्मक अन्विति एवं चरित्रांकन की दृष्टि से बेजोड़ है। नाटककार विशाख़दत्त का अन्विति-विषयक अदम्य आत्मविश्वास ही है जो इस अंक में एक पात्र द्वारा सामान्य नाटकों में अन्विति के स्खलन पर चुटकी लेने के रूप में व्यक्त होता है.
इस अंक का नाम है कपटपाश, यानी फाँसी का छद्म फंदा. पाँचवें अंक के अंत में हम राक्षस को हताश, निराश और पराजय-बोध से टूटा हुआ छोड़कर आए हैं. इस अंक में चाणक्य ऐसी स्थितियों का सृजन करता है जो राक्षस को उसकी नई भूमिका की ओर अग्रसर करती हैं. पहले अंक में राक्षस के सच्चे मित्र चंदनदास ने उसके परिवार को समर्पित करने के बजाए मृत्युदंड का वरण किया था (और फ़िलहाल बंदीगृह में पड़ा हुआ है). यही राक्षस की कमज़ोर नस है, जिसका इस्तेमाल चाणक्य नाटक के उदात्त राष्ट्रीय अभिप्रेत की सिद्धि के लिए करना चाहता है. पहले ही अंक में राक्षस के चरित्र के मूल्यांकन से उसने पूर्वानुमान कर लिया था कि, जैसे राक्षस का परिवार बचाने के लिए चंदनदास अपना उत्सर्ग करने को तैयार है, वैसे ही राक्षस भी उसे बचाने के लिए ख़ुद को उत्सर्ग करने की कोशिश करेगा और वही होगा उसे बृहत्तर राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए उत्प्रेरित करने का सही वक़्त. चाणक्य को अब इसी अवसर को साकार करने के लिए कुशल गुप्तचरों के माध्यम से सघन प्रयास करना है. चंदनदास की रक्षा के लक्ष्य से राक्षस के कुसुमपुर पहुँचते ही चाणक्य का एक गुप्तचर उससे जैसे अनायास मिल जाता है, जो प्रकटत: अपने परम मित्र की आसन्न मृत्यु से विचलित स्वयं गले में रस्सी का फंदा लगाकर आत्महत्या करने जा रहा है. राक्षस के विकट मानसिक संत्रास और उसकी नैराश्यपूर्ण अनिश्चितता के इस दौर में उसके लिए यही छद्म उपक्रम निर्णायक साबित होता है. और यही है कपटपाश का कमाल जो इस अंक के नामकरण को सार्थक करता है.
पहला दृश्य:
सिद्धार्थक मलयकेतु के सैन्य-पड़ाव से लौटकर, चाणक्य को, और उसके कहने पर चंद्रगुप्त को, वहाँ के घटित के बारे में सूचना देने और चंद्रगुप्त से यथोचित पुरस्कार पाने (थर्ड डिग्री का मुवावज़ा भी शामिल रहा होगा!) के बाद, दूसरे मिशन पर निकला है. इसमें उसे अपने मित्र, एक और गुप्तचर, समिद्धार्थक को साथ लेना है, जिसके लिए वह उसके घर जा रहा है. समिद्धार्थक भी बहुत दिनों से मुलाक़ात न होने से सिद्धार्थक को खोजता उधर ही आ निकलता है.
दोनों मिलते हैं तो पहले तो समिद्धार्थक की उत्सुकता शांत करने के सिलसिले में सिद्धार्थक द्वारा किए गए वर्णन से मालूम होता है कि मलयकेतु के शिविर में आगे क्या-क्या हुआ. मलयकेतु की आज्ञा से पाँच मुख्य राजाओं के मौत के घाट उतार दिए जाने के बाद अन्य सहयोगी राजा भी अपने-अपने सैन्य-दल के साथ शिविर छोड़कर चले गए; उन्हें लगा, मलयकेतु इतना अविचारी है कि इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता. इस घटना से मलयकेतु के सभी सामन्त भी बेहद खिन्न हो गए. ऐसे में मलयकेतु का विश्वास जीतकर उसके सहायक बने भागुरायण आदि मगध के आठों अधिकारियों ने उसे घेरकर बंदी बना लिया.
