पांच साल से यह सरकार जम्मू कश्मीर में हैं और आज यह पता चल रहा है कि वहां अमरनाथ यात्रा के मार्ग में बारुदी सुरंग और अन्य विस्फोटक मिले हैं। वहां गये सभी अमरनाथ यात्रियों से कहा जा रहा है कि वे वापस जाँय। यात्रा बंद हो गयी है।
2015 से तो जम्मू कश्मीर में भाजपा सत्ता में रही है। पहले वह पीडीपी के साथ गठबंधन कर के सत्ता में थी। उसका उपमुख्यमंत्री भी था। संघ के राम माधव वहां सारा कामधाम देखते थे। अब भाजपा गवर्नर के माध्यम से सत्ता में है। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ, कि अमरनाथ यात्रा अचानक बंद करनी पड़ी और सबसे अधिक फोर्स का मूवमेंट आज कश्मीर में करना पड़ रहा है ? उल्लेखनीय है कि कठिन से कठिन समय मे भी यह यात्रा बंद नहीं की गयी थी। यह हुर्रियत का एजेंडा था कि वह इस यात्रा के बंद करने के पक्ष में थी। अभी तक तो सरकार का यह बयान आ रहा था कि, कश्मीर के हालात बेहतर हैं और अब अचानक यह यात्रा स्थगित कर देना कोई अशनि संकेत तो नहीं है ?
खुफिया सूचना के बावजूद, 1999 में करगिल घुसपैठ और युद्ध हुआ था। जिसमे 1965, और 1971 के युद्धों के आकार की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक सैन्यहानि हुयी थी। करगिल के घुसपैठ की अग्रिम सूचना तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को रॉ ने दे दिया था । यह बात निदेशक रॉ एएस दुलत ने अपनी किताब में लिखा है। चंडीगढ़ में आयोजित एक कार्यक्रम में रॉ के पूर्व प्रमुख ने बताया कि करगिल युद्ध होने से पहले सीमा पर असामान्य गतिविधियों की जानकारी गृह मंत्रालय को समय से पूर्व दी जा चुकी थी। यह भी कहा कि, अन्य खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों का कहना था खुफिया सूचनाओं को अधिक समय तक लटकाए नहीं रखा जा सकता, उन पर तुरंत सूझबूझ भरी कार्रवाई होनी चाहिए।
एएस दुलत के इस उल्लेख का न तो एलके आडवाणी ने कोई खंडन किया और न ही सरकार ने। हालांकि एलके आडवाणी ने अपनी आत्मकथा, माई कंट्री, माई लाइफ, मेरा देश मेरा जीवन मे, करगिल के बारे में यह बात कि उन्हें रॉ ने जानकारी दी थी का उल्लेख नही किया है। उन्होंने घुसपैठ से अनभिज्ञता ही प्रकट की है। इसका कारण करगिल, सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील मामला था, इस लिये हो सकता है वे इस विंदु पर अधिक स्पष्ट न हुये हों। पर अब जब यह बात सार्वजनिक हो गयी है तो उन्हें भी अपना पक्ष रख देना चाहिये ।
करगिल के बाद एनडीए के कार्यकाल में, पठानकोट एयरबेस पर हुआ हमला एक बड़ा हमला था। 2 जनवरी 2016 को तड़के सुबह 3:30 बजे पंजाब के पठानकोट में पठानकोट वायु सेना स्टेशन पर आतंकवादियों ने आक्रमण कर दिया। जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों से मुठभेड़ में 2 जवान शहीद हो गये जबकि 3 अन्य घायल सिपाहियों ने अस्पताल में दम तोड़ दिया। सभी आतंकवादी भी मारे गये। यह हमला आईएसआई द्वारा प्लान किया गया था । पर न जाने क्यों सरकार ने उसी आईएसआई को ही वहां जांच करने के लिये न्योता दे दिया। आईएसआई हमारे यहां जांच करने तो आई, पर उसने हमारी एजेंसी को अपने यहां अपने यहां प्रवेश की अनुमति नहीं दी। उसने तीन घँटे की जांच में खुद को ही निर्दोष घोषित कर दिया। यह कदम सुरक्षा और अपराध के अन्वेषण के लिहाज से बिलकुल उचित नहीं था।
फिर, उरी हमला हुआ। उरी हमला 18 सितम्बर 2016 को जम्मू और कश्मीर के उरी सेक्टर में एलओसी के पास स्थित भारतीय सेना के स्थानीय मुख्यालय पर हुआ, एक आतंकी हमला था, जिसमें 18 जवान शहीद हो गए। सैन्य बलों की कार्रवाई में सभी चार आतंकी मारे गए। यह भारतीय सेना पर किया गया, लगभग 20 सालों में सबसे बड़ा हमला था । उरी हमले में सीमा पार बैठे आतंकियों का हाथ बताया गया है। इनकी योजना के तहत ही सेना के कैंप पर फिदायीन हमला किया गया। हमलावरों के द्वारा निहत्थे और सोते हुए जवानों पर ताबड़तोड़ फायरिंग की गयी ताकि ज्यादा से ज्यादा जवानों को मारा जा सके। इसका जवाब सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक में पाक सेना के कैम्पो पर लाइन ऑफ कंट्रोल के पास अंदर जा कर हमला करके दिया । पाकिस्तान पर इस सर्जिकल स्ट्राइक का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा।
