Monday, 10 October 2022

गांधी की दांडी यात्रा (10) यात्रा का अंतिम चरण / विजय शंकर सिंह

गांधी जी ने अपने जीवनकाल मे जो भी आंदोलन चलाया, उसे एक योजनाबद्ध रूप से, पूरी तैयारी के बाद ही शुरू किया और उसे जनता के बीच लेकर गए। वे अपने साध्य और साधन, दोनों के ही प्रति स्पष्ट थे और उन्हें लेकर गांधी किसी भ्रम में कभी नहीं पड़े। चाहे वे, आंदोलन, उनके द्वारा दक्षिण अफ्रीका के सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में किये गए प्रतिरोध रहे हों, या ट्रांसवाल की लंबी यात्रा रही हो, या भारत मे उनके द्वारा संचालित, 1920 - 22 का असहयोग आंदोलन रहा हो, या अब उनके द्वारा आयोजित नमक सत्याग्रह से जुड़ी  दांडी यात्रा हो। गांधी ने दांडी यात्रा में अपने जिन सहयात्रियों का चयन किया था, उनमें से, कोई भी महिला सहयात्री नहीं थी। ऐसा भी नहीं था कि, तब तक, महिलाएं राजनीति में सक्रियता से शामिल नहीं हो रही थीं, और न ही ऐसा था कि, गांधी जी, राजनीति में महिलाओं की सहभागिता के पक्ष में नहीं थे। बल्कि, तब तक, सरोजनी नायडू सहित अनेक महिलाएं थीं, जो कांग्रेस में सक्रिय थी, और गांधी, भी महिलाओं को राजनीतिक आंदोलनों में उनकी सहभागिता के, न केवल पक्ष में थे, बल्कि वे महिलाओं को राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिये, प्रोत्साहित भी किया करते थे। दक्षिण अफ्रीका में अपने सत्याग्रह के दौरान, गांधी जी, ने, न केवल, अपनी पत्नी, कस्तूरबा गांधी को भी, सत्याग्रह में शामिल होने के लिये प्रोत्साहित किया, बल्कि, उन्हें, दक्षिण अफ्रीका में रहने वाली भारतीय महिलाओं को राजनीतिक गतिविधियों में, भाग लेने के लिए एक अभियान चलाने के लिये, भी कहा। पर दांडी यात्रा में उन्होंने किसी भी महिला को, सहयात्री के रूप में सम्मिलित क्यों नहीं किया। अपनी किताब, गांधी, द इयर्स चेंज्ड द वर्ल्ड, में रामचन्द्र गुहा, महिलाओं को दांडी यात्रा में सहयात्री न बनाने के पीछे, गांधी को उद्धृत करते हुए, यह तर्क देते है कि गांधी, यात्रा की कठिनाई को देखते हुए, महिलाओं को, इस यात्रा में शामिल नहीं करना चाहते थे। गांधी जी ने अपनी अनुपस्थिति में साबरमती आश्रम का सारा कामकाज, आश्रम की महिलाओं के जिम्मे छोड़ रखा था। वे मीरा बेन से, नियमित पत्रों के द्वारा, साबरमती आश्रम की गतिविधियों की खैर खबर लेते रहते थे।

इस यात्रा के संबंध में एक रोचक प्रसंग, कमला देवी चट्टोपाध्याय से भी जुड़ा है। कमलादेवी एक निर्भीक और स्वतंत्रचेता महिला थी। उनके निडर व्यक्तित्व के पीछे उनकी मां और नानी की बड़ी भूमिका थी। कमलादेवी का जन्म मैंगलोर में हुआ था और वे गौड़ सारस्वत ब्राहमण समुदाय से आती थीं। उनके पिता अनंतथैया धारेश्वर ज़िला कलेक्टर थे और प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे लेकिन कमलादेवी जब बच्ची थीं तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई और उनकी आगे की परवरिश का ज़िम्मा उनकी मां ने उठाया। पति की मृत्यु और सामाजिक दबाव के चलते मां गिरजाबाई ने, कामलादेवी का विवाह, 11 साल की उम्र मे ही करवा दिया था। लेकिन क़रीब एक-डेढ़ साल बाद ही कमलादेवी के पति की मृत्यु हो गई। भले ही उनकी मां अपनी बेटी के बाल-विवाह के लिए उस समय मान गई थीं लेकिन, कमलादेवी की मां ने अपनी बेटी के लिए उन सारे रीति रिवाजों को मानने से इनकार कर दिया जो ब्राह्मण समुदाय में एक विधवा के लिए, समाज ने तय किए थे। उन्होंने, न तो, कमलादेवी का सिर मुंडवाया, न ही सफ़ेद साड़ी पहनाई और न ही किसी अकेली कोठरी में रहकर पूजा पाठ करने को मजबूर किया। गिरजाबाई ने, समाज की परवाह किए बग़ैर, न केवल कमलादेवी को स्कूल भेजा बल्कि खुलकर, उन्हे आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखाया। गिरजाबाई महिला एक्टिविस्ट पंडिता रामाबाई और रामाबाई रनाडे की समर्थक थीं और उन्होंने कमलादेवी के सामने एनी बेसेंट को एक रोल मॉडल की तरह पेश किया और कमलादेवी ने इन प्रभावशाली महिलाओं से बहुत कुछ सीखा। 

