हाल बाज़ार में एक बूढ़ा सिख कह रहा था, अमृतसर और लाहौर दो शहर नहीं थे...एक शहर था...अमृतसर में कुछ होता था तो उसकी धमक लाहौर में सुनाई देती थी और लाहौर में कुछ बजता था तो उसकी गूँज अमृतसर में सुनाई पड़ती थी...ये दो शहर तो थे ही नहीं...अमृतसर तो ‘पाॅवर’ का इतना बड़ा सेंटर रहा है कि उसके सामने कुछ और खड़ा ही नहीं हो सका...इस ‘पाॅवर’ के सेंटर ने कुर्बानियाँ माँगी हैं और दी गई हैं...यह कुर्बानियों का शहर बन गया है...पुराने इतिहास में न जाएँ तो 1871 में कूका विद्रोह की कुर्बानियाँ, 1990 में मदनलाल ढींगरा की कुर्बानी! 1919 में जलियाँवाला बाग़ की कुर्बानी... आत्मविश्वास में डूबा गर्वीला शहर... अपनी ज़बान, अपनी रवायत और अपनी तहज़ीब पर गर्व करने वाला निराला शहर... हर बडे़ शहर की तरह यहाँ भी सब कुछ है...
...ये बीसवीं सदी की दूसरी दहाई है...कुर्बानियों के शहर में देश प्रेम की आग लगी है...विद्रोह की ज्वाला धधक रही है...इन्किलाब जिंदाबाद के नारे गूँज रहे हैं...अमृतसर की गलियों में इन्किलाबी पोस्टर रातों-रात, पुलिस को पता लगे बगै़र, लग जाते हैं...बम फटते थे...डाक के बम्बों में कुछ ऐसा फेंक दिया जाता कि आग लग जाती थी...हर तरफ गिरफ़्तारियों का हंगामा है। ... अंधेरी रात में दो लड़के अमृतसर की गलियों में पोस्टर लगा रहे हैं...इस पोस्टर पर आस्कर वाइल्ड के ड्रामे ‘वीरा’ की कुछ लाइनें लिखी हैं जिनमें रूस के सम्राट ज़ार के ताबूत में आख़री कील ठोंकने की बात कही गई है...गोरे रंग का दुबला-पतला लड़का जिसके तीखे नक़्शो-निगार हैं, बड़ी-बड़ी बेबाक आँखें हैं, पतली गर्दन है वो हाई स्कूल पास करने के बाद अब इंटर में लगातार दो साल से फेल हो रहा है। इसे कोर्स की किताबें पढ़ने के अलावा हर तरह की दूसरी किताबें पढ़ने में गहरी दिलचस्पी है। अंग्रेज़ी के नाविलों का तो ऐसा रसिया है कि एक बार अमृतसर स्टेशन पर व्हीलर के बुक स्टाल से किताब चुराते पकड़ा भी गया है...पूरा शहर इस लड़के यानी सआदत हसन मंटो को अंग्रेज़ी नाविल का मारा कहता है। इस ड्रामें का दूसरा किरदार है हसन अब्बास। दोनों अमृतसर मुस्लिम इंटर काॅलेज में पढ़ते हैं...दोनों दसवीं क्लास में ही दुनिया का नक़्शा निकालकर खुश्की के रास्ते रूस जाने का प्लान बना चुके हैं...और इन दोनों के गुरु हैं कम्युनिस्ट लेखक बारी अलीग...बारी साहब अमृतसर से छपनेवाले अख़बार ‘मसावात’ के सम्पादक हैं इंटर में दो बार फेल होने और पढ़ाई से तबीयत बिल्कुल उच्चाट हो जाने के बाद मंटो कटरा अजमैल सिंह में दीनू कुम्हार की दुकान के ऊपरवाली बैठक में जाने लगा है जहाँ रात-दिन जुआ खेला जाता है। शुरू-शुरू में तो ये खेल मंटो की समझ में नहीं आया...लेकिन जब आया तो मंटो इसी का हो रहा...मतलब ओढ़ना बिछौना हो गया...रात-दिन बस जुआ...ये सन् 1920-21 का अमृतसर है...
