“मुझे द्रविड़ों पर विश्वास है कि वह हिंदी को गंभीरता से लेंगे। अगर कामकाजी वर्ग के आठवें हिस्से भी अंग्रेज़ी दक्षता के बजाय हिंदी दक्षता में समय लगाएँ, तो वे शेष भारत से जुड़ जाएँगे और हमारे ही एक अंग कहलाएँगे। मुझे पता है कि कुछ लोग कहेंगे कि तर्क का दूसरा पहलू भी है। लेकिन, द्रविड़ अल्पसंख्यक हैं, और इस मायने यह उचित नहीं कि शेष भारत मलयालम, तमिल या कन्नड़ सीखे।”
- गांधी, यंग इंडिया पत्रिका में, जून 1920
भारत में एक भाषा कभी थी ही नहीं। भारत के हर प्रांत की अपनी भाषा या बोली थी, और कचहरी या शिक्षा की भाषा शासकों पर निर्भर थी। चूँकि अंग्रेज़ों का राज पूरे भोगौलिक भारत-बर्मा क्षेत्र पर था, उन्होंने अंग्रेज़ी को धीरे-धीरे एक औपचारिक भाषा रूप में ढालने के प्रयास किए।
जब बंगाल में नवजागरण हुआ, तो वहाँ बंगाली भाषा के लिए चेतना जगी, और मात्र एक उन्नीसवीं सदी में ही उन्होंने पिछली कई सदियों से अधिक बंगाली साहित्य रच दिया। हमने पढ़ा कि ऐसी ही चेतना मद्रास में भी जगी और ‘शुद्ध तमिल’ आंदोलन चला। उत्तर भारत में कई भाषाएँ जैसे ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली, बुंदेली, भोजपुरी, राजस्थानी आदि थी। वहाँ मोटे तौर पर हिंदू समाज ने हिंदी भाषा और मुसलमान समाज ने ऊर्दू भाषा की वकालत शुरू की। दोनों एक जैसी ही थी, लेकिन उनमें संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के तड़के का अंतर था, लिपि भिन्न थी।
राजस्थान से बिहार तक एक काल्पनिक ‘हिंदुस्तानी या हिंदी बेल्ट’ का कंसेप्ट बनने लगा, जहाँ ऐसी एक औपचारिक भाषा मुमकिन थी। लेकिन, ये हिंदी या ऊर्दू प्रचारक संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के कुछ हिस्सों तक केंद्रित थे। पहली बार 1900 ई. में मैकडॉनेल द्वारा संयुक्त प्रांत की कचहरी में नागरी लिपि को एक वैकल्पिक लिपि की तरह रखा गया, मगर प्रयोग न के बराबर हुआ। गांधी को इस मुहिम में लाने के बाद स्थिति बदल गयी।
गुजराती भाषी गांधी अफ़्रीका से 1915 में लौटे। अगले ही वर्ष वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में भाषण दे रहे थे, जिसमें हिंदुस्तानी भाषा के समर्थन में दो शब्द कहे। दो साल बाद, 1918 में उनको इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष बना दिया गया। अगर देखा जाए तो यह अजीब घटना थी, क्योंकि गांधी तो उस ‘हिंदी बेल्ट’ से थे ही नहीं, न ही वह ठीक से लिख-बोल पाते थे। मगर उनमें कुछ भविष्य दिखा होगा, तभी यह ज़िम्मेदारी मिली होगी। उन्होंने अपनी उपयोगिता साबित कर दी। उन्होंने इंदौर में लगभग निर्णायक रूप से कहा,
“जब तक इस देश में सभी सार्वजनिक कार्य हिंदी में नहीं होते, यह देश प्रगति नहीं कर सकता। जब तक कांग्रेस ‘राष्ट्रभाषा’ में कार्य नहीं करती, स्वराज की प्राप्ति नहीं हो सकती।”
यह उन्होंने तब कहा जब राष्ट्रभाषा का कंसेप्ट नहीं आया था, और हिंदी तो इस मंजिल से कोसों दूर थी। ‘स्वराज’ का घोष करने वाले तिलक जीवित थे, और वे स्वयं मराठी या अंग्रेज़ी में ही संवाद करते थे। तिलक द्वारा अंग्रेज़ी में दिए भाषण के बाद गांधी ने कहा,