चेन्नई के क्वीन्स मेरी कॉलेज में पढ़ते समय कमलादेवी की मुलाक़ात सरोजनी नायडू के भाई, हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से हुई। हरिन्द्रनाथ अपने समय के जाने-माने कवि और नाटककार थे। 20 साल की उम्र में कमलादेवी ने हरिन्द्रनाथ से दूसरी शादी कर ली। हरिन्द्रनाथ से शादी करने पर भी, रूढ़िवादियों ने, इसकी काफी आलोचना की। क्योंकि, कमलादेवी एक विधवा थीं और जब आगे चलकर, कमलादेवी ने हरिन्द्रनाथ से तलाक़ लेने का फैसला किया तब भी, उनपर उंगलियां उठीं। लेकिन इन सब सामाजिक वर्जनाओं को नज़रअंदाज़ कर, कमलादेवी ने महिलाओं के सामने एक साहसिक उदाहरण पेश किया। 

कामला देवी ने उस समय फिल्मों में भी काम किया, जब फ़िल्मों में, महिलाओं का काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। कमलादेवी ने कन्नड़ भाषा की पहली मूक फिल्म 'मृच्छकटिका' में एक अभिनेत्री के रूप में अभिनय किया। साल, 1943 में हिन्दी फ़िल्म 'तानसेन, 'शंकर पार्वती' (साल 1943) और 'धन्ना भगत (साल 1945) में भी, इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई। लेकिन इन सबसे पहले ही वे, महात्मा गांधी से प्रभावित हो चुकी थीं। साल 1920 के शुरुआती दिनों से ही, राजनीति के प्रति, उनका रुझान हो गया था। जब महात्मा गांधी ने 1922 में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की, तब कमला देवी अपने पति के साथ लंदन में थीं। उन्होंने, लंदन से, वापस आने का फ़ैसला किया और कांग्रेस सेवा का दल में, वे शामिल हो गई। वर्ष 1926 में उनकी मुलाक़ात मार्ग्रेट कजन्स से हुयी। मार्ग्रेट कजन्स आयरलैंड की महिलावादी नेता थीं जिन्होंने, ऑल इंडिया विमेंस कॉंफ़्रेंस नामक एक संस्था का गठन किया और कमलादेवी इस संस्था की पहली महासचिव बनी। 

मार्ग्रेट कजन्स के प्रोत्साहन से कमलादेवी ने जल्द ही एक और बड़ा कदम उठाया जो उन्हें भारतीय राजनीति में एक अनूठा स्थान देता है। मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में पहली बार महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला था और महिलाओं के इस हक़ को दिलाने में मार्ग्रेट कजन्स की एक बड़ी भूमिका मानी जाती हैं। महिलाओं को मत देने का अधिकार तो मिल गया था लेकिन प्रांतीय विधानसभा के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार महिलाओं को नहीं प्राप्त था। साल 1926 में तत्कालीन, मद्रास प्रोविंशियल विधानसभा (आज के विधानसभा के समकक्ष) के लिए चुनाव हुए और चुनाव से ठीक पहले महिलाओं को चुनाव लड़ने की अनुमति दी गई। मार्ग्रेट कजन्स के प्रोत्साहन के बाद कमलादेवी ने, मद्रास प्रोविंशियल विधानसभा का चुनाव लड़ा। लेखिका रीना नंदा अपनी किताब, 'कमलादेवी चट्टोपाध्याय- ए बॉयोग्राफी' में लिखती हैं कि "इस चुनाव में प्रचार के लिए काफ़ी कम समय बचा था. कमलादेवी अभी तक वोटर के तौर पर पंजीकृत नहीं थीं. आनन-फानन में चुनाव की तैयारी की गई. कजन्स ने महिला कार्यकर्ताओं का समूह बनाया और धुंआधार प्रचार करना शुरू कर दिया. इसमें कमलादेवी के पति हरिंद्रनाथ ने नाटकों और देशभक्ति के गीत प्रचार के दौरान गा कर उनका प्रचार किया। आख़िरी मौके पर चुनाव मैदान में उतरी कमलादेवी बहुत कम मतों से हार गईं लेकिन अपने इस क़दम के साथ ही चुनाव लड़ने वाली पहली महिला बनीं।" कमलादेवी के इस क़दम से राजनीतिक पदों का दरवाज़ा महिलाओं के लिए खुल गया। 