इस सूचना पर समिद्धार्थक की एक बड़ी दिलचस्प टिप्पणी है—संसार तो यही कहता है कि ये आठों अधिकारी चंद्रगुप्त से खार खाकर मलयकेतु का आश्रय लिए थे; यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई अयोग्य कवि (संस्कृत में नाटककार भी कवि है) अपने नाटक की मुखसंधि (प्रारम्भ) में कुछ कहे, और निर्वहण संधि (अंत) में करा कुछ और डाले. आत्मविश्वास से भरे विशाखदत्त को यह चुटकी लेने का अवसर है क्योंकि इस नाटक के दर्शक इस प्रसंग की असलियत और एकरूपता के निर्वाह को भलीभाँति जानते हैं. सिद्धार्थक इसके समाधान में बस इतना ही कहता है कि आर्य चाणक्य की नीति को नमस्कार है, जो उसी तरह अज्ञेय है, जैसे दैव (भाग्य) की गति.
फिर समिद्धार्थक के पूछने पर सिद्धार्थक इसके आगे का घटनाक्रम बताता है. हुआ यह कि मलयकेतु के बंदी बनाए जाने के बाद, पल-पल की ख़बर रखने वाला चाणक्य मगध की विशाल सेना लेकर कुसुमपुर से निकला और मलयकेतु के शिविर पहुँचकर सरदारों से रहित समस्त म्लेच्छ (विजातीय) सेना को वश में कर लिया.
समिद्धार्थक: ‘अरे, संसार के सामने अपने अमात्य-पद को त्यागने के बाद आर्य चाणक्य ने क्या फिर से उसे ग्रहण कर लिया है?’
सिद्धार्थक: ‘तुम बहुत भोले हो समिद्धार्थक. जिस आर्य चाणक्य के चरित्र की थाह अमात्य प्रवर राक्षस तक नहीं लगा पाए, उसे तुम लगाना चाहते हो.’
समिद्धार्थक: ‘अच्छा तो यह बताओ, अमात्य प्रवर राक्षस इस समय हैं कहाँ?’
सिद्धार्थक: ‘शिविर में चारों तरफ भय से अफरा-तफरी मची थी, तभी वहाँ से निकल लिए. हम लोगों का साथी उदुम्बर (एक और गुप्तचर) उनके पीछे लगा है. आर्य चाणक्य को सूचना मिली है कि इधर पाटलिपुत्र ही आए हैं....लगता है चंदनदास के प्रति स्नेह ही इधर खींच लाया है उन्हें.’
समिद्धार्थक: ‘तब तो चंदनदास को मुक्ति मिल जाएगी अब.’
सिद्धार्थक: ‘उस बेचारे को अभी मुक्ति कहाँ!....आर्य चाणक्य की आज्ञा है कि हम दोनों उसे वध-स्थल पर ले चलें...’
समिद्धार्थक: ‘आर्य चाणक्य के पास कोई जल्लाद नहीं है क्या? हम लोगों को ऐसे क्रूर काम पर लगाने का क्या मतलब?’
सिद्धार्थक: ‘मित्र, इस संसार में जीने की इच्छा रखनेवाला कौन ऐसा है जो चाणक्य की आज्ञा का उल्लंघन करे.....चलो हम लोग चांडाल का वेश धारणकर चंदनदास को फाँसी की जगह ले चलें.’
(दोनों निकल जाते हैं.)
