यह कहना ग़लत होगा कि गांधी ही दक्षिण में हिंदी लेकर आए। वह पहले ही आ चुका था, मगर उसके मायने अलग थे। दक्षिण में हिंदी के वरिष्ठ प्रचारक पं. शिवराम शर्मा ने एक पुराने लेख में लिखा है-
“हिंदी का प्रवेश दक्षिण भारत में मुसलमानों के साथ ही हुआ। आज भी अनेक दक्षिण भारतीयों का खयाल है कि हिंदुस्तानी मुसलमानों की भाषा है, जिस पर संस्कृत का रंग चढ़ा कर ‘हिंदी’ भाषा बनायी जा रही है। तंजौर के एक हिंदू मित्र ने कहा कि जब वह थोड़ी-बहुत हिंदी बोलते हैं, तो लगता है अल्लाह के विषय में सोच रहे हैं।”
शैव संप्रदाय, जो तंजौर में बहुतायत में थी, उन्होंने हिंदी का विरोध धार्मिक आधार पर किया। उनके अनुसार यह मुसलमानों की चाल थी कि उनकी ज़बान तमिलों को सिखायी जा रही थी। इसके विपरीत पेरियार इसे तमिल ब्राह्मणों की चाल कह रहे थे। उनके अनुसार तमिल ब्राह्मण पहले से पढ़े-लिखे थे, संस्कृत का ज्ञान था, उनके लिए हिंदी सहज थी। आम जनता तो सिर्फ़ तमिल जानती थी, वह हिंदी माध्यम से पढ़ कर हमेशा उत्तर भारतीयों और तमिल ब्राह्मणों से पीछे ही रहती। हिंदी प्रचार सभा में अधिकांश तमिल ब्राह्मण थे, जो पेरियार के तर्क को पुख़्ता कर रहा था।
राजाजी भी जाने-अनजाने इस आग में घी डाल रहे थे। उन्होंने धन की कमी का हवाला देकर 2200 प्राथमिक विद्यालय बंद कर दिए। वहीं बारह लाख रुपए लगा कर वेद पाठशालाएँ खोल दी जहाँ मुख्यत: ब्राह्मण बच्चे ही पढ़ते।
अगस्त, 1938 को तमिलार पदइ (तमिल सेना) ने त्रिची से गाँव-गाँव होते हुए हिंदी और ब्राह्मण विरोधी यात्रा निकालनी शुरू की। उस समय यूरोप में हिटलर का प्रभाव बढ़ रहा था। पेरियार ने लिखा,
“यहूदी सिर्फ़ अपने समुदाय का भला सोचते हैं। वे अपने तिकड़म लगा कर शासकों को अपनी जेब में रखने का प्रयास करते हैं, और अपने षडयंत्रों से बहुसंख्यक जनता के अधिकार छीन लेते हैं। क्या उनकी तुलना इन ब्राह्मणों से नहीं हो सकती, जो सत्ता में बैठ कर सिर्फ़ अपने समुदाय का भला सोच रहे हैं?”
तमिलों की यह पदयात्रा पूरे प्रांत से गुजरते हुए मद्रास के त्रिपलीकेन बीच पहुँची, और वहाँ पेरियार ने इसे भड़काना शुरू किया। ख़ास कर महिलाओं का एक विशाल जत्था हिंदी-विरोध में खड़ा था। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि मैंने सुविधा के लिए अब तक पेरियार शब्द का उपयोग किया है, लेकिन यह नाम इसी आंदोलन की महिलाओं ने उन्हें दिया था। उससे पूर्व वह रामास्वामी ही थे।
राजाजी ने अगली ग़लती की। उन्होंने पुलिस को इस भीड़ का दमन करने भेज दिया, जिसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर गिरफ़्तारी दी।
पुलिस ने एक महिला को गिरफ़्तार करते हुए कहा, “जाओ! अपने पति और बच्चों को सँभालो। वे तुम्हारी चिंता कर रहे होंगे।”
उसने कहा, “हम अपनी मातृभाषा, अपनी मातृभूमि के लिए यह आंदोलन कर रहे हैं। इसके लिए हम कुछ भी गंवाने को तैयार हैं।”
पेरियार को गिरफ़्तार कर एक वर्ष के लिए जेल की सजा और हज़ार रुपए जुर्माना लगाया गया। उन्होंने अपनी फ़ोर्ड गाड़ी बेच कर यह रकम अदा की। यह सब सांकेतिक था कि वह तमिल आंदोलन के लिए सब-कुछ कुर्बान कर सकते हैं। पेरियार के जेल जाते ही यह आंदोलन आक्रामक हो गया। अब अन्नादुरइ नामक युवा नेतृत्व कर रहे थे, और उनके भाषणों में जोरदार अपील थी।
1939 में दो तमिल आंदोलनकर्मियों तलमुतु और नटराजन की जेल में मृत्यु हो गयी। यह हिंदी-विरोधी आंदोलन की पहली शहादत की तरह देखी गयी, और उनकी शवयात्रा में हज़ारों की भीड़ जमा हो गयी। राजाजी अब भी किसी और दुनिया में थे। वह ग़ैर-जमानती गिरफ़्तारी कर रहे थे, और बारह सौ लोग जेल भेजे जा चुके थे।
तभी कांग्रेस ने एक राष्ट्रीय निर्णय लिया। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत को घसीटने का विरोध किया, और सभी कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफ़ा दे दिया। राजाजी को भी इस्तीफ़ा देना पड़ा। अंग्रेज़ गवर्नर एर्सकिन ने गरम माहौल देखते हुए पेरियार को रिहा किया, और हिंदी की अनिवार्यता रद्द कर इसे वैकल्पिक भाषा बना दी गयी।
पेरियार के समर्थक चिल्लाए, “तमिल नाडु तमिलों का!”
तिरुवरुर में एक चौदह साल का बच्चा अपनी टोली के साथ रिक्शे पर बैठ कर नारे लगा रहा था। तीन बार स्कूल में फेल होने के बाद उसने स्कूल त्याग दिया, और पंद्रह वर्ष की अवस्था में द्रविड़ नाटक लिखने लगा। करुणानिधि नामक वह बच्चा ही भविष्य में मद्रास प्रांत का नाम बदल कर तमिलनाडु रखने वाला था।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - दो (14)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/14_22.html
#vss
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