(चित्र: लॉर्ड वेलेजली के बनाए महल का चित्र (1819), जो अब कलकत्ता का राजभवन है। इस भव्य महल को निहारते गरीब नागरिक एक लुटे हुए देश की स्थिति को दर्शा रहे हैं)
“यह आदमी डाकू है, चोर है, हैवान है। अपराध में पारंगत यह व्यक्ति भ्रष्टाचार की कीचड़ में डूबा हुआ सूअर है। जब गरीब और लाचार कराह रहे होते हैं, यह निर्दयी हुंकार भरता है। इस एक व्यक्ति के अंदर पूरे हिंदुस्तान पर किये गये अत्याचार सिमटे हुए हैं….याद रखें! जब तुर्क चीन या हिंदुस्तान में घुसे तो एक राष्ट्र की तरह गए। गॉथ का यूरोप पर आक्रमण या नॉर्मन का इंग्लैंड जीतना उनके राष्ट्र की विजय थी। लेकिन, सज्जनों! ईस्ट इंडिया कंपनी का अर्थ ब्रिटेन राष्ट्र नहीं है!”
- एडमंड बर्क द्वारा वारेन हेस्टिंग्स पर लगाए अभियोग वक्तव्य से (13 फरवरी, 1788)
कई बार भारतीय इतिहास का अर्थ हम भारत तक सीमित रखते हैं। हम सोचते हैं कि भला रोम, रूस या फ्रांस से हमें क्या लेना-देना? लेकिन, जिस तरह आज अमरीका चुनाव पर पूरी दुनिया की नज़र होती है, इतिहास में भी नेपोलियन की जीत या हार का असर भारत पर पड़ता था। सिराज-उद-दौला हों या टीपू सुल्तान, ये युद्ध कंपनी बनाम बंगाल या मैसूर तक सीमित नहीं, बल्कि इंग्लैंड बनाम फ्रांस युद्ध का भी विस्तार था।
1857 को समझने के लिए हमें एक वैश्विक विहंगम-दृष्टि (Bird’s eye view) रखनी होगी। जो रूसी साम्यवाद का इतिहास पढ़ चुके हैं, वह इस बात पर नहीं चौकेंगे कि भला कार्ल मार्क्स को क्या पड़ी थी। जब उन्होंने कभी भारत नहीं देखा तो न्यूयार्क टाइम्ज़ में 1857 के संग्राम पर लगातार लेख क्यों लिख रहे थे?
ईस्ट इंडिया कंपनी एक पूँजीवादी व्यवसायिक कंपनी थी, जो नफ़ा-नुकसान से चलती थी। भले आज के अमेजन, वालमार्ट आदि से उसकी तुलना नहीं हो सकती, लेकिन सैद्धांतिक रूप से मॉडल मिलता-जुलता था। वह दो राजशाहियों के मध्य संबंधों, स्थानीय प्रशासन से साँठ-गाँठ, और सैन्य-सहयोग से अपनी पकड़ बना रही थी। आज वैसे ही सिद्धांत डिप्लोमैटिक रिलेशन, क्रोनी कैपिटलिज्म, या आर्म्स डील कहलाते हैं।
लेकिन, अमेजन या माइक्रोसॉफ़्ट अगर भारत जैसे देशों से कमा कर अमरीकी राष्ट्र से भी ताकतवर हो जाएँ तो? अगर उनकी निजी सेना में इतने फौजी हों, जितने किसी देश में होते हों? अगर उनके शेयर का महत्व अमरीकी डॉलर से कहीं अधिक हो? अगर न्यूयॉर्क से लेकर भारत की सड़कें उनके जेब से ही बनने लगे? अगर वे अमरीकी संविधान और वित्तीय कानूनों की अनसुनी कर अपनी मनमानी करने लगें? अगर वे स्वयं को न सिर्फ़ आधे अमरीका बल्कि भारत का भी शासक समझने लगें? राष्ट्रपति वे चुनें, दलों को चंदा वही दें, नेता उनके हों, सभी पॉलिसी उनके बनाए हों?
आज वाम रूझान के अखबारों से लेकर दक्षिणपंथी पत्रिका पांचजण्य तक अमेजन इंडिया को ‘ईस्ट इंडिया कंपनी 2.0’ कहने लगी है, तो ऐसी संभावना पर मंथन हो सकता है। अगर आज की दुनिया में सरकारों के पास बेहतर विकल्प नहीं, तो उस समय की छोटी-छोटी रियासतों के पास क्या ही रहा होगा!
वारेन हेस्टिंग्स पर लगाए गए अधिकांश आरोप ख़ारिज कर दिए गए। ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश संसद तो क्या कई भारतीय रियासत भी खुश थे। ब्रिटेन में प्रशासन का चौथाई खर्च और भारतीय रियासतों के अधिकांश प्रशासनिक और रक्षा-संबंधी खर्च कंपनी वहन करती थी। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि उसके पास इतना धन आता कहाँ से था।
जब बंगाल, निजाम और मैसूर से लेकर दिल्ली तक कंपनी का शिकंजा कसने लगा, तो लॉर्ड वेलेजली भारत के अघोषित सम्राट बन गए। उन्होंने मुगल बादशाहों की तर्ज़ पर अपना एक राजसी महल बनवाना शुरू कर दिया। 1803 में ब्रिटिश संसद में कहा गया,
“वेलेजली के नेतृत्व में भारतीय सरकार (Govt Of India) तानाशाही में तब्दील हो गयी है”
इससे पहले कि पानी सर के ऊपर चढ़ जाए, वेलेजली को वापस लंदन बुला लिया गया। कंपनी का भारत से व्यापार पर एकाधिकार खत्म कर दिया गया, और अन्य विदेशी कंपनियाँ कलकत्ता पहुँचने लगी। 1833 में ईस्ट इंडिया कंपनी से व्यापार का अधिकार ही छीन लिया गया। वह एक प्रशासनिक ईकाई बन कर रह गयी। लॉर्ड विलियम बैंटिक सिर्फ़ बंगाल के नहीं, बल्कि ‘इंडिया’ के पहले गवर्नर जनरल बन कर आए।
मगर दुनिया की यह विशालतम कंपनी कोई ‘कोका-कोला’ तो थी नहीं कि आदेश मिला और फ़ैक्ट्री बंद कर निकल जाए। यह गोला-बारूद और प्रशिक्षित फौज की नींव पर बनी कंपनी थी, जिसने इंग्लैंड को कई जीतें दिलायी थी। भारत जैसे देश का बेशक़ीमती ताज़ दिलाया था।
अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर ताला लगाने से पहले ‘कंपनी बहादुर’ के हाथों ब्रिटिश इतिहास का सबसे भीषण, विस्तृत और क्रूर रक्तपात होना बाकी था।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
Praveen Jha
1857 की कहानी - एक (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-1.html
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