दूसरा दृश्य:
स्थान है कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) नगर का एक जीर्ण उद्यान. मंच पर एक व्यक्ति प्रवेश करता है. हाथ में एक रस्सी लिए हुए, जिसके सिरे पर फंदा बना हुआ है. दर्शकों को क्या मालूम कि यह कौन है. यह वही है—गुप्तचर निपुणक, जो पहले अंक में लोगों की ख़बर पाने के लिए यमपट दिखलाकर गीत गाता था. है यह बहुत निपुण. पूरा कलाकार. पहुंचते ही अपनी फंदेवाली रस्सी की तारीफ़ में प्राकृत का एक श्लोक ठोंक देता है (संस्कृत नाटक में सभी सामान्य जन प्राकृत ही बोलते हैं, संस्कृत के साथ-साथ दर्शक प्राकृत भी समझते रहे होंगे)—
छग्गुणसंजोअदिढा उवाअपरिवाडिघडिअपासमुही।
चाणक्कणीतिरज्जू रिपुसंजमअज्जआ जअदि॥6:4॥
संस्कृत छाया—
षड्गुणसंयोगदृढा उपायपरिपाटीघटितपाशमुखी।
चाणक्यनीतिरज्जू रिपुसंयमनोद्यता जयति॥
[शत्रु (राक्षस) को वश में करने के लिए चाणक्य की नीति की तरह यह रस्सी सर्वोत्तम है. इसके छ: गुण (सूत) हैं जो इसे मज़बूत बनाते हैं. चार उपायों की परिपाटी से इसे बनाया गया है (सूत कातना, उसे तानना, फिर माँजना, फिर बँटकर रस्सी बनाना) और इसके सिरे (मुख) पर एक फंदा भी है. {चाणक्य-नीति के भी छ: गुण हैं—संधि, विग्रह, आसन, यान, द्वैधीभाव और आश्रय. वह भी चार उपायों से काम करती है—साम, दाम, भेद और दंड. वह जिसकी ओर मुख कर लेती है, बच नहीं सकता.}]
फिर वह काम की बात पर आता है और चारों ओर देखकर--
‘उदुम्बर ने यही जगह तो बताई थी. और आर्य चाणक्य ने उसी की बताई जगह पर अमात्य राक्षस को खोजने को कहा था....हाँ-हाँ, वह रहे. सिर पर पर्दा डाले हुए. इधर, इसी उद्यान की तरफ़ तो आ रहे हैं. देखें, किधर बैठते हैं. तब तक एक पेड़ की आड़ में हो जाता हूँ.’
राक्षस के हाथ में खड्ग है लेकिन आँखों में आँसू. समय के इस फेर पर उसे रोना आ रहा है. उसका स्वगत कथन--नंदकुल की राजलक्ष्मी एक स्वैरिणी स्त्री की तरह महाराज नंद को छोड़कर इस नौबढ़ चंद्रगुप्त के पास चली गईं. और उन्हीं के पीछे-पीछे अंधानुकरण करनेवाली प्रजा भी. पर्वतक और फिर मलयकेतु का सहारा लेकर राजलक्ष्मी को वापस लाने के लिए इतना यत्न किया, लेकिन सारा किया-कराया मिट्टी में मिल गया, नंदकुल का शत्रु यह चाणक्य जो बीच में आ गया. लेकिन इस बेचारे ब्राह्मण को क्या दोष देना, भाग्य ही हमसे शत्रुता करने पर आमादा है. मूर्ख मलयकेतु को समझ में ही नहीं आया कि भला राक्षस अपने स्वामी के शत्रु के साथ संधि कैसे कर सकता है! राक्षस नष्ट भले हो जाए, शत्रु के खेमे में कभी नहीं जाएगा. मलयकेतु द्वारा लगाया गया लांछन सह लेगा लेकिन लोगों का यह कहना नहीं सह पाएगा कि राक्षस शत्रु की कुटिलता के सामने हार गया....फ़िलहाल कहाँ जाऊँ? चलो इसी उद्यान में बैठकर चंदनदास का कुछ समाचार मालूम करने की कोशिश करता हूँ....आह! पहले मैं जब इस नगर में हज़ारों सामंतों से घिरा धीरे-धीरे चलता हुआ निकलता था तो नगरवासी एक-दूसरे को द्वितीया के चाँद की तरह दुर्लभ मुझको उँगली के संकेत से दिखाते थे, आज उसी नगर के इस उद्यान में चोर की तरह हड़बड़ी में घुस रहा हूँ.... चलो, इस टूटी शिला पर ही बैठ जाता हूँ.
राक्षस वहाँ बैठकर दूर से आती नगाड़े और शंख के साथ मांगलिक गीतों की आवाज़ सुनता है...तो यह मलयकेतु के पकड़े जाने की ख़ुशी में हो रहा होगा.