कामला देवी देवी को, यह ज्ञात हुआ कि, "महात्मा गांधी दांडी यात्रा आयोजित करने जा रहे हैं और इसी के ज़रिए 'नमक सत्याग्रह' की शुरुआत वे करेंगे। जिसके बाद देश भर में समुद्र किनारे, जगह जगह नमक बनाया जाएगा। लेकिन इस आंदोलन से महिलाएं दूर रहेंगी।" गांधी  ने आंदोलन में महिलाओं की भूमिका, चरखा चलाने और शराब की दुकानों की घेराबंदी/पिकेटिंग करने के लिए तय की थी, लेकिन कमालदेवी को, नमक सत्याग्रह से महिलाओं को दूर रखने की बात खटक रही थी। अपनी आत्मकथा 'इनर रिसेस, आउटर स्पेसेस' में कमलादेवी ने इस बात की चर्चा की है। वो लिखती हैं "मुझे लगा कि महिलाओं की भागीदारी 'नमक सत्याग्रह' में होनी ही चाहिए और मैंने इस संबंध में सीधे महात्मा गांधी से ही बात करने का फ़ैसला किया।"

पहले तो महात्मा गांधी ने उन्हें मनाने की कोशिश की, लेकिन कमलादेवी के तर्क सुनने के बाद महात्मा गांधी ने 'नमक सत्याग्रह' में महिला और पुरुषों की बराबर की भागीदारी पर हामी भर दी। महात्मा गांधी का यह एक ऐतिहासिक फैसला था। इस फ़ैसले के बाद महात्मा गांधी ने, 'नमक सत्याग्रह' का नेतृत्व करने के लिए सात सदस्यों की एक टीम गठित की, जिसमे, कमलादेवी और अवंतिकाबाई गोखले शामिल की गई। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और महिलाओं के लिए काम करने वाली, एक ग़ैर सरकारी संस्था की संस्थापक, रुचिरा गुप्ता का कहना है, "इस क़दम से आज़ादी के आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी। पूरी दुनिया ने देखा कि महिलाओं ने कंधे से कंधा मिलाकर नमक क़ानून तोड़ा। इससे, महिलाओं ने, कांग्रेस पार्टी, राजनीति और आज़ादी के लिए हो रहे आंदोलन में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। 

कमलादेवी चट्टोपाध्याय से गांधीजी कहा, "अगर अधीर माताएं थोड़ी धैर्यवान होंगी तो उन्हें स्वतंत्रता के इस राष्ट्रीय संघर्ष में उनके उत्साह और बलिदान के लिए पर्याप्त गुंजाइश मिलेगी।" कमला देवी ने, गांधी जी से पूछा कि, "बच्चों वाली महिलाओं को क्या करना चाहिए।"  इस प्रश्न पर गांधी ने, कहा कि, वह न तो चाहते हैं और न ही उम्मीद करते हैं कि महिलाएं अपने बच्चों की उपेक्षा करें।  उन्हें अपने समय की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है, और इस प्रकार कुछ मायनों में वे उपयोगी हो सकती हैं।  हालाँकि, जो महिलाएं बच्चों की अच्छी देखभाल के लिए कुछ संतोषजनक व्यवस्था कर सकती हैं, उन्हें संघर्ष में शामिल होना चाहिए।"