...दुबला पतला, लम्बी गर्दन, तीखे नक़्शे निगार, खुलता हुआ रंग, बड़ी-बड़ी बेबाक और सोच में डूबी आँखें और चेहरे पर बेफिक्री और मस्ती की कैफियत समेटे ये लड़का हाल गेट से अंदर घुसता है कूचा कन्हैया से होता अमराटाकी के सामने से गुज़रता कूचा वकीलां में जाकर सीढ़ियाँ चढ़ जाता है।...जुए की महफिल में शहर के तमाम आवारा और लोफर जमा होते हैं...हुक्के का धुआँ भरा रहता है और निठल्ले लोग दिल बहलाने के लिए तरह-तरह के किस्से सुनाते रहते हैं। ये लड़का सुबह आ जाता है तो दिन भर फ्लश खेलने में इतना डूबा रहता है कि रात होने का पता ही नहीं चलता। इस दौरान अमृतसरी कुल्चे और छोले से पेट भरा जाता है और जमकर गप्प लगाई जाती है। पता नहीं ये पैसे कहाँ से लाता है। शायद अपने अब्बाजी की जेब या माँ के सन्दुकचे पर हाथ साफ करता होगा। लेकिन है तेज़। फ्लश की चालें जल्दी सीख गया है और अच्छे-अच्छों को आसानी से जीतने नहीं देता...हाल गेट से बाहर निकलकर सीधे चले जाएँ तो रेलवे के पुल से पहले शीराज़ होटल है...वहाँ ‘मसावात’ अख़बार का दफ़्तर है...ये लड़का कभी-कभी ‘मसावात’ पढ़ लेता है और उसमें बारी अलीग का कालम उसे पसन्द है।
पुराने अमृतसर में अमरा टाकी से थोड़ा आगे कूचा छज्जू मिश्र के कोने पर पंडित दीवान अमरनाथ ‘मोहसिन’ की बैठक है। पंडित मोहसिन कोहना-मश्कष् शायद हैं। शहर के अदीब और शायर वहाँ जमा होते हैं...शामें शेरो-सुखन में गुज़रती हैं...शहर में कोई भी फनकार और अदीब ऐसा नहीं है जो पंडित मोहसिन की मेहमानदारी से महरूम रहता हो...इन महफिलों में बारी अलीग, काज़ी गु़लाम जीलानी, कृपाराम ‘नाज़िम’, मनमोहन माथुर, मनमोहन देहलवी, शम्स मीनाई, जयकृष्न दास, नफीस ख़लीली, जी.आर. सेठी मौजूद रहते हैं...
कटरा कन्हैया में अमरा टाकी के सामने जो सीढ़ियाँ हैं वो सीधी अमृतसर क्या हिन्दुस्तान की नामी गिरामी तवायफ मुख्तार के कोठे जाती हैं। उसके आशिक हिन्दुस्तानी ड्रामें के शेक्सपियर आग़ा हश्र कश्मीरी हैं। मंटो, मुख्तार को जानता है। जुमेरात की शाम मुख्तार दूसरी तवायफों के साथ ज़ाहिरा पीर के मज़ार की ज़्यारत करने निकलती है तो मंटो अपने दोस्तों के हाल बाज़ार में अनवर पेन्टर की दुकान पर खड़ा होकर आँखें सेंक लेता है। अमरा टाकी के सामने शाम के वक़्त फिटन और बड़ी-बड़ी मोटरकारों से उतरते रईस मुख्तार के कोठे की सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते नज़र आते हैं...ऊपर से घुंघरुओं की झंकार और पाटदार आवाज़ में ठुमरी का एक टुकड़ा गली में मंटो तक आ पहुँचता है...
