Saturday, 29 January 2022

नेताजी सुभाष और सन बयालीस में सावरकर और डॉ मुखर्जी की भूमिका / विजय शंकर सिंह

पिछले साल कोलकाता में नेताजी की 125 वी जयंती मनाई जो रही थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समारोह के मुख्य अतिथि थे। बंगाल  ने यूँ तो देश को अनेक रत्न दिए हैं, पर नेताजी सुभाष बोस और रवींद्रनाथ टैगोर का स्थान उनमे विशिष्ट है। टैगोर ने जहां बांग्ला साहित्य, संस्कृति और ललित कलाओं पर अपनी अमिट छाप छोड़ी वही सुभाष बाबू ने बांग्ला क्रांतिकारिता और अदम्य जुझारूपन को अपनी पहचान दी। उस समारोह के बाद जब प्रधानमंत्री, नेताजी भवन जा रहे थे तो, उनके साथ अन्य भाजपा नेताओं को, नेता जी के घर वालों ने अंदर नहीं जाने दिया। इसका कारण स्थानीय भाजपा विरोधी तृणमूल कांग्रेस की राजनीति भी हो सकती है पर एक बड़ा कारण,  नेताजी सुभाष और भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी में जबरदस्त वैचारिक मतभेद का होना था। डॉ मुखर्जी, हिन्दू महासभा के नेता और अध्यक्ष, वीडी सावरकर के साथ थे और नेताजी देश मे पनप रहे साम्प्रदायिक खतरे को भांप चुके थे। नेताजी ही पहले कांग्रेस अध्यक्ष थे जिन्होंने कांग्रेस के सदस्यों को हिन्दू महासभा या मुस्लिम लीग के सदस्य होने पर भी अधिकृत रूप से रोक लगा दी थी। वे सांप्रदायिकता के इस परिणाम को संभवतः समझ चुके थे, लेकिन यह देश का दुर्भाग्य था कि आजादी और विभाजन के समय जब देश मे साम्प्रदायिक दंगे फैल चुके थे तो नेताजी देश मे नहीं थे। वे कहां थे, थे भी या नहीं रहे, यह सब अब भी एक रहस्य है। 

अब सवाल उठता है कि, नेताजी सुभाष बोस और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच कैसे रिश्ते थे ? इस रिश्ते को जानने के लिये हमें नेताजी के भाषणों, लेखों और उनसे जुड़े दस्तावेजों का अवलोकन  करना होगा। नेताजी ने हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनो संगठनो को सांप्रदायिक संगठन कहा है। और यह बात वे बराबर जोर देकर कहते रहे हैं। हालांकि उनके लेखों और भाषणों में आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उल्लेख बहुत कम है। संघ तब भी पर्दे के पीछे ही था और सामने थी हिन्दू महासभा जिसके अध्यक्ष वीडी सावरकर थे जो 1937 में अध्यक्ष चुने गए थे। 1937 में ही धर्म और राष्ट्र के घालमेल पर हिन्दू राष्ट्र की थियरी विकसित की गयी और उसी के बाद सावरकर और एमए जिन्ना ने अपने अपने धर्म के आधार पर देश की बात करना शुरू कर दी। नेताजी इस खतरे को 1938 में ही भांप गए थे, तभी उन्होंने यह कहा था कि साम्प्रदायिक संगठनों से जुड़े लोग कांग्रेस के सदस्य नहीं रह पाएंगे। लेकिन हिन्दू महासभा और आरएसएस एक ही विचारधारा के संगठन थे। महासभा मंच पर थी और संघ, विंग्स से प्रॉम्प्टिंग करता था। 

प्रभु बापू ने तत्कालीन राजनीति में हिन्दू महासभा की भूमिका पर एक शोध ग्रँथ लिखा है। यह किताब है, हिन्दू महासभा इन कोलोनियल नार्थ इंडिया। इस पुस्तक के पृष्ठ 40 पर यह अंकित है कि, 
" सुभाष बोस के कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यकाल में 16 दिसम्बर 1938 को कांग्रेस के किसी सदस्य को हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की सदस्यता लेने पर रोक लगा दी गयी थी। उसके पहले ऐसी रोक नहीं लगायी गयी थी। 