मार्च 29,1930 को गांधी, भटगाम पहुंचे और, वहां उन्होंने एक जनसभा को सम्बोधित किया। दांडी यात्रा की यह अंतिम बड़ी जनसभा थी। इसके बाद, गांधी जी ने किसी बड़ी जनसभा को, संबोधित नहीं किया पर नुक्कड़ सभाएं वे अपने यात्रा मार्ग में पड़ने वाले गांवों, कस्बों में, करते हुए सागर तट की ओर बढ़ते रहे। भटगाम में वे जनता को संबोधित करते हुए कह रहे हैं, 
"मुझे एक उपदेश देने के लिए कहा गया है। कहा जा रहा है, जो काम मैं (पैदल यात्रा) कर रहा हूँ, उसके लिये,  मेरे पास बहुत कम फिटनेस है।  लेकिन आज रात मैं एक स्वीकारोक्ति करने और एक अंदर की बात, आपको बताने जा रहा हूँ, आप चाहें तो इस आत्मनिरीक्षण को, मेरा प्रवचन भी कह सकते हैं। सामान्य तौर पर मैं भारत से, और विशेष रूप से आप, मेरे स्वभाव के, एक हिस्से से परिचित हैं। इसके अलावा, गुजरात के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में, इस जिले में जो कार्यकर्ता हैं, वे मेरे सबसे अधिक, करीबी संपर्क में आए हुए लोग हैं।  वे मेरी इस आदत को, अपने निजी अनुभव से, अच्छी तरह से जानते हैं। मैं सीधी बात कहता हूँ।  सरकार के पहाड़ जैसे बड़े, दोषों का उचित भाषा में, आप के समक्ष रखने में, मुझे कोई संकोच नहीं है। और मैं बार-बार यह कहने में भी नहीं हिचकिचाता कि, हमें, अपने अंदर के पहाड़ जैसे ऊँचे दोष भी, तुच्छ लगते हैं। आप जानते हैं, सामान्य नियम यह है कि, हम अपनी बड़ी खामियों को, छोटी-छोटी बातों के रूप में देखने के आदी हो जाते हैं, और जब हम अपने दोषों को, कभी भी, कुछ हद तक महसूस करने लगते हैं तो हम, तुरंत उन्हें, परमेश्वर के चौड़े कंधों पर डाल देते हैं और कहते हैं कि यह सब ईश्वर का किया धरा है और वही, उनका, ध्यान रखेगा;  और फिर दैवी सुरक्षा के आश्वासन कि, सब कुछ ईश्वर ठीक कर देगा, की चादर ओढ़ कर, हम, गलती पर गलती करते रहते हैं। लेकिन जैसा कि आप जानते हैं कि, मैंने वर्षों से इस नियम की अवहेलना की है।  इसलिए, मैंने अपने, कई दोस्तों की भावनाओं को आहत किया है और उनमें से कुछ को खो भी दिया है। आज रात मुझे एक दर्दनाक ऑपरेशन दोहराना है। मेरे साथ, चलने वाले लोगों के समूह को, मैंने पहले ही बता दिया है कि, यह हमारी यात्रा का अंतिम सप्ताह है।  जैसे ही हम, अगले शनिवार को अपने गंतव्य पर पहुंचेंगे, हमें आगे और यात्रा नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन हमें एक और कार्य करना पड़ेगा।  इस अंतिम सप्ताह के दौरान हमें सूरत जिले से गुजरना होगा।"

अपने यात्रा के दौरान, इस अंतिम जनसभा में वे कह रहे हैं, 
"आज सुबह ही, प्रार्थना के समय, मैं अपने साथियों से कह रहा था कि, जिस जिले में हमें सविनय अवज्ञा करनी थी, उसमें प्रवेश करते ही हमें अधिक शुद्धिकरण और गहन समर्पण के भाव पर जोर देना चाहिए।  मैंने उन्हें चेतावनी दी थी कि, चूंकि यह जिला (सूरत) अधिक संगठित है और इसमें, हमारे कई महत्वपूर्ण सहकर्मी भी हैं, इसलिए, इसकी पूरी संभावना है कि, सूरत में, हमारा आदर सत्कार बड़े ही, लाड़-प्यार से होगा।  मैंने उन्हें (अपने सहयात्रियों को) उनके (सूरत के निवासियों के) लाड़-प्यार के आगे,  झुक जाने के खिलाफ चेतावनी दी है।  हम देवदूत नहीं हैं। हम बहुत कमजोर लोग हैं, आसानी से लोभ लालच से घिर जाते हैं। हममें बहुत सी कमियां हैं। ईश्वर महान है। आज भी कुछ लोग ढूंढ लिये गए, जो लालच में आ गए थे। जब मैं, दांडी यात्रियों की, गलतियों पर विचार कर रहा था, तब एक, सहयात्री ने, स्वयं ही अपनी गलती स्वीकार की। मुझे लगा कि, मेरी चेतावनी बहुत जल्दबाज़ी में नहीं दी गई थी। कुछ स्थानीय कामगारों ने सूरत से एक मोटर लॉरी में दूध लाने का आदेश दिया था  और उन्होंने अन्य खर्चे भी, हमारे लिये मांग लिए थे, जिन्हें मैं उचित नहीं ठहरा सकता था। इसलिए मैंने, उनके बारे में, आप से, दृढ़ता से बात की है।  लेकिन इससे मेरा दुख कम नहीं हुआ बल्कि, उनके द्वारा किए गए पापों के बारे में सोचने से, मेरी चिंता बढ़ती ही गयी।" 