निपुणक सक्रिय हो जाता है. राक्षस के सामने आकर, लेकिन उसे अनदेखा करते हुए, रस्सी का फंदा अपने गले में डाल लेता है.
‘लगता है, मेरी तरह ही कोई दु:खी इंसान है,’ राक्षस बुदबुदाता है और उसके पास जाकर--‘भले मानुस, यह क्या कर रहे हो?’
निपुणक: ‘आर्य, अपने प्रिय मित्र के विनाश से दु:खी मुझ-जैसा अभागा और क्या करेगा!’
राक्षस: ‘मित्र, तुम्हारा दु:ख मेरे-जैसा ही है. गुप्त न हो और बताने में कष्टकारी न हो तो जानना चाहता हूँ.’
निपुणक: ‘न गुप्त है न बताने में कष्टकारी, लेकिन प्रिय मित्र के विनाश से दुखी अब मैं प्राण त्यागने में इतना (पूरी बात बताने का) भी विलम्ब नहीं कर सकता.’
राक्षस: (स्वगत) ‘मित्र चंदनदास की विपत्ति में मेरे कुछ न कर पाने को न जानते हुए भी इसने मुझे लज्जित कर दिया.’ (प्रकट) ‘भद्र, यदि न गुप्त है, न बताने में कष्टकर, तो कृपया बता ही दीजिए.’
निपुणक: ‘आर्य का आग्रह अजीब है, लेकिन कोई चारा भी तो नहीं. तो सुनिए.... इस नगर में विष्णुदास नामका एक जौहरी है...’
‘अरे वह तो अपने चंदनदास का मित्र है’ राक्षस बीच में बुदबुदा उठता है. फिर पूछता है—‘क्या हुआ उसका?’
निपुणक: ‘वही मेरा प्रिय मित्र...’
राक्षस: (प्रसन्न होकर, स्वगत) ‘अरे इसने विष्णुदास को प्रिय मित्र कहा, तब तो चंदनदास का समाचार भी जानता होगा.’
निपुणक: ‘तो वह विष्णुदास अपनी सम्पत्ति ग़रीबों में बाँटकर आग में प्रवेश करने की इच्छा से नगर के बाहर चला गया है. इसके पहले कि उसकी बुरी ख़बर सुनूँ, अपने को ख़त्म करने इस उद्यान में आया हूँ.’
राक्षस: ‘भद्र, तुम्हारा मित्र आग में क्यों प्रवेश करना चाहता है? क्या वह किसी असाध्य रोग से पीड़ित है?’
निपुणक: ‘नहीं तो.’
राक्षस: ‘तो क्या राजा के कोप का शिकार हो गया है, जो आग और विष-जैसा ही होता है.’
निपुणक: ‘ऐसा न कहें, महानुभाव. चंद्रगुप्त के राज्य में ऐसी निर्दयता नहीं होती.’
राक्षस: ‘तो क्या किसी ऐसी स्त्री के प्रति अनुरक्त है, जो अप्राप्य है?’
निपुणक: ‘पाप शांत हो. मेरे मित्र में ऐसी कोई उछृंखलता नहीं.’
राक्षस: ‘तो क्या आपकी तरह उसके भी किसी मित्र का विनाश हुआ है?’
निपुणक: ‘और क्या!’
राक्षस: (घबराहट के साथ स्वगत) ‘तो चंदनदास ही विष्णुदास का वह प्रिय मित्र है जो उसके आग में प्रवेश करने का कारण है. तभी तो मेरा हृदय छटपटा रहा है.’ (प्रकट) ‘विष्णुदास के प्रिय मित्र के बारे में, जिसके प्रति प्रेम के कारण वह जान देने को तत्पर है, थोड़ा विस्तार से बताएँगे?’
निपुणक: ‘आर्य, अब मुझ हतभाग्य के जान देने में और विलंब मत कराइए.’
राक्षस: ‘संक्षेप में तो बता सकते हैं?’
निपुणक: (स्वगत) ‘अब क्या उपाय है!, बताना ही पड़ेगा. (प्रकट) तो सुनिए....’