जब नेताजी ने, पट्टाभिसीतारमैया को हराने के बाद गांधी जी की इस टिप्पणी कि, पट्टाभिसीतारमैया की हार मेरी हार है, पर कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया तो उन्होंने 1940 में अग्रगामी दल फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। यह दल अब भी है और बंगाल में वाममोर्चा का एक अंग है। 30 मार्च 1940 में फॉरवर्ड ब्लॉक के मुखपत्र में अपने एक संपादकीय में नेताजी सुभाष लिखते हैं, 
उन्होंने, कलकत्ता कॉर्पोरेशन के चुनाव में  कांग्रेस और हिन्दू महासभा को एक साथ लाने की एक कोशिश की थी। लेकिन हिन्दू महासभा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाय कांग्रेस से लड़ रही थी। उस समय बंगाल में हिन्दू महासभा के सबसे बड़े नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। उसी संपादकीय का यह उद्धरण पढिये, 
" कुछ हिन्दू महासभा के नेताओ, जिनका हम सम्मान करते है, के निर्देश पर उनके कार्यकर्ताओं द्वारा जो रणनीति, कलकत्ता कॉर्पोरेशन के चुनाव के समय  अपनाई गयी थी उससे हमे बहुत ही दुःख और तकलीफ पहुंची है। हिन्दू महासभा ने साफ सुथरा चुनाव नही लड़ा बल्कि उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ जा कर अंग्रेजों का साथ दिया। यहाँ तक कि वे ब्रिटिश कॉर्पोरेटर के साथ मिल कर यूनाइटेड पार्टी का गठन भी किया, जिंसमे अंग्रेज काउंसिलर शामिल थे। कुछ अंग्रेजों को पुनः जितवाने में हिन्दू महासभा के लोगों का हांथ था। इससे यह अंदाज़ लगाया जा सकता है कि, भविष्य में हिन्दू महासभा क्या करने वाली है। हिन्दू महासभा की यह प्रबल इच्छा थी कि, कॉर्पोरेशन के चुनाव में कांग्रेस हार जाय और अंग्रेज जीत जांय। वह ब्रिटिश विरोध के बजाय कांग्रेस से लड़ने में ज्यादा दिलचस्पी रखती थी। ( नेताजी कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्यूम 10, पृष्ठ 88 - 89 )

जब दोहरी सदस्यता का प्रतिबंध नेताजी सुभाष बाबू द्वारा 1938 में लगाया गया था, तब हिन्दू महासभा के अध्यक्ष वीडी सावरकर थे। सावरकर 1937 से 1943 तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे। हिन्दू महासभा द्वारा अंग्रेजों के पक्ष में खड़े होने और कांग्रेस का प्रबल विरोध करने पर सुभाष बाबू द्वारा की गयी महासभा की आलोचना एक प्रकार से सावरकर की ही आलोचना थी। अंडमान बाद के सावरकर बिल्कुल ही एक नए सावरकर थे और वे अंग्रेजी राज के एक पेंशन भोगी व्यक्ति बन चुके थे। फॉरवर्ड ब्लॉक के साप्ताहिक पत्र में 4 मई 1940 को लिखे अपने एक सम्पादकीय लेख में सुभाष बाबू हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग को खुल कर कहते हैं कि 'दोनों ही दल सांप्रदायिक दल हैं' और यह भी कहते हैं कि 'समय के साथ साथ दोनो ही दल कट्टरपंथी होते जा रहे हैं।'

1938 के बहुत पहले से कांग्रेस से जुड़े नेता मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के सदस्य हुआ करते थे। इस प्रकार की दोहरी सदस्यता पर कोई भी न तो प्रतिबंध था और न ही ऐसा कोई प्रतिबंध लगाने बारे में सोचा भी गया था। हिन्दू महासभा से जुड़े लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय तो कांग्रेस के अग्रणी नेता थे। लाला लाजपत राय, तो लाल बाल पाल, जो लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति थी, के एक अंग थे, और मदन मोहन मालवीय जी तो चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। इसी प्रकार प्रसिद्ध अली बंधु, कांग्रेस के साथ साथ, मुस्लिम लीग के भी सदस्य थे। पर जब 1937 में पहली बार सावरकर की हिन्दू राष्ट्र की थियरी सामने आयी और उधर चौधरी रहमत अली तथा अल्लामा इक़बाल का धर्म आधारित राज्य का दर्शन सामने आया तो, इस खतरे को सबसे पहले सुभाष बाबू ने ही भांपा और उन्होंने इस प्रकार कांग्रेस के सदस्यों द्वारा सांप्रदायिक दलों के साथ किसी भी प्रकार की सांठगांठ करने और सदस्यता लेने से वंचित कर दिया। लेकिन, 1938 तक देश के माहौल में धर्मान्धता का ज़हर फैलने लगा था। तब जाकर कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू को यह प्रतिबंध लगाना पड़ा। यह पूरा विवरण, नेताजी - कलेक्टेड वर्क्स वॉल्यूम 10, पृष्ठ 98 पर है। 