...जुए में पूरी तरह डूब जाने के बाद मंटो को जुए से वहशत होने लगी। दिल में आने लगा कि अब कुछ और किया जाना चाहिए। एक दिन फज़लू कुम्हार की बैठक में जुए की फड़ जमा थी कि अचानक इब्राहीम जो अमृतसर की म्युनिस्पल्टी में तागों का दरोग़ा था आ गया और बातों-बातों में कहने लगा कि आग़ा हश्र कश्मीरी आजकल अमृतसर आए हुए हैं...जुए से उक्ताई मंटों की तबीयत जो नया चैलेन्ज तलाश कर रही थी बेचैन हो गई...उसने स्कूल के ज़माने में तीन-चार लफंगे दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामा क्लब बनाया था और ख़्याल था कि आग़ा हश्र कश्मीरी का कोई ड्रामा स्टेज किया जाएगा। क्लब पन्द्रह दिन तक ही कायम रह सकी। सीनियर मंटो यानी सआदत हसन मंटो के वालिद साहब ने एक दिन क्लब पर धावा बोल दिया था तबले, हारमोनियम का कचूमर निकाल दिया था...लेकिन नौजवानों के दिलों में छुपे हुए जज़्बे तो नहीं खत्म हो सके...मंटो ने आग़ा साहब को कोई ड्रामा देखा न था लेकिन आग़ा साहब अमृतसर में हैं, ये बात उनके दिल में बैठ गई...आग़ा साहब कश्मीरी हैं...मंटो भी कश्मीरी हैं...एक गहरा रिश्ता है...ऐसा हो नहीं सकता कि मंटो आग़ा साहब से न मिले...मुख्तार से आशिक ड्रामे के बेताज बादशाह, शराब के शौदाई, गलियों के सरताज, इल्म का समन्दर, ज़बानों- बयानों में यक्ता, पारसी कम्पनियों के सेठों को जूते की नोक पर रखने वाले, अय्याशों के अय्याश, आग़ा साहब से मंटो को कौन मिला सकता है? दरोग़ा इब्राहिम ने टाल दिया...वो तो सिर्फ़ इतना कहता है कि बुढ़ापे में आग़ा साहब मुख्तार से मोहब्बत करने लगे हैं और बुढ़ापे का इश्क बड़ा ख़तरनाक होता है...मुख्तार आग़ा साहब को इस तरह उंगलियों पर नचाती है जैसे रिंग मास्टर शेर को...कल रात हम मुख्तार के कोठे पर थे। आग़ा साहब गाव तकिए का सहारा लिए बैठे थे। हममें से बारी-बारी हर एक ने उनसे पुरज़ोर दरखास्त की कि वो अपने नए फिल्मी ड्रामे ‘रुस्तम सोहराब’ का कोई हिस्सा सुनाएं मगर उन्होंने इंकार कर दिया। हम सब मायूस हो गए। एक ने आँखों-ही-आँखों में मुख्तार से गुज़ारिश की।...वो आग़ा साहब की बग़ल में बैठ गईं और कहने लगीं-”आग़ा साहब हमारा हुक्म है कि आप रुस्तम सोहराब सुनाएं।“ आग़ा साहब मुस्कुराए और गरजदार आवाज़ का धारा पहाड़ के पत्थरों को लुढ़काता बहने लगा।
आग़ा साहब के बारे में सब जानते हैं कि अव्वज दर्जे के औबाश हैं, चैबीस घंटे शराब के नशे में डूबे रहते हैं, जिस औरत को इशारे कर देते हैं वह उनके सामने बिछ जाती है और इस सबके साथ-साथ उनकी लियाकत और काबलियत का सब लोहा मानते हैं...लेकिन आग़ा साहब से मुलाकात हो तो कैसे हो? इब्राहीम तो यही रटता रहता है कि बुढ़ापे का इश्क बड़ी जालिम चीज़ होता है... अनवर पेंटर के यहाँ जो ग्रुप उठता-बैठता है उसमें हरी सिंह पंडित मोहसिन के यहाँ आता-जाता है। उससे मंटो ने बात की और मामला पक्का हो गया...पंडित मोहसिन की बैठक के आँगन में कुछ लोग बैठे थे। एक कोने में तख़्त पर पंडित मोहसिन बैठे गुड़गुड़ी पी रहे थे...उनके पास एक अजीब-सा आदमी गहरे लाल रंग की चमकदार साटन का लाचा, दो घोड़े की बोस्की की कालरवाली सफेष्द कमीज, कमर पर नीले रंग का फुंदनों वाला कमरबंद बाँधे बैठा था। उसकी बड़ी-बड़ी बेहंगम आँखें इधर-उधर घूम रही थीं। मंटो को पहली नज़र में आग़ा साहब कटरा कन्हैया की रंडियों के पीर नज़र आए...