गांधी, लक्ष्य की पवित्रता के साथ साथ साधनों की पवित्रता की भी बात करते थे। वे नैतिकता और सार्वजनिक जीवन मे शुचिता के हिमायती थे। अपने सहयात्रियों में से एक के बारे में, उन्हें जो सूचना मिली, उससे वे व्यथित हो गए। उसी का उल्लेख उन्होंने अपने भाषण में किया है। वे अपना भाषण जारी रखते हैं, 
"इन सब बातों के जानने के बाद, मुझे वायसराय को वह पत्र लिखने का क्या अधिकार था जिसमें मैंने, उनके वेतन की (जो अत्यधिक है) कड़ी आलोचना की है, जो हमारी औसत आय से 5,000 गुना अधिक है?  वे (वाइसरॉय) संभवतः उस वेतन के साथ, कैसे न्याय कर सकते हैं?  और हम कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि, उन्हें हमारी आय के अनुपात में, बहुत ही अधिक, वेतन मिल रहा है?  लेकिन इसके लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उन्हें इस (इतने अधिक वेतन) की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान ने उन्हें (वाइसरॉय को) एक अमीर आदमी बनाया है। मैंने अपने पत्र (जो मैंने वाइसरॉय को लिखा था) में उन्हें लिखा, आप को अपना पूरा वेतन, दान में खर्च कर देना चाहिये। मुझे पता है कि, मेरा परामर्श, काफी हद तक सच होने की संभावना नही है।  फिर भी, निश्चित रूप से, मुझे (वाइसरॉय को) इतना बड़ा वेतन, सरकार द्वारा दिये जाने का विरोध करना चाहिए।  मैं (उनका) वेतन, (रुपये) तय नहीं कर सकता। 21,000 रुपये, प्रति माह, शायद नहीं।  प्रति माह 2,100 ? लेकिन मैं ऐसा, कब कर सकता था?  निश्चित रूप से तब, जब मैं खुद, अपने लोगों से एक बेहूदा टोल (गांधी, जनता से, जबरन पैसे और सुविधा लेने की बात का उल्लेख कर रहे थे) ले रहा हूं। मैं इसका विरोध तभी कर सकता हूं, जब मैंने, जीवन में, लोगों की औसत आय के बारे में कुछ काम किया हो। हम, ईश्वर, के नाम पर चल रहे हैं।  हम भूखे, नंगे और बेरोजगारों की तरफ से, काम करने का दावा करते हैं। मुझे वायसराय के वेतन की आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है, यदि हम देश के नागरिकों की औसत आय सात पैसे का, पचास गुना, खुद पर, खर्च कर रहे हैं तो। और जिस तरह से चीजें चल रही हैं, मुझे (उनपर) आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर हम में से प्रत्येक का खर्च, (आम जनता की) औसत आय, सात पैसे से, पचास गुणा अधिक के बराबर है। यदि कोई मेरे लिए, किसी भी प्रकार से, सबसे अच्छे संतरे और अंगूर लाएं, तो वे 120 फल लाएंगे, जबकि मुझे केवल, 12 संतरे ही चाहिए। अगर मुझे एक पाउंड दूध की आवश्यकता होगी, तो वे, मेरे लिए, तीन पाउंड दूध की व्यवस्था करेंगे। इसका क्या परिणाम हो सकता है, यदि हम आपके द्वारा, अपने सामने परोसे जाने वाले सभी व्यंजनों को, इस बहाने से ले लें कि, अगर हम उन्हें नहीं ग्रहण करेंगे तो, क्या हम, उनकी भावनाओं को आहत करेंगे ? आप हमें, अमरूद और अंगूर देते हैं और, हम उन्हें खाते हैं क्योंकि वे एक रियासत के किसान की ओर से, हमें दिए गए, मुफ्त उपहार हैं। फिर कल्पना कीजिए कि, मैं एक फाउंटेन पेन के साथ, किसी महंगे ग्लेज़ेड पेपर पर वाइसरॉय को, एक पत्र लिख रहा हूं, जो, (फाउंटेनपेन और ग्लेज़्ड पेपर) मुझे, किसी मित्र से, उपहार में मिला है तो, क्या इस (उपहार में मिले फाउंटेनपेन और ग्लेज़्ड पेपर) पर, वाइसरॉय को, मेरा पत्र लिखना, आपको और मुझे शोभा देगा? क्या इस प्रकार लिखा गया पत्र, (वाइसरॉय पर) जरा सा भी प्रभाव उत्पन्न कर सकता है?"