राक्षस: ‘भद्र, सुन रहा हूँ.’
निपुणक: ‘इस नगर में चंदनदास नामका एक जौहरी सेठ है. वही हमारे विष्णुदास का मित्र है. आज विष्णुदास ने चंद्रगुप्त से निवेदन किया कि मेरे घर में परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त सम्पत्ति है, उसी की अमानत लेकर चंदनदास को छोड़ दें.’
राक्षस: (स्वगत) ‘वाह विष्णुदास, वाह, कैसा मित्र-प्रेम! जिस सम्पत्ति के लिए पुत्र अपने माता-पिता को और माता-पिता अपने पुत्र को शत्रु के समान मार डालते हैं, जिसके लिए मित्र प्रेमभाव छोड़ देते हैं, उसी को पाप के समान इस तरह छोड़ देने को तैयार! तुम्हारे-जैसे वणिक के वणिकपने के बावजूद तुम्हारा धन सार्थक है.’
(प्रकट) ‘फिर चंद्रगुप्त ने उसे क्या जवाब दिया?’
निपुणक: ‘आर्य, चंद्रगुप्त ने कहा--मैंने चंदनदास को धन के लिए नहीं बाँधा है. इसने अमात्य प्रवर राक्षस का परिवार छिपाकर रखा है और बार-बार कहने पर भी सौंपने को तैयार नहीं. यदि यह अब भी सौंप दे तो इसके प्राण बच जाएँगे, नहीं तो प्राणदंड निश्चित है....और अब तो उसे फाँसी के स्थान पर भी ला दिया गया है. विष्णुदास यह तय करके, कि इसको फ़ाँसी पर चढ़ाए जाने के पहले ही, अपने को आग में नष्ट कर दूँ, शहर से निकल गया है. मैं भी विष्णुदास के बारे में अप्रिय समाचार सुनने के पहले फाँसी लगा लूँ, यही सोचकर यहाँ आया हूँ.’
राक्षस: ‘भद्र, चंदनदास को प्राणदंड अभी दिया तो नहीं गया?’
निपुणक: ‘आज दिया जाएगा. अभी भी उससे बार-बार अमात्य राक्षस का परिवार सौंपने को कहा जा रहा है. लेकिन उसका मित्र-प्रेम टस से मस नहीं हो रहा….अब मुझे भी मरने में विलंब नहीं करना चाहिए.’
राक्षस: ‘वाह, चंदनदास वाह! (स्वगत) शरणागत (कपोत) की रक्षा में राजा शिवि ने जो यश कमाया था, तुम्हारा तो उससे भी बढ़कर है, वहाँ तो कपोत याचना करने पहुँच गया था, यहाँ तो तुम्हारा मित्र तुमसे दूर है.’ (प्रकट)—‘भद्र, शीघ्र जाकर अपने मित्र विष्णुदास को आग में प्रवेश करने से रोको. मैं चंदनदास को फाँसी से बचाता हूँ.’
निपुणक: ‘कैसे बचाएँगे, जरा मैं भी तो सुनूँ.’
राक्षस: (तलवार खींचता है) ‘मेरे पुरुषार्थ में एकमात्र और परम सहायक यह है न.’
निपुणक: ‘इस हालत में आपको ठीक-ठीक पहचान तो नहीं पा रहा हूँ, लेकिन क्या कृपा करके मेरी इस शंका का निवारण करेंगे कि मैं प्रात:स्मरणीय, श्रद्धेय अमात्य प्रवर राक्षस के सामने खड़ा हूँ, जिसके बारे में विदित है कि उन्होंने चंदनदास को जीवन देने का वादा किया है?’ (इसी के साथ वह राक्षस के चरणों में गिर जाता है).
राक्षस: ‘हाँ भाई, स्वामी (नंद) के विनाश का अनुभव करने को अभिशप्त, और मित्र चंदनदास की दारुण विपत्ति का कारण, मैं ही वह सचमुच का राक्षस (दानव) हूँ जिसके नाम का प्रात:स्मरण अब अमंगलकारी है.’
निपुणक फिर से राक्षस के चरणों में गिरता है—‘मेरा सौभाग्य कि आपके दर्शन हुए.’
