यह गांधी के बिना शुरु किया गया सत्याग्रह था, लेकिन मॉडल एक ही था। ‘गांधी’ फ़िल्म में दक्षिण अफ़्रीका के सत्याग्रहियों द्वारा पास जलाने वाले सीन को अगर केरल में शूट किया जाता, तो कुछ ऐसा दिखता।
28 फरवरी, 1924 को केरल कांग्रेस के कुछ नेता वायकौम पहुँचे। वहाँ प्रशासन से अनुरोध किया कि मंदिर के आस-पास ऐसे बोर्ड हटाए जाएँ, जो किसी जाति को चलने से मना करते हैं। अनुमति न मिलने पर उन्होंने मंदिर के पश्चिमी दरवाजे से कुछ दूर तंबू गाड़ कर एक सत्याग्रह आश्रम बनाया। आश्रम के ठीक सामने की सड़क पर एक बोर्ड था,
“यह मार्ग एझवा और निम्न जातियों के लिए प्रतिबंधित है”
30 मार्च की सुबह एक पुलया, एक एझवा, और एक नायर जाति के युवक खड़े हुए, और मंदिर के तीन मार्गों की तरफ़ आगे बढ़ने लगे। उन तीनों ने खद्दर और गांधी टोपी पहन रखी थी, ‘महात्मा गांधी जय’ कहते हुए आगे बढ़ रहे थे। बोर्ड से कुछ दूर पहले पुलिस ने उनसे जाति पूछी। उनके जाति बताने पर उन्हें आगे बढ़ने से मना किया गया। उन्होंने आगे बढ़ कर पुलिस को अपनी गिरफ़्तारी दे दी। यह क्रम बारी-बारी से चलता रहा।
त्रावणकोर के महाराज परंपरावादी व्यक्ति थे, और वह मंदिर के नियम को तोड़ने के समर्थन में नहीं थे। उन्होंने गांधी के पास अपने दूत भिजवाए कि यह मंदिर निजी संपत्ति है, इसलिए इस पर ऐसे नियम लिखे जा सकते हैं।
गांधी ने सुझाव दिया, “सवर्णों को स्वयं एक सत्याग्रह करना चाहिए। वे वायकौम से त्रिवेंद्रम तक इन निम्न जातियों के समर्थन में एक पदयात्रा करें। इसे हम एक लड़ाई का रूप न दें, बल्कि हिंदू स्वयं अपनी समस्या का निराकरण करें।”
उस समय राजाजी ने मदुरै में पेरियार को चिट्ठी भिजवायी कि वह वायकौम जाकर गांधी के संवाद को जनता तक पहुँचाएँ। पेरियार तमिल और मलयालम, दोनों भाषाएँ अच्छी बोल लेते थे। संवाद करने का तरीका गंवई था, तो जनता को पसंद आता।
पेरियार तुरंत अपनी पत्नी के साथ वायकौम पहुँचे। जहाँ पेरियार ने गाँव-गाँव घूम कर भाषण देने शुरू किए, उनकी पत्नी ने महिलाओं की टीम बनानी शुरू की।
पेरियार ने एक गाँव में कहा, “इस गाँव के ईसाई और मुसलमान क्या अरब से आए हैं? जेरूसलम से आए हैं? आप पता करिए कि ये कौन हैं? ये सभी इसी धरती पर जन्मे हैं। ये सभी हिन्दू थे। फिर क्यों ये ईसाई बन गए? इन्हें लगा होगा कि ईसाई बन कर वे इस सड़क पर शायद चल सकें। मगर अछूत तो धर्म बदल कर भी अछूत ही रह गए।
यह ध्यान रखें कि सवर्णों के लिए अगर अवर्ण अछूत है, तो ब्रिटिश के लिए सवर्ण भी अछूत है। आप उनके ख़िलाफ़ लड़ते हैं, तो अपने ख़िलाफ़ भी लड़िए।”
सवर्णों का एक दल प्रेरित होकर पदयात्रा पर निकला, लेकिन वहाँ के नम्बूदिरी पुरोहित टस से मस नहीं हो रहे थे। उनके लिए अछूतों का मंदिर परिसर में आना एक ऐसा पाप था, जिससे पूरे समाज पर संकट आता। हद तो यह कि त्रावणकोर के राजा ने पेरियार के निवारण के लिए जुलाई के महीने में एक ‘शत्रु संहार यज्ञ’ का आयोजन किया। इस यज्ञ के बाद पेरियार की मृत्यु तो नहीं हुई, अगले ही महीने राजा मूलम तिरुणल स्वयं चल बसे। इस मृत्यु के लिए भी पेरियार के काले साये को ज़िम्मेदार ठहराया गया।
पेरियार उस समय जेल में थे। उन्हें छोड़ दिया गया, और मद्रास जाने कहा गया। कुछ ही दिनों बाद वह फिर से गिरफ़्तार कर लिए गए। पेरियार को यह आभास हुआ कि कांग्रेस के सवर्ण कुछ ‘डबल गेम’ खेल रहे हैं। गांधी भी खुल कर कुछ कह नहीं रहे थे। उल्टे उन्होंने एक संवाद-दोष के बाद यह लिख दिया कि नारायण गुरु जनता को ज़बरदस्ती मंदिर प्रवेश के लिए उकसा रहे हैं।
पेरियार को एक तमिल मित्र ने कहा, “आप सभी कांग्रेसी घड़ियाली आँसू बहाने वाले लोग हैं। आपकी कांग्रेस ने आपके राज्य में हम सबके चंदे से गुरुकुल खोला है। कभी जाकर वहाँ देखिए। वहाँ ब्राह्मण छात्रों के साथ अन्य जाति के बच्चों को बैठने और खाने की मनाही है। अगर बच्चा बचपन से ही यही देखेगा, तो आगे क्या करेगा?”
यह बात पेरियार को झकझोर गयी। यह गुरुकुल राजाजी के मित्र का था, जो गांधीवादी आदर्श पर स्थापित करने की योजना थी। पेरियार ने स्वयं ग़ैर-ब्राह्मणों से चंदा दिलवाया था। उन्हें नहीं मालूम था कि उस स्कूल में भी छूआ-छूत हो रहा है।
यह उनके कांग्रेस से मोहभंग की शुरुआत थी। गांधी से मोहभंग में कुछ महीने शेष थे।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (13)
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