“तुम लजारस की चमड़ी हो गंगा दीन
भले मैंने तुम्हें पीटा होगा, मारे होंगे चाबुक
जिस ईश्वर ने तुम्हें बनाया
तुम मुझसे बेहतर इंसान बने गंगा दीन”
- रुडयार्ड किपलिंग की कविता की पंक्तियाँ एक भारतीय भिश्ती को समर्पित
बदलाव सिर्फ भारतीयों में ही नहीं, बल्कि अंग्रेजों में भी हो रहा था। जब थॉमस रो पहली बार जहाँगीर के दरबार में आए, तो उन्हें पुर्तगालियों से कम तवज्जो दी गयी। उनके रहने का इंतज़ाम उनके ही शब्दों में साधारण था, और सूरत बंदरगाह में तो उनकी तलाशी भी ली गयी थी।
वहीं, 1756 तक मुग़ल दरबार में यह कहा जा रहा था, “क्या हमें अब इन चंद व्यापारियों से आदेश लेना होगा, जिन्होंने अब तक अपना पिछवाड़ा धोना भी नहीं सीखा?”
अठारहवीं सदी तक ब्रिटिश भारतीयों को कुछ मिली-जुली नज़र से देखते थे। कई ब्रिटिश भारतीय स्त्रियों से संबंध बनाते और चार्ल्स स्टुअर्ट के शब्दों में, “अगर मैं तानाशाह होता तो ब्रिटेन की गोरियों को भारतीय स्त्रियों की नकल उतारने कहता”। वहीं, कैप्टन एडवर्ड सेलोन ने लिखा, “प्रेम की जो समझ भारतीय स्त्रियों को है, दुनिया की किसी स्त्री में नहीं”
उन्नीसवीं सदी तक आते-आते और ख़ास कर ब्रिटिश ‘राज’ द्वारा कंपनी को किनारे करने के बाद उनका नज़रिया बदल चुका था। उदाहरणस्वरूप अठारहवीं सदी के लेखों में ब्राह्मणों को ख़ासा आदर दिया गया, उनसे ग्रंथों की शिक्षा ली गयी; उन्नीसवीं सदी में ब्राह्मणों को एक घृणास्पद पोंगापंथी वर्ग कहा जाने लगा। यह मात्र ईसाई मिशनरी द्वारा पुरोहितों पर प्रहार नहीं था, बल्कि भारतीय नस्ल को मानवीय स्तर पर निकृष्ट कहा जाने लगा।
अपनी पुस्तक ‘द फ़िशिंग फ्लीट’ में ऐन डी कुर्सी लिखती हैं कि किस तरह जहाज भर-भर कर फिरंगी महिलाएँ भारत लायी जाने लगी, ताकि अंग्रेज़ अफ़सरों को इस घृणित नस्ल से संबंध न बनाना पड़े। विडंबना कि ऐसी ही दृष्टि वाले भारत की वर्ण संकीर्णता को निशाना बना रहे थे। वायसरॉय लॉर्ड एल्जिन ने लिखा,
“मुझे जब इस निम्न नस्ल के लोग सलाम करते हैं तो मैं उनको दुम हिलाते कुत्तों की तरह नहीं देखता। कुत्तों को तो आप प्यार से सहलाते हैं, सीटी बजा कर बुलाते हैं। मैं इन्हें उन निर्जीव मशीनों की तरह देखता हूँ, जिनसे हम कोई भावनात्मक संबंध नहीं रखते”
हर छोटे-बड़े ब्रिटिश अधिकारी भारत के राजा-महाराजाओं की नकल उतारने लगे थे। लेफ़्टिनेंट क्युबिट जिक्र करते हैं कि उनके घर के आस-पास झोपड़ियों में उनके निजी माली, सफाईकर्मी, जमादार, दर्जी, भिश्ती, धोबी और तमाम ख़िदमतगार रहते थे। उनके आस्तीन के बटन से लेकर जूते का फीता बाँधने के लिए, लेटे-लेटे हजामत बनाने के लिए, और पूरे दिन अनवरत पंखा झलने के लिए नौकर थे। भारत में बचपन बिता चुकी एक अंग्रेज़ महिला ने लिखा कि अगर चलते हुए रुमाल भी गिर जाए, तो हम धीमी आवाज में कहते - ‘बॉय!’, और एक भूरे रंग की दुबली छाया आकर रुमाल उठा देती।
उन्नीसवीं सदी से ही उन्होंने राजा-महाराजों का आदर भी धीरे-धीरे कम या बहुत ही सतही कर दिया। एक वर्णन है कि पटियाला के राजा जब इतवार को पंजाब के कमिश्नर लॉरेन्स से मिलने आये, तो उनके पीछे चल रहे गाजे-बाजों को डाँट कर बंद कराया गया। कारण कि यह ईसाइयों के ‘मास’ का समय था।
उनकी घृणा का स्तर इस कदर बढ़ रहा था कि भारतीय सिपाहियों पर भी वह नस्लीय टिप्पणियाँ करने लगे थे, और यदा-कदा बेल्ट खोल कर मारने लगे थे। विलियम हॉवर्ड रसेल के शब्दों में-
“ये घी और मिठाई में नहाए हुए दुर्गंध करते निग्गर (अश्वेत) दिन-रात चिलम फूँकते हैं। इन्हें प्रशिक्षित करना जैसे सूअरों के बाड़ में डंडा लेकर घूमना”
यह तय था कि अगर कारतूस वाली बात न भी होती, तो इस बढ़ती नस्लीय घृणा के दौर में निरीह से निरीह नस्ल भी कभी न कभी उबल पड़ती। ख़ास कर तब जब फ़ौज में भारतीयों की संख्या अंग्रेजों से छह गुणा अधिक थी।
अंग्रेज़ों की संख्या अभी और घट रही थी, क्योंकि वह युद्ध शुरू हो चुका था, जिसे मैंने पहले ‘मिनी वर्ल्ड वार’ संबोधित किया था। क्रीमिया युद्ध।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
Praveen Jha
1857 की कहानी - एक (11)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-11.html
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