उपरोक्त उदाहरण, देने के बाद, गांधी आखो भगत के अमर श्लोक का उल्लेख करते हुए आगे कहते हैं, 
"इस प्रकार जीने के लिए, आखो भगत के अमर श्लोक का वर्णन करते हुए कहूंगा, जिसके अनुसार,  "चुरा कर, किया गया भोजन, अशोधित पारा खाने जैसा है"।  और एक गरीब देश के लिए, उपयुक्त साधनों से ऊपर रहना, चुराए हुए, भोजन पर जीना है। चोरी के भोजन पर, रहकर यह लड़ाई कभी नहीं जीती जा सकती है। न ही मैंने अपने साधनों से,  ऊपर रहने के लिए, इस यात्रा पर, निकलने के लिए कोई सौदेबाजी की है।  हम उम्मीद करते हैं कि, हजारों स्वयंसेवक हमारी पुकार का जवाब देंगे। उन्हें असाधारण शर्तों पर रखना असंभव होगा। मेरा जीवन अब इतना व्यस्त हो गया है कि, मुझे अपने अस्सी साथियों के साथ भी, निकट संपर्क में रहने का समय नहीं मिलता है, जिससे,  मैं उन्हें अलग-अलग (ढंग से) पहचान सकूँ। इसलिए मेरे पास अपनी आत्मा को सार्वजनिक रूप से आप के सामने, रख देने के अतिरिक्त, अन्य कोई रास्ता नहीं है। मुझे उम्मीद है कि, आप मेरे संदेश में निहित, केंद्रीय बिंदु को समझेंगे। यदि आपने, ऐसा नहीं किया, तो वर्तमान प्रयास से स्वराज की कोई आशा नहीं है। हमें लाखों गूंगे लोगों का, सच्चा ट्रस्टी बनना चाहिए। मैंने अपनी कमजोरियों को, जनता के सामने उजागर कर दिया है। मैंने अभी तक आपको सभी बातें नहीं बताई हैं, लेकिन मैंने आपको, इतना बता दिया है कि, आप वायसराय को पत्र लिखने के लिए, हमारी अयोग्यता का भी एहसास कर सकें।"

वे आगे कहते हैं, 
"अब स्थानीय मज़दूर, मेरी चिंता समझ सकते हैं। कमज़ोर, अकसर लोभ और लालच की ओर आकर्षित हो जाते हैं। लेकिन आप हमें लोभ और लालच से लुभाते क्यों है। यह सब, मेरे मन में चल रहे, विचारों का  एक नमूना है। मेरा उद्देश्य है तुम्हें, इस यातना से जगाना। स्वयंसेवकों को खर्च किए गए हर पैसे का हिसाब दें।  मैं सरकार के खिलाफ, किए गए सत्याग्रह  की तुलना में, अपने खिलाफ किए गए सत्याग्रह करने में अधिक सक्षम हूं।  मुझे सरकार के खिलाफ नागरिक प्रतिरोध शुरू करने में कई साल लग गए हैं।  लेकिन मुझे, खुद के खिलाफ सत्याग्रह करने के लिए, उतने दिन नहीं लगाने चाहिए थे। वर्तमान सत्याग्रह में जो, जोखिम उठाना पड़ रहा है, उसकी तुलना में होने वाला, यह जोखिम कुछ भी नहीं है। इसलिए हम जैसे सेवकों के प्रति आपके आतिथ्य में, मैं चाहता हूं कि, आप उदार होने के बजाय कंजूस बनें।  मैं चीजों की, अपरिहार्य कमी की शिकायत नहीं करूंगा। मेरे लिए बकरी का दूध लाने के लिए तुम, गरीब महिलाओं को, उनके बच्चों के दूध से वंचित नहीं कर सकते। अगर तुमने ऐसा किया तो यह (मेरे लिये) जहर जैसा होगा और न ही सूरत से दूध और सब्जियां (हमारे लिये) लाई जा सकती हैं। यदि आवश्यक हो तो, हम उनके बिना भी अपना काम चला सकते हैं। जरा भी, किसी बहाने से, मोटर कारों का सहारा न लें।  नियम यह है कि अगर आप चल सकते हैं तो, सवारी न करें।  यह लड़ाई पैसों से नहीं लड़ी जानी है।  पैसे से जन आंदोलन चलाना असंभव होगा। वैसे भी पैसे के भव्य प्रदर्शन के साथ (सत्याग्रह) अभियान का संचालन करना मेरी सोच और समझ से परे है।"