”आग़ा साहब, इनसे मिलिए, मेरे दोस्त सआदत हसन मंटो।“ हरी सिंह ने मंटो का तारुफ़ कराया।
”लार्ड मिंटो से क्या रिश्ता है तुम्हारा?“ आग़ा साहब ने पूछा।
”आग़ा साहब। ये मिंटो नहीं मंटो हैं...“
...आग़ा साहब का नौकर पान ले आया जो अख़बारी काग़ज़ में लिपटे हुए थे। आग़ा साहब ने नौकर से कहा, ”काग़ज़ फेंकन, नहीं, संभालकर रखना...“
”आप इस काग़ज़ का क्या करेंगे?“ मंटो ने पूछा।
”पढूँगा। छपे हुए काग़ज का कोई भी टुकड़ा जो मुझे मिला है, मैंने ज़रूर पढ़ा है...“
मुख्तार-बुलबुले पंजाब आ गई और आग़ा साहब अंदर चले गए...
शीराज़ होटल में ‘मसावत’ के एडीटर बारी अलीग और हाजी लक़लक ़के साथ यारों की जो महफिल सजती है, मंटो उसका हिस्सा बन चुका है। अदब और सयासत पर बेबाक बातें होती हैं। इसी दौरान अख़्तर शीरानी अमृतसर आए। दिन-रात शेरो-शायरी और ठर्रे के दौर चलने लगे...मंटो का जो वक़्त जुआ खेलने में गुजरता था वह ‘मसवात’ के दफ़्तर में कटने लगा...कभी-कभी बारी अलीग एक आद ख़बर तरजुमे के लिए देते थे। धीरे-धीरे फिल्मों वाला कालम संभाल लिया और फिर वो मज़मून लिखने लगा...अपने अलग... मज़मूल... बारी अलीग ने राय दी विक्टर ह्यूगो की नाविल ‘लास्ट डेज़ आॅफ कन्डेमंड’ का तरजुमा करने की...मंटी ने उस्ताद की बात मान ली...शराब पीकर तरजुमा करने की कोशिश की लेकिन लाइनें गड्डमड्ड हो गईं। आँगन में चारपाई पर लेटकर हुक्का पीते हुए बहन को बोलकर ट्रांसलेशन की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी...आखिर अकेले बैठकर डिक्शनरी के सहारे दस पन्द्रह दिन में पूरी किताब तरजुमा कर दी जो जल्दी ही छप गई...
...उस्ताद बारी अलीग ऐसा नहीं है कि शराब नहीं पीते लेकिन उतनी या वैसी नहीं जैसी मंटो पीता है। मंटो तो अनवर पेंटर की दुकान से भांग छानने भी चला जाता है और वहाँ अक्सर शहर के लुच्चे, लफंगों, गायकों और कलाकारों के साथ गोश्त और भांग पकाया जाता है जिसे सब प्यार से खाते और लोकगीत गाते हैं।...उस्ताद बारी ने मंटो को डाँटा, समझाया, मना किया कि इतनी शराब न पिया करो..मंटो ने कसम खाई...शराब के नशे में अल्लाह की कसम खाई कि अब कभी शराब नहीं पियूँगा...रात घर लौटा तो दिसम्बर के महीने की कड़ाके की सर्दी के बावजूद कूच-ए- वकीलाँ की सुनसान गली में उसने सज्दा किया... अल्लाह से माफी माँगी की अब शराब नहीं पियूँगा... लेकिन कुछ दिन बाद उस्ताद यानी बारी अलीग पैजामे में उड़स कर एक अद्धा ले आए...और मंटो ने गली के ठंडे फर्श पर खु़दा के हुजूर में जो सिज्दा किया था वह उसके माथे पर जिंदगी भर मचलता रहा...
बारी अलीग इन्किलाबी किसम की योजनाएँ बनाते हैं। काम शुरू हो जाता है। मंटो अपने दोस्तों के साथ जुट जाता है तो उस्ताद गायब हो जाते हैं...बुज़दिल उस्ताद...लेकिन उस्ताद...वैसे अमृतसर में उस्तादों की कमी नहीं है...