“यह अच्छा होगा कि लोकमान्य तिलक हिंदी में ही संवाद करें। जब लॉर्ड डफ़रिन और चेम्सफोर्ड हिंदी सीख सकते हैं, तो वह क्यों नहीं? मैं प्रस्ताव रखता हूँ कि अगले वर्ष से हर कांग्रेस भाषण हिंदी में हो।”
कहीं न कहीं गांधी अपने खादी, चरखा आदि की तरह हिंदी भाषा को एक राष्ट्रवाद का माध्यम बना रहे थे, और अंग्रेज़ी के ख़िलाफ़ विरोध का माध्यम भी। इस कारण जिन उत्तर भारतीय रियासतों में स्थानीय भाषा प्रयोग होती थी, वे गांधी का सहयोग देकर हिंदी का समर्थन करने लगे। फलस्वरूप वे सभी भाषाएँ (अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि) धीरे-धीरे हिंदी की छत्र-छाया में आने लगी। उन्हें संविधान में भी उचित स्थान नहीं मिला, और कुछ तो अब ‘हिंदी की बोलियाँ’ कहलाने लगी है। मुसलमानों के लिए गांधी का मॉडल यह था कि भाषा ‘हिंदुस्तानी’ कहलाएगी और लिपि नागरी अथवा उर्दू प्रयोग होंगे।
गांधी ने युद्ध-स्तर पर हिंदी भाषा का झंडा उठाया। इंदौर से लौट कर उन्होंने उसी वर्ष 1918 में मद्रास में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना कर दी। उनका जुनून इसी से समझा सकता है कि वहाँ हिंदी पढ़ाने के लिए अपने पुत्र देवदास गांधी को लगभग ज़बरदस्ती मद्रास में बिठा दिया। उन्हें यकीन था कि उनके प्रचारक धीरे-धीरे दक्षिण भारतीयों को हिंदी भाषा सिखा देंगे। गांधी अपनी मृत्यु तक इस सभा के अध्यक्ष रहे। यह जान कर शायद आश्चर्य हो कि आज भी इस सभा के सबसे अधिक हिंदी प्रचारकों की संख्या तमिलनाडु में है, और सबसे अधिक हिंदी परीक्षार्थी भी तमिलनाडु में ही हैं।
मद्रास के विद्यालयों में हिंदी 1931 में जस्टिस पार्टी सरकार ले आयी थी। यह कुछ बच्चे पढ़ रहे थे। गांधी को सुनने के लिए भी लोग सीख रहे थे। जबकि हिंदी या उससे मिलती-जुलती भाषा और लिपि वहाँ हज़ारों वर्षों में बोली नहीं गयी थी। कांग्रेस द्वारा इस प्रक्रिया में कुछ हड़बड़ी हो गयी।
मद्रास में जब शुद्ध तमिल आंदोलन चल रहे थे, उस समय कांग्रेस ने चुनाव जीता था। कुछ दिन माहौल देखते, धीरे-धीरे आगे बढ़ते, जनमत कराते, कुछ विश्वास बनाते। इसे तमिल के साथ कुछ वर्ष वैकल्पिक रखते। राजागोपालाचारी ने 1937 में पद संभालते ही घोषणा कर दी कि विद्यालयों में हिंदी अनिवार्य होगी। पेरियार, जो हार के बाद अपनी ज़मीन तलाश रहे थे, उन्हें गरमा-गरम मुद्दा मिल गया। राजाजी ब्राह्मण भी थे, तो द्रविड़-विरोधी नैरेटिव के खांचे में उपयुक्त थे।
‘कुडी आरसू’ में एक कार्टून छपा। शीर्षक था ‘आचार्य सगासम’ (आचार्य के कारनामे)। उस कार्टून में राजाजी तमिल ताई (माँ) का चीरहरण करते हुए छुरा भोंक रहे थे।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - दो (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/13_21.html
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