अब वे अपने अभियान के बारे में अपनी बात कहते हैं, 
"इस अभियान में अतिशयोक्ति का कोई स्थान नहीं है। यदि हम, तब तक भीड़ इकट्ठा नहीं कर सकते, जब तक कि हम, एक तूफानी और महंगा प्रचार नहीं करते। मुझे आधा दर्जन पुरुषों और महिलाओं को संबोधित करने में, अधिक खुशी होगी। (क्योंकि वे बिना प्रचार के मुझे सुनने आए हैं) यह कहा जाएगा कि,  ऐसी स्थिति में समाचार पत्रों में (यात्रा की) रिपोर्ट नहीं आएगी। मैं आपको एक बात, और हमेशा के लिए भी, यह बताना चाहता हूं कि, यह अभियान अखबारों की रिपोर्टों के माध्यम से नहीं, बल्कि श्रीराम की सहायता से सफल होगा।  और, जब हम उसके (ईश्वर के) निकट होते हैं तो किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है; न तो कलम और स्याही की, और न ही, इस तरह के किसी अन्य सामान की आवश्यकता है, और न ही भाषण की भी।  किसी का कोई अंग, खो जाने पर भी, उससे अपील की जा सकती है। हम किसी को कम नहीं समझ सकते।  मैंने देखा कि आपने रात की यात्रा के लिए एक भारी मिट्टी के तेल का बर्नर एक स्टूल पर रखा था जिसे एक गरीब मजदूर अपने सिर ढो रहा था। यह एक अपमानजनक दृश्य था।  इस आदमी को तेज चलने के लिए उकसाया जा रहा था। मैं उस दृश्य को सहन नहीं कर सका। इसलिए मैंने अपनी (अपने चलने की) गति तेज कर दी और पूरी कंपनी को पछाड़ दिया। लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हुआ। वह आदमी मेरे पीछे दौड़ने के लिए लाया गया था। उसका अपमान पूरा हो गया था। अगर वजन ढोना होता तो मुझे, हम में से, आपस में किसी को, ढोते हुए देखना अच्छा लगता।  फिर हम जल्द ही मज़दूर और बर्नर दोनों को हटा देंगे। कोई भी मजदूर अपने सिर पर इतना बोझ नहीं उठाएगा।  हम बेगार (जबरन मजदूरी) पर आपत्ति जताते हैं।  लेकिन यह बेगार न होता तो क्या होता?  याद रखें कि स्वराज में हम अपेक्षा करते हैं कि तथाकथित निम्न वर्ग की उपेक्षा न की जाए।  यदि हम शीघ्रता से अपने मार्ग नहीं बदलते हैं, तो आप और मैं, लोगों के सामने कोई स्वराज का स्वरूप नहीं रख सकते हैं।"

गांधी कहना जारी रखते हैं, 
"मेरे इस भाषण से, आप यह अनुमान नहीं लगा सकते कि मैं, संघर्ष जारी रखने के अपने संकल्प में कमजोर हो जाऊँगा। यह जारी रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि, सहकर्मी या अन्य कैसे कार्य करते हैं। मेरे लिए किसी भी तरह से, पीछे मुड़ना नहीं है, चाहे मैं अकेला होऊं, या हजारों मेरे साथ शामिल हों। मैं कुत्ते की मौत मरना और कुत्तों द्वारा अपनी हड्डियों को चाट जाना पसंद करूंगा, बजाय इसके कि मैं (अपने) आश्रम में से, एक टूटे हुए आदमी को वापस कर दूं। मैं स्वीकार करता हूं कि आपने अपने प्रेम की प्रचुरता से जो धन दिया है, उसका मैंने ठीक से उपयोग नहीं किया है।
 (यंग इंडिया, 3-4-1930)

गांधी का भटगाम में दिया गया यह भाषण, उनके इस यात्रा के पहले पड़ाव में दिए गए भाषणों से अलग था। यहां, न तो उन्होंने, स्वयंसेवकों के नामांकन की बात की, और न ही, उन्होंने यहां, सरकार के असहयोग के रूप में, मुखियाओं और सरकारी सेवकों के, इस्तीफों की मांग की। यहां उन्होंने एक सत्याग्रह करने वाले व्यक्ति के नैतिक मूल्यों की चर्चा की। उन्होंने, एक सत्याग्रही से अपरिग्रह की अपेक्षा की, वाइसरॉय के वेतन और एक आम भारतीय नागरिक की आय के बीच जो अश्लील और घोर असमानता है, उसकी बात की, साथ चलने वाले मज़दूर, जो रात में रास्ते को रोशन करने के लिये, सिर पर गैस बत्ती का बोझ लेकर चल रहे थे, उस व्यथा की बात की, खुद को असामान्य समझने वाले ग्रामीण नागरिकों की बात की और अपने संकल्प की बात की, कि, मैं अकेला रहूंगा, तब भी यह अभियान जारी रखूंगा। गांधी के चरित्र की, यह सारी विशेषताएं ही, उन्हें सबसे अलग और विशिष्ट बनाती हैं। 