दीवान पंडित अमरनाथ ‘मोहसिन’का शुमार अमृतसर के रईसों में होता है। जायदाद, इस्लाक, बाग़ात...क्या नहीं है उनके पास...शहर के सबसे बड़े सिनेमा हाल ‘अमरा टाकी’ के मालिक हैं। सिनेमा हाल में जब कोई नई फिल्म लगती है तो पंडित मोहसिन अपने शायर, अदीब और कलाकार दोस्तों को फिल्म दिखाने ले जाते हैं...ऐसे मौके पर ‘मसावात’ का फिल्मी कालम लिखने वाला मंटो कैसे छूट सकता है।
फिल्म देखने के बाद दीवान पंडित मोहसिन की बैठक कूचा छज्जू मिश्रा में महफिल जमती है। हुक्के की गुड़गुड़ाहट के साथ फिल्म की बारीकियों का जिक्र होता है...तब्सिरे किए जाते हैं...एक्टिंग से लेकर म्युज़िक और मुकालमों तक पर तफसीली गुफ्तुगू होती है...
आग़ा हश्र कश्मीरी जब अमृतसर अपनी महबूबा मुख्तार से मिलने आते हैं तो पंडित मोहसिन के मेहमान होते हैं। मुख्तार उनसे मिलने यही आती हैं...पारसी-कम्पनियों का चल-चलाव है और बोलती हुई फिल्मों ने तहलका मचा दिया है...आग़ा साहब ‘रुस्तम सोहराब’ फिल्म बना रहे हैं...अमृतसर में श्री सत्यनारायण सिनेटोन कम्पनी बनी है और उसने पहली फिल्म ‘आखिरी ग़लती’ बनाने का एलान किया है। अमृतसर की ही एक दूसरी पिक्चर कम्पनी ‘ताज पिक्सर्च’ ने ‘सुहाग का दान’ फिल्म बनाई जिसके संवाद सैयद इम्तियाज़ अली ‘आज’ ने लिखे हैं...अमृत फिल्मस् ने ‘आँसुओं की दुनिया’ और ‘प्रेम नगर’ बनाने का एलान किया है। मुख़्तार बेगम बुलबुले पंजाब ‘मतवाली मीराँ’ में अपने रोल के लिए शोहरत की ऊँचाइयों पर पहुँच चुकी हैं...
सन् 1934 में दीवान पंडित अमरनाथ ‘मोहसिन’ का इन्तिकाल हुआ तो प्रोफे़सर मोहन देहलवी ने उनकी तारीखे-वफ़ात कही - न रौनक तेरे बिन अमरनाथ ‘मोहसिन’। काजी गुलाम जीलानी ‘काज़ी’ ने ‘नौहा मोहसिन’ लिखा...उस दौर में पंडित मोहसिन की नज़्म ‘गरीबों की दुनिया’ बड़ी मशहूर हुई थी और आमतौर पर जल्सों से पहले पढ़ी जाती थी...