आज़ाद हिंद रेडियो द्वारा 31 अगस्त 1942 को नेताजी द्वारा दिया गया भाषण, इस बात का प्रतीक है कि वह भारत छोड़ो आंदोलन के समय देश की मुख्य धारा से दूर होने के बावजूद कितनी गहराई से स्वाधीनता संग्राम के गतिविधियों की खबर रखते थे। उन्होंने इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिये कांग्रेस के लोगों को कुछ उपाय बताए। इस आंदोलन के समय कांग्रेस के प्रथन पंक्ति के सभी नेता जेलों में बंद थे। बस हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के नेता जो अपने अपने धर्म पर आधारित राष्ट्र के लिये चिंतित थे, बाहर थे औऱ वे अंग्रेजों के साथ थे। अपने ब्रॉडकास्ट में नेताजी ने सावरकर और जिन्ना दोनो की, उनके इस स्टैंड के लिये तीखी आलोचना की थी। 
एक उद्धरण पढिये, 
" मैं श्री जिन्ना और श्री सावरकर सहित उन सब लोगों से जो आज ब्रिटिश साम्राज्य के साथ हैं से अनुरोध करूँगा कि, कल ब्रिटिश साम्राज्य का अस्तित्व नहीं रहेगा। आज वे सारे लोग, सारे दल जो आज स्वाधीनता संग्राम में संघर्षरत हैं, उन्हें कल के भारत ( स्वाधीन भारत ) मे एक सम्मानजनक स्थान मिलेगा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जो सनर्थक होंगे स्वतंत्र भारत मे उनका कोई स्वाभाविक अस्तित्व नहीं रहेगा। 
( संदर्भ - सेलेक्टेड स्पीचेस, सुभाष चंद्र बोस, पृष्ठ 116 - 117 और पब्लिकेशन डिवीजन, नेताजी कलेक्टेड वर्क्स वॉल्यूम 11, पृष्ठ - 144 )

देश के सबसे व्यापक जन आंदोलन जो स्वाधीनता संग्राम का एक अमिट भाग है के समय सावरकर ने अपने दल हिन्दू महासभा के कैडर को जो निर्देश जारी किया था, को भी पढ़े। सावरकर को यह आशंका थी कि जन आंदोलन की यह व्यापक आंधी उनके दल के लोगो को भी प्रभावित कर सकती है तो, इसे रोकने के लिये उन्होंने एक निर्देश जारी किया जिसका शीर्षक था, स्टिक टू योर पोस्ट ( जहां हो वही डटे रहो ) और इस लेख में, हिन्दू महासभा के सभी पदाधिकारियों को भारत छोड़ो आन्दोलन से दूर रहने का निर्देश दिया गया था। विडंबना है कि जब पूरा देश ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में खड़ा था तब, बंगाल में हिन्दू महासभा के बड़े नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अंग्रेजी हक़ूमत के अफसरों को यह सुझाव दे रहे थे कि कैसे इस आंदोलन का दमन किया जा सकता है। वे दमन के तरीके सुझा रहे थे, और कांग्रेस के नेताओ की मुखबिरी कर रहे थे। यह सब दस्तावेजों में हैं। नेताजी को यूरोप में जब वे जर्मनी में थे तो कलकत्ता की यह सारी खबरें मिला करती थी। नेताजी अपने मिशन में लगे थे, पर वे भारत मे हो रहे 1942 के आंदोलन की हर गतिविधियों की खबर रखते थे। 

सावरकर, डॉ हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस, यह सब समकालीन थे। लगभग एक ही उम्र के रहे होंगे। थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। पर इन नेताओं ने सुभाष के बारे में अपने समय मे क्या लिखा पढ़ा और कहा है यह ढूंढने और जानने की ज़रूरत है। स्वाधीनता संग्राम के समय, चाहे भगत सिंह और उनके साथी आज़ाद आदि हों, या गांधी के नेतृत्व में मुख्य धारा का आंदोलन, या फिर सुभाष के नेतृत्व में, औपनिवेशिक गुलाम भारत पर हमला कर के उसे आज़ाद कराने की एक अत्यंत दुर्दम्य और महत्वाकांक्षी अभिलाषा, इन सबका उद्देश्य एक था, भारत की ब्रिटिश दासता से मुक्ति। सबके तरीके अलग अलग थे, उनकी विचारधाराएं अलग अलग थीं, राजनीतिक दर्शन अलग अलग थे, पर यह तीनों ही धाराएं एक ही सागर की ओर पूरी त्वरा से प्रवाहित हो रही थी, वह सागर था, आज़ाद भारत का लक्ष्य। 

