Wednesday, 26 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (14)



“शिवाजी के समय मुसलमानों से बैर उचित था, लेकिन अब ऐसा बैर रखना बेवकूफ़ी होगी”

- विनायक दामोदर सावरकर (1857 पर अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में) 

1857 के कई आयाम से पाठ हो सकते हैं। आप जहाँ खड़े हैं, वहीं से नयी लाइन शुरू हो सकती है। लाइन से याद आया, भारत में रेलवे लाइन बिछनी शुरू हुई थी, टेलीग्राफ़ आया था, पहले विश्वविद्यालय खुल रहे थे। औद्योगिक क्रांति के बिगुल बजने लगे थे, रुड़की में इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गया था। ऐसे कई भारतीय थे, जो इस आधुनिकीकरण से उत्साहित थे। हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़े जाने वाले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय भारत के पहले ग्रैजुएट बनने के लिए कॉलेज जा रहे थे; वहीं मुस्लिम राष्ट्रवाद के पुरोधा कहे जाने वाले सैयद अहमद ख़ान बिजनौर में ईस्ट इंडिया कंपनी के सदर अमीन थे।

यहाँ दो रोचक अवलोकन हैं। पहला यह कि कंपनी के इतिहासकार जॉन केये की पुस्तक को सावरकर ने संदर्भ ग्रंथ की तरह प्रयोग किया, घटनाएँ भी मेल खाती हैं। लेकिन, पहले पुस्तक के खलनायक दूसरी पुस्तक के महानायक हैं। यह स्वाभाविक ही है। दोनों दो टीम थे, तो दोनों के नायक भिन्न होंगे ही। 

दूसरा यह कि सैयद अहमद ख़ान और सावरकर का आकलन कई स्तरों पर मेल खाता है। दोनों ही अंग्रेज़ों द्वारा उनके धर्म की निंदा करने को एक महत्वपूर्ण कारण कहते हैं। 

सैयद अहमद ख़ान कुछ संदर्भ देते हैं कि किस तरह 1837 के सूखे में अनाथ हुए बच्चों को मिशनरियों ने ईसाई अनाथालय में रख कर ईसाई बना दिया। वह लिखते हैं कि पर्दा-प्रथा और महिला अशिक्षा के मुद्दों को धर्म की कमजोरी बता कर ईसाई बनने के लिए प्रेरित करना मौलवियों को भड़काता है। वहीं सावरकर हिंदुओं को heathen कहे जाने, गाय की चर्बी खिला कर धर्मभ्रष्ट किए जाने पर विस्तृत चर्चा करते हैं। 

ऐसा नहीं कि हिंदू और मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध फिर कभी एक साथ नहीं लड़े। गांधी के समय ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन भी जुड़ गये थे, लेकिन बंदूक और हथियार लेकर अलग-अलग स्थानों पर ब्रिटिश सिपाहियों से लड़ना अलग बात थी।

ताज्जुब की बात थी कि 1855 में ये दोनों धर्म अयोध्या के हनुमानगढ़ी विवाद पर हुए दंगे में एक दूसरे की जान ले रहे थे। अगले ही वर्ष इनके धर्मगुरु साथ घूम-घूम कर अंग्रेजों का ख़िलाफ़ सामूहिक धर्मयुद्ध छेड़ रहे थे।

मुसलमानों के लिए धर्म-युद्ध का एक और कारण वर्णित है। अवध से नवाब वाजिद अली शाह की पगड़ी छीनने वाले जनरल औटरैम अब ईरान की ओर कूच कर रहे थे, क्योंकि ब्रिटेन के फ़ारस पर आक्रमण की ज़िम्मेदारी उन्हें ही मिली।

यह पाठ रोचक बन जाता है, जब सावरकर मुसलमानों के जिहाद और हिंदुओं के धर्मयुद्ध को साथ जोड़ देते हैं। वह लिखते हैं,

“अपने सनातन आर्य धर्म का, और अपने प्राणप्रिय इस्लाम धर्म का मीठी छुरी से गला काटा जा रहा है था।

दिल्ली के मस्जिदों में सार्वजनिक घोषणा होने लगी- ‘फिरंगियों के कब्जे से हिंदुस्थान को मुक्त करने ईरानी फ़ौज जल्दी ही आ रही है’…

इस तरह दिल्ली के दीवान-ए-आम और ब्रह्नवैवर्त के राजमंदिर में स्वतंत्रता संग्राम की गुप्त तैयारी हो रही थी…देशभक्त मौलवी अहमद शाह को लखनऊ में हिंदुओं और मुसलमानों को भड़काने के लिए फांसी की सजा दी गयी।

उपर्युक्त मौलवी की तरह तमाम प्रचारक, फकीरों और संन्यासियों के भेषों में घूम-घूम कर गुप्त प्रचार करने लगे…

विशेषत: सेना में इनका महत्व अधिक था, क्योंकि हर टुकड़ी में एक पंडित और मुल्ला रखना अनिवार्य था। स्वतंत्रता के बिना धर्मरक्षण असंभव है, यह मर्म जानकर हज़ारों धर्मगुरु इस राजनीतिक जिहाद का आह्वान करने लगे।”

सावरकर ने संदर्भ-सूची दी हैं, लेकिन हर पैरा में फुटनोट नहीं है, इसलिए इसे पुन: संशोधित किया जा सकता है। जैसे उनका एक दावा है कि नाना साहेब पेशवा के दीवान अज़ीमुल्ला ख़ान अंग्रेजों की निगरानी करने के लिए क्रीमिया युद्ध पहुँच गए थे! 

भले ही ऐसी गुप्त योजनाओं का सत्यापन कठिन हो, लेकिन 1856 का यह वर्ष भारतीय इतिहास का ऐसा वर्ष ज़रूर था, जब सतह के नीचे जमीन गरम हो रही थी, और अंग्रेज़ों के भारी-भरकम बूट इस तपिश को महसूस नहीं कर पा रहे थे।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha

1857 की कहानी - एक (13) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-13.html


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