जैसे कोई शातिर करतब दिखाने वाला हाथों में लम्बा बाँस पकड़े रस्से के ऊपर चलता है उसी तरह यह गोरे रंग और पतली गर्दन वाला लड़का रस्से पर चलना सीख गया है। अनवर पेंटर की दुकान में लुच्चे-लफंगों का मजमा लगा हुआ है, पंडित मोहसिन के दरबार में अदब और आर्ट की महफिलें जमी हैं, आग़ा हश्र कश्मीरी अपने मुकालमों का दरिया बहा रहे हैं, बुलबुले पंजाब मुख्तार बेगम अपने जलवे बिखेर रही हैं, बारी अलीग इंकिलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं, हाजी लक़लक़ ‘मसावत’ का कालम लिख रहे हैं। इन सबको जोड़कर एक रस्सी बनाई गई है जिस पर अपने हाथ में अक़ल का लम्बा-सा बाँस लिए सआदत हसन मंटो चल रहा है...इस रस्से पर वह जिंदगी भर चलता रहा...अमृतसर में उसने जो करतब सीखा था उसे वह बंबई, दिल्ली और फिर लाहौर में दिखाता रहा...उसकी शख्सियत और उसके फन में वो सब अदाएँ आ गईं जिनके नशो-नुमा अमृतसर में रखे गए थे।
”मैं तुझे घुमाना चाहता हूँ।“ जोत ने कहा।
”वाजी...वा। ऐ कोई ज़बरदस्ती है।“ सायमा ने जवाब दिया।
”हाँ जी, जो चाओ समझो।“
”अच्छा, चल बैठ...चा...वा पीले।“
”नई जी नई...घुम्मन वास्ते चलो।“
”किधर ले चलेगा?“
”कम्पनी बाग़...“
”देख...मेरा एडीटर बार-बार...शेर अली, शैर अली रट रिया सी...जे चलना है तो अजनाला वाले एरिया में ले चल।“
”काम की बंदी है।“
”सो तो है।“
”ओर तुझे मेरी मोटर साइकिल पर चलना पड़ेगा।“
”ओ हो...ये भी शर्त है।“
”हाँ जी, है।“
”तो आज तेरी सभी शर्तें मंजूर...पर एक बात पूछँू...नई एक बात बता दूँ?“
”बता?“
”कहीं तू मुझसे परेम-वरेम तो नहीं करने लगा है?“
”तो उसमें क्या बुराई है जी?“
”है, जब ही तो कह रही हँू।“
”चल, तो नहीं करता तुझसे परेम।“
”हाँ, अब ठीक है।“
फिर वही रास्ता और फिर वही साथी। शहर के आगे गाँवों का सिलसिला जो रावी के किनारे तक पहुँच जाता है।
”मैंने पता किया है पंजगराई गाँव में अकाल सिंह है...उससे बात करनी
है...वो बंदा चंगा है।“
”चल ठीक है, देखते हैं...पर मेरे बाल उड़ रहे हैं। मोटर साइकिल रोक ले तो मैं इन्हें बाँध लूँ।“
”ठीक है।“
उसने उतरकर बाल बाँध लिए। पक्के रास्ते से कच्चा रास्ता और फिर कच्चे रास्ते से पुश्ते का रास्ता...पीछे धूल का बवंडर उड़ाती मोटर साइकिल चली जा रही है।
”वो देख सामने रावी।“ जोत ने मोटर सायकिल रोक दी।
बँधे के नीचे खेत। उनके आगे रावी...चमकती...बल खाती...बीच में रेत के द्वीप...उधर खेत और पेड़...और मैदान...
”वो देख उधर पाकिस्तान है।“ सायमा ने दिखाया।
वो देख उधर इंडिया है। जोत बोला।
”पागल है क्या?“ सायमा ने कहा।
”चल बैठ...जो उधर दिखाई पड़ता है वही इधर भी है।“ जोत ने बेज़ारी से कहा।
सायमा चुपचाप खड़ी देखती रही। रावी लाहोर में कभी इतनी खूबसूरत नहीं दिखाई देती। पता नहीं नदियाँ शहरों में जाते ही डर जाती हैं। गन्दे नालों से, पाॅलीथीन के कचड़े से, गन्दगी और बेहूदगी से...
बिल्कुल खामोश, बिल्कुल पुरसुकून, बिल्कुल सफेद साफ सुथरी जैसी उस गाँव की मस्जिद थी जहाँ सायमा ने नमाज़ पढ़ने की कोशिश की थी या हरमिन्दर साहब का सफेद रंग...बिल्कुल पारदर्शी जैसे पानी होता है...जैसे हवा होती है, जैसे दिल होता है...