राक्षस: ‘भद्र उठो-उठो. समय नहीं है. जाकर विष्णुदास से निवेदन करो कि राक्षस अभी चंदनदास को मृत्यु से छुड़ाता है.’ राक्षस तलवार खींचे हुए घूमकर चलने को उद्यत होता है.
निपुणक फिर से राक्षस के चरणों में गिरता है और उसे जाने नहीं देता. ‘नाराज़ न हों अमात्य. संभव नहीं है यह. इस नगर में पहले हुए एक प्रसंग के बाद ‘दुष्ट’ चंद्रगुप्त सावधान हो गया है. आर्य शकटदास को फाँसी देने की आज्ञा हुई थी. लेकिन फाँसी के स्थान पर ले जाए जाते समय उन्हें कोई छुड़ाकर देशांतर भगा ले गया. फिर तो चंद्रगुप्त का भड़का हुआ क्रोध जल्लादों को मारकर ही शांत किया जा सका (पाठक जानते हैं, यह सफ़ेद झूठ है; सब कुछ प्रायोजित था, पहले से सिखाए हुए जल्लाद तो चाणक्य के गुप्तचर सिद्धार्थक की आँख का इशारा पाकर ख़ुद ही भाग खड़े हुए थे—अंक-एक). तब से जल्लाद किसी अपरिचित को शस्त्र लिए हुए आगे-पीछे देखते हैं तो अपनी जान की रक्षा के लिए फाँसी की सज़ा पाए हुए को तुरंत मार देते हैं. तो तलवार लेकर आपके वहाँ जाने पर चंदनदास का वध थोड़ा और जल्दी हो जाएगा, बस.’
राक्षस: (स्वगत) ‘कष्ट है! दुष्ट चाणक्य की नीति के अगम्य मार्ग को समझना कठिन है.’ उसे हताशा होती है, भ्रम-मिश्रित झुँझलाहट भी—‘यदि शकटदास को चंद्रगुप्त की आज्ञा से मेरे पास लाया गया, ताकि वह उस तरह का पत्र लिखकर मुझे फँसा सके, तो जल्लादों को नाहक क्यों मार डाला गया? और यदि शकटदास का मेरे पास लाया जाना प्रायोजित नहीं था तो इस तरह का कुत्सित कार्य वह सोच भी कैसे सका! संशय में मेरी बुद्धि कुछ तय नहीं कर पा रही है (राक्षस अब तक यही समझे हुए था कि शकटदास पाटलिपुत्र में कैद अपने परिवार की सुरक्षा के लिए चाणक्य के पक्ष से मिल गया था, जो, पाठक जानते हैं, महज़ उसका भ्रम था).
फिर विचार करने के बाद राक्षस पुन: बुदबुदाने लगता है—यदि इसकी संभावना है कि, मेरे द्वारा चंदनदास को छुड़ाने का उद्योग करने से पहले ही, मेरे हाथ में तलवार देखकर, जल्लाद उसका वध कर देंगे, तो यह तलवार का समय नहीं है. और नीति का मार्ग तो विलम्ब से फल देता है, इसलिए यहाँ उसका भी कोई उपयोग नहीं. लेकिन भयंकर विपत्ति में फँसे प्रिय मित्र चंदनदास के प्रति उदासीन भी नहीं रहा जा सकता. तो?... ठीक है, समझ में आ गया. इस नश्वर शरीर का मूल्य देकर ही चंदनदास को बचाया जा सकता है. तो वही सही...
इस तरह कपटपाश नामक इस छठे अंक के समाप्त होते-होते राक्षस एक निश्चित निर्णय पर पहुँच चुका है. और चाणक्य की उदात्त योजना भी अपने लक्ष्य से बस जरा-सी दूर रह गई है. उसके पूर्ण होने के लिए सातवाँ अंक. ध्यातव्य है कि इस छठे अंक में राक्षस का चरित्र आईने की तरह साफ़ होकर चमक उठता है, और यह भी कि उसके संबंध में चाणक्य का आकलन कितना सटीक है!
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(क्रमश:)
कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi
विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम् (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/6_30.html
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