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“यहाँ पूरे देश में कुछ विचित्र चीजें घट रही है। यह कहाँ से और कब शुरू हुआ, कोई नहीं जानता। अखबारों में तरह-तरह की कहानियाँ हैं। इसे चपाती आंदोलन कहा जा रहा है”
- डॉ. गिल्बर्ट हैडो द्वारा अपनी बहन को लिखी चिट्ठी, मार्च 1857
मथुरा की एक सुबह, मार्च का महीना, 1857
मजिस्ट्रेट मार्क थोनहिल जब अपने कार्यालय पहुँचे तो आटे की पाँच मोटी चपातियाँ मेज पर रखी मिली। उन्होंने जब तलब की तो पता लगा कि पास के जंगल से रात को कोई व्यक्ति चौकीदार को दे गया और कहा, “ऐसी ही पाँच चपातियाँ बना कर पड़ोस के पाँच गाँव के चौकीदार को दे आना। उनसे कहना कि तुम्हें पाँच चपातियाँ बना कर आगे भेजनी है।”
आगरा के कमिश्नर ने रिपोर्ट लिखी कि ये चपातियाँ एक रात में दो सौ मील का सफ़र कर रही हैं। कलकत्ता से चली चपाती की शृंखला अंबाला तक पहुँच रही है।
एक ब्रिटिश अधिकारी ने कहा, “जितनी देर में हमारी ब्रिटिश डाक नहीं पहुँचती, उससे तेज तो चपातियाँ पहुँच रही हैं”
आश्चर्य यह था कि किसी चौकीदार को यह नहीं मालूम था कि इस चपाती का महत्व क्या है? यह घूम क्यों रही है? सभी किसी अंधविश्वास की तरह चपाती बना कर भेजे जा रहे थे। कोई कह रहा था कि शहर में हैजा फैला है, इसलिए ताज़ा चपातियाँ पहुँचायी जा रही हैं। कोई कह रहा था कि चपाती में गुप्त संदेश है, जो किसी को नज़र नहीं आ रहा। कोई कह रहा था कि चपाती क़बूल करने का अर्थ था कि वह क्रांति में साथ देंगे। हर प्रांत के अपने तर्क थे। कोई बाबू कुंवर सिंह का नाम ले रहा था, कोई नाना साहब का, कि उन्होंने भिजवाए हैं।
एक विवरण के अनुसार ग्वालियर की राजमाता बैजाबाई और नाना साहब ने मिल कर एक ‘सर्वतोभद्र यज्ञ’ किया। इस यज्ञ के गुरु दास्सा बाबा ने मखाना पीस कर आटे में मिला दिया और कहा, “जहाँ जहाँ इसकी बनी चपाती पहुँचेगी, वहाँ से अंग्रेजों का राज खत्म होगा”। जैसे अश्वमेध की तरह चपातीमेध यज्ञ हो रहा हो!
कैप्टन कीटिंग का कथन है कि चपाती सबसे पहले इंदौर से बाजानगर होते हुए ग्वालियर तक पहुँची। वह एक निमार गाँव का नाम लेते हैं, जहाँ हैज़ा फैला था और जनवरी से ही चपाती घूम रही थी।
वहीं कर्नल जी. बी. मैलेसन ने फ़ैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह को चपाती आंदोलन का मास्टरमाइंड बताया है। वह पटना तक यात्रा कर मुसलमानों को फतवे के साथ चपाती भिजवा रहे थे।
एक तीसरी अफ़वाह का वर्णन मिलता है कि ईसाई इन चपातियों में गाय और सूअर के रक्त छिड़क कर पूरे भारत का धर्म भ्रष्ट कर रहे थे।
कुछ इलाकों में कमल के फूल, बैगन के पत्ते और मुसलमानों के बीच गोश्त की टुकड़ियाँ भी भेजी जा रही थी। जो यह लेकर आता, बस इतना कहता, “सब लाल होगा!”
क्या लाल होगा, कैसे लाल होगा, यह संदेशवाहक को भी स्पष्ट नहीं था। एक अफ़वाह थी कि कोई साधु कमल लेकर छावनी में घूमता। सिपाही कमल के फूल के पत्ते तोड़ कर जेब में रख लेते, और डंठल वापस आ जाती। इससे पता लगता कि कितने सिपाही साथ हैं।
सावरकर ने चपाती को अधिक तवज्जो नहीं दी। सैयद अहमद ख़ान के अनुसार खामखा ब्रिटिश इतिहासकार मूल मुद्दों से भटकाने के लिए ऐसे बकवास विषयों पर पन्ने भर रहे थे। समकालीन इतिहास लेखक विलियम डैलरिम्पल के अनुसार चपाती के दिल्ली पहुँचने की संभावना बहुत कम है। गुड़गाँव के कलक्टर फोर्ड के अनुसार जब दिल्ली के आंदोलनकर्मियों को पकड़ कर पूछताछ की गयी, इसकी कोई जानकारी नहीं मिल सकी।
जॉन केये ने एक सारांश की तरह लिखा है,
“इस छोटी सी गोल चपाती का रहस्य चाहे कुछ भी हो, लेकिन यह आंदोलन इस गति से, इतने विस्तार से, और इतने लंबे समय तक चला कि यह सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ तो नहीं कहा जा सकता। इसने जनता में आंदोलन को जिंदा रखने में बड़ी भूमिका निभायी”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - एक (16)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-16.html
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