पर उस दौरान, जब कम्युनिस्ट भगत सिंह और उनके साथी, गांधी और उनके अनुयायी और सुभाष और उनके योद्धा, भारत माता को कारा से मुक्ति दिलाने के लिये, अपने अपने दृष्टिकोण से संघर्षरत थे, तब वीडी सावरकर, डॉ हेडगेवार, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, क्या कर रहे थे ? इस सवाल का उत्तर, इन महानुभावों के उन समर्थकों को भी जानना चाहिए।इतिहास के किसी पन्ने में भारत की आज़ादी के लिये किये गए किसी संघर्ष की कोई कथा, संघ और हिन्दू महासभा के नेताओं के बारे में दर्ज नहीं है। बस सावरकर एक अपवाद हैं। वे अपने शुरुआती दौर में ज़रूर स्वाधीनता संग्राम के एक प्रखर सेनानी रहे हैं, पर अंडमान पूर्व और अंडमान बाद के सावरकर में जो अंतर है वह स्पष्ट है। 

भगत सिंह, गांधी और सुभाष में वैचारिक मतभेद था। यह मतभेद उनके राजनीतिक सोच और दर्शन का था। भगत सिंह कम्युनिस्ट और मार्क्स तथा लेनिन से प्रभावित थे। वे न केवल ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी चाहते थे, बल्कि वह साम्राज्यवादी, पूंजीवादी शोषण से मुक्ति चाहते थे। गांधी, यह तो चाहते थे कि भारत आज़ाद हो, पर वह यह लक्ष्य अहिंसा और मानवीय मूल्यों को बरकरार रखते हुए प्राप्त करना चाहते थे। वे ब्रिटिश हुक़ूमत के खिलाफ थे पर ब्रिटिश लोकतंत्र के मूल्यों को सम्मान देते थे। नेताजी एक योद्धा थे। उनके लिये यह संघर्ष एक युद्ध था। वे आक्रामक थे और जब भी, जहां भी उन्हें अवसर मिला, उन्होंने ब्रिटिश के खिलाफ मोर्चा खोला और अपने इस पावन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हिटलर से भी मदद लेने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। 

पर संघ और हिन्दू महासभा के लोग, एमए जिन्ना औऱ उनकी मुस्लिम लीग के साथ थे। जब देश एक होकर आज़ादी के लिये संघर्षरत था, जिन्ना औऱ सावरकर विभाजनकारी एजेंडे पर काम कर रहे थे। उनका लक्ष्य देश नहीं उनका अपना अपना धर्म था। वे अपने अपने धर्म को ही, देश समझने की अफीम की पिनक में थे। कमाल यह है कि दोनो ही आधुनिक वैज्ञानिक सोच से प्रभावित और नास्तिक थे। आज भले ही संघ के मानसपुत्र नेताजी सुभाष बोस की जयंती मनाये, पर सच तो यह है कि सुभाष के प्रति न तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कोई लगाव था न सावरकर का। मुझे कोई ऐसा दस्तावेज नही मिला जिंसमे इन दोनों महानुभावों ने नेताजी के संघर्ष और उनकी विचारधारा के बारे में कुछ सार्थक लिखा हो। 

नेताजी सुभाष की जयंती मनाने का हर व्यक्ति को अधिकार है और हमे उन्हें याद करना भी चाहिए। पर यह सच भी आज की नयी पीढ़ी को जानना चाहिए कि जब आज़ादी के लिये नेताजी सिंगापुर में आज़ाद हिंद फौज का नेतृत्व ग्रहण कर के अपने मिशन में लगे थे तब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर के लोग, एमए जिन्ना के साथ मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन 1942 के खिलाफ थे। डॉ मुखर्जी मुस्लिम लीग के साथ मंत्री थे औऱ अंग्रेजों की मुखबिरी कर रहे थे। सावरकर द्वितीय विश्व युद्ध के लिये ब्रिटेन की तरफ से सैनिक भर्ती कर रहे थे । संघ या संघ के लोग आज चाहे जितनी बार भारत माता की जय बोले, खुद को बात बात पर देशभक्त घोषित करे, पर वे स्वाधीनता संग्राम में अपनी अंग्रेजपरस्त भूमिका के कलंक से कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह आज की पीढ़ी को जानना चाहिए। 

( विजय शंकर सिंह )

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