यात्रा के अगले चरण में, गांधी और उनके सत्याग्रही साथी, 1 अप्रैल को, सूरत पहुंचे, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। गांधी ने नमक कर को पशुवत, अमानवीय और एक शैतानी कानून कहा। 'मैंने दुनिया में कहीं भी ऐसे न्याय के बारे में नहीं सुना है जहां यह प्रचलित है ... ऐसे न्याय को देने वाले साम्राज्य को नमन करना धर्म नहीं बल्कि अधर्म है।  एक व्यक्ति जो हर सुबह भोर में भगवान से प्रार्थना करता है, उसे ऐसे साम्राज्य की भलाई के लिए प्रार्थना नहीं करनी चाहिए।  इसके विपरीत प्रार्थना करते, या पढ़ते समय उसे ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि, वह इस तरह के शैतानी साम्राज्य, ऐसी अमानवीय सरकार को नष्ट कर दे। ऐसा करना ही धर्म है।' 3 अप्रैल 1930 को यंग इंडिया के अंक में राष्ट्र के नाम एक संदेश में, गांधी जी ने लोगों को '5 अप्रैल को याद रखने और नमक कानूनों के बारे में सामूहिक सविनय अवज्ञा शुरू करने का आह्वान किया।  उन्होंने उन्हें अहिंसा शब्द का पूर्ण अर्थ में पालन करने की सलाह दी।  यह स्वतःस्फूर्त कार्रवाई होनी थी। कार्यकर्ताओं को प्रारंभिक चरणों में केवल जनता का मार्गदर्शन करने की आवश्यकता थी। बाद में, जनता स्वयं आंदोलन को नियंत्रित करने लगेगी।

इस संबंध में कांग्रेस ने अपने कार्यकर्ताओं को, यह निर्देश जारी किया कि, जहां भी जरूरत होगी कांग्रेस के स्वयंसेवक सहायता प्रदान करेंगे। उनसे सबसे आगे रहने की उम्मीद की जाएगी। उन्हें सलाह दी गई कि वे किसी भी सांप्रदायिक झगड़े में, कोई भी पक्ष न बनें। जहां कहीं भी हिंसक विस्फोट हुआ, वहां हिंसा को दबाने के प्रयास में स्वयंसेवकों के मरने की आशंका थी।  जिन लोगों को सविनय अवज्ञा में शामिल होना था, वे खुद पर नियंत्रण रखें और दूसरों को, इस राष्ट्रीय सेवा में शामिल होने के लिए प्रेरित करने के साथ साथ, खादी के काम, शराब और अफीम की दुकानों के खिलाफ पिकेटिंग, विदेशी कपड़े की दुकानों का बहिष्कार, गाँव की सफाई, नागरिक प्रतिरोध में गिरफ्तार कैदियों के परिवारों की सहायता करने के निर्देश गांधी जी की सहमति के बाद, जारी किये गए। 

गांधी जी को, यह भी उम्मीद की थी कि, यदि नमक कर के संबंध में, नागरिक प्रतिरोध के बारे में यदि वास्तव में कोई प्रतिक्रिया होती है तो, लोगों को उचित संगठन द्वारा, खादी के माध्यम से विदेशी कपड़े का बहिष्कार करना चाहिए और पूर्ण शराबबंदी को सुनिश्चित करना चाहिए।इस कदमों का परिणाम यह होगा कि, प्रति वर्ष 91 करोड़ रुपये की बचत होगी और लाखों बेरोजगारों के लिए पूरक कार्य उपलब्ध हो जाएंगे। 'अगर हम इन उद्देश्यों को पूरा कर लेते हैं, तो हम, आजादी से दूर नहीं हो सकते, और इनमें से एक भी चीज ऐसी नहीं है जो, हमारी क्षमता से बाहर हो। इस प्रकार प्रत्येक गाँव में, जहाँ यात्रा पार्टी रुकी, गांधी ने गाँव वालों से कहा कि एक बड़ी परीक्षा आने वाली है।  उन्होंने अपनी राजनीतिक अपील को ग्रामीण जीवन से संबंधित, खादी, गौ-रक्षा, स्वच्छता और अस्पृश्यता जैसे उपदेशों से भर दिया।  उनकी अपील पैसे के लिए नहीं बल्कि दृष्टिकोण बदलने के लिए थी। उन्होंने गांव के अधिकारियों से अपने पदों से इस्तीफा देने का आह्वान किया, जिससे शोषक शासन को बल मिलता था।  यात्रा के दौरान, उन्होंने प्रेस साक्षात्कार देना और नवजीवन और यंग इंडिया को लिखना, स्वराज का अपना संदेश फैलाना और आने वाले दिनों में अभियान के संचालन के लिए निर्देश देना भी जारी रखा था।
.... क्रमशः

(विजय शंकर सिंह)



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