चुनाव के ठीक दो महीने पहले, 14 फरवरी 2019 को, जम्मू श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर भारतीय सुरक्षा कर्मियों को ले जाने वाले सी०आर०पी०एफ० के वाहनों के काफिले पर आत्मघाती हमला आतंकवादीयों द्वारा किया गया। जब फोर्स का मूवमेंट हो रहा था तो पुलवामा में सीआरपीएफ के एक काफिले में एक कार ने जिसपर, आरडीएक्स लदा था ने एक बस को टक्कर मारी जिसमे 45 जवान मारे गए और यह घटना बेहद दुःखद और बड़ी आतंकी घटना थी। पर इस सूचना में खुफिया चूक थी या खुफिया सूचना के बाद सीआरपीएफ की रणनीतिक चूक थी, यह अब तक पता नहीं है। इसी के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक हुयी और अभिनंदन को बंदी बनाने और फिर कूटनीतिक प्रयासों से उन्हे छोड़ने के घटनाक्रम हुये ।
कश्मीर में सुरक्षा के लिये फोर्स के डिप्लॉयमेंट के लिये, जो हो रहा है वह कोई अजूबा नहीं है। सभी सरकारें खतरे की आशंका को देखते हुए, मौके की नजाकत और वक़्त की ज़रूरत के हिसाब से सुरक्षा बल डिप्लॉय करती रहती हैं। अब भी हो रहा है। पर कश्मीर को लेकर इधर कूटनीतिक गतिविधियां थोड़ी बढ़ी हैं। इस मामले को लेकर जिस प्रकार से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के बयान प्रधानमंत्री मोदी को गलत उद्धृत करते हुये आये वह यह बता रहा है कि अमेरिका के मन मे कुछ न कुछ पक रहा है।
अफगानिस्तान, अमेरिका के लिये अब सिरदर्द बन गया है। अमेरिका एशिया के मामलों में टांग तो तुरन्त अड़ाता है पर जब घिरता है तो निकल के भागना भी चाहता है। उसके एशियाई मामलों में दखल देने का एक ही मक़सद है कि वह यहां युद्ध के लिये बाजार की खोज करता रहे। उसकी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, को जीवित रहने के लिये लाभ चाहिये। और एक युद्धरत देश, क्षेत्र और जीवन मरण के सवाल में उलझे देशों से बेहतर बाजार कहाँ मिल सकता है। मैं यहां हथियारों के बाजार की बात कर रहा हूँ।
अमेरिका ने पहले रूस और चीन के कम्युनिस्ट प्रभुत्व को रोकने के लिये वियतनाम में दखल दिया जो युद्ध मे बदल गया। वियतनाम युद्ध (1 नवम्बर 1955 - 30 अप्रैल 1975) शीतयुद्ध काल में वियतनाम, लाओस तथा कंबोडिया की धरती पर लड़ी गयी एक भयंकर जंग थी। प्रथम हिन्द चीन युद्ध के बाद आरम्भ हुआ यह युद्ध उत्तरी वियतनाम (कम्युनिस्ट मित्रों द्वारा समर्थित) तथा दक्षिण वियतनाम की सरकार (यूएसए और अन्य साम्यवाद विरोधी देशों द्वारा समर्थित) के बीच में लड़ा गया। इसे "द्वितीय हिन्द चीन युद्ध" भी कहते हैं। इसे शीतयुद्ध के दौरान साम्यवादी और—विचारधारा के मध्य एक प्रतीकात्मक युद्ध के रूप में भी देखा जाता है। पर जब युद्ध लंबा चला और अमेरिका का खर्च बढ़ने लगा तो वह वहां से भागने का बहाना ढूंढने लगा। अंत मे वियतनाम लगभग तहस नहस हो गया पर वह झुका नहीं। अमेरिका को वहां से भागना पड़ा। हो ची मिन्ह वियतनाम के नायक होकर उभरे।
अब अमेरिका फिर अफगानिस्तान में फंस गया है। अफ़ग़ानिस्तान में रूसी समर्थक निज़ाम को खत्म करने के लिये उसने तालिबान को ज़िंदा किया। जब जब सोवियत रूस 1989 में टूटने लगा और अफगानिस्तान में अपनी ही समस्या में उलझे और टूटे रूस की रुचि कम हो गयी तो जो तालिबान, रूस के लिये खतरा बनाने के नाम पर वहां पाला पोसा गया था, वह खुद ही वहां का शासक बन गया। आब अमेरिका उसे खत्म करने के लिये एक नए युद्ध मे फंस गया, जो उसके लिये आत्मघाती ही सिद्ध हुआ। ऐसी परिस्थिति में पाकिस्तान ने अमेरिका की