पंजगरई में दाखि़ला होने से पहले एक बूढ़ा सिख पुश्ते पर चढ़ता दिखाई दिया।
”सतसिरी अकाल जी...“ जोत ने बूढे़ सरदार से कहा। वह चैंककर रूक गया और अपनी बूढ़ी चुंधियाई आँखों से देखने की कोशिश करने लगा कि कौन लोग हैं। एक लड़की और लड़का...दोनों गाँव के तो नहीं हैं...इलाके के भी नहीं लगते। वह धूप से बचने के लिए आँखों पर हाथ का छज्जा बनाए उन्हें देखता रहा और बोला, ”सतसिरी अकाल।“
”तुसी इसी पिंड विच रहंदे हो?“
”हाँ।“
”तुहाड़ा नाम की है?“ जोत ने पूछा।
”सतबीर है जी...तुसी कौन हो?“
”ऐजी सायमा है, पत्रकार है...मैं भी पत्रकार हूँ।“
”तू वही कुड़ी है जो पाकिस्तान से आई है?“
”हाँ...मैं वही हूँ...क्या तुम भी पहले उधर ही थे?“
”हाँ...मैं उत्थे ही सी?“ सतबीर बोला।
”उत्थे केड़ा पिंड सी?“
”ओकाड़ा में।“
”ओकाड़ा में कहाँ?“
”हाँ...ओकाड़ा में पिंड का नाम क्या है?“
”सतघरा है।“
”सतघरा?“ सायमा की चीख़ निकलते-निकलते बची।
”हाँ, सतघरा।“ सतबीर बोला।
”ताया मैं भी सतघरा दी हाँ...“
”तू?“
”हाँ।“
”तू सतघरा दी है...तेरा घर...“ सतबीर अविश्वास से बोला।
”वही सतघरा जहाँ पिंड के चारों तरफ़ फसील है...जहाँ बुर्ज बने हैं?“ सायमा ने कहा।
”हाँ...हाँ...“ सतबीर की आवाज़ काँपने लगी...उनके पैर भी काँप रहे थे...जोत को लगा कहीं वह गिर न जाए।
”और बताऊँ?“ सायमा ने सतबीर से पूछा।
सतबीर कुछ नहीं बोला। उसकी घुंधली आँखों में पता नहीं क्या-क्या था।
”वही सतघरा...जहाँ गुरुद्वारा छोटा ननकाणा साहिब है...नानक जगु?“ सायमा बोली।
जवाब में सतबीर कुछ नहीं बोला। उसने अपनी आस्तीन से आँखों पोछ डाली। पोपले मुँह को दो-तीन बार चलाया। सफेद दाढ़ी को बेवजह खींचने लगा। लगा कि खड़े होने में उसे तकलीफ हो रही है।
”तू...तू...सतघरा दी हैं।“
सतबीर अचानक रोने लगा। फूट-फूट कर आँसुओं से रोने लगा। जोत घबरा गया।
कुछ लम्हे बाद उसने आँखें पोंछी और फटी-फटी आवाज़ में बोला, ”तकसीम दे बाद पहली बार किसी नू मिला हूँ तो सतघरा का है।“ वह फिर अपने होंठ भींचने लगा...शायद वह आँसू रोक नहीं पा रहा था।
”चल तू मेरे नाल चल।“ सतबीर ने सायमा का हाथ पकड़ लिया और गाँव की तरफ चल दिया। ज़ाहिर है, वह सायमा को अपने घर ले जाना चाहता था।
सतबीर अपने घर के सामने पहुँचकर फटी-फटी सी भारी आवाज़ में अपने बेटे हरपाल को आवाज़ देने लगा...फिर अपनी बहू को पुकारने लगा...फिर उसने अपनी पोती कुलविन्दर कौर का नाम लेकर पुकार लगाई...कुछ मिनट बाद अपने हाथ पोंछती हरपाल की पत्नी बाहर निकली।
”की गल्ल है दारजी?“
”ओए देख...ऐ कुड़ी...सतघरा दी है।“
”क्या जी?“
”हाँ...पाकिस्तान से आई हैं...सतघरा चें इसदा घर है।“
”मुसलमान है?“
”ओए और अब वहाँ कौन बच्या है।“
हरपाल की पत्नी सायमा के पास आकर उसे देखने लगी। घर से सतबीर की पोती मीना भी निकल आई थी। वह अपनी माँ के पीछे खड़े होकर सायमा को देखने लगी। सतबीर कहे जा रहा था, ”मरन तो पहलां ये भी लिखा था भाग में...मैं तो सोच भी नहीं सकदा था कि किसी गिराईं से मेल होगा...अरे अब इसे कुछ खिलाओ...पिलाओ...खातिरदारी करो...लस्सी लुस्सी लाओ...रोट्टी शोट्टी लाओ...“
(जारी)
© असग़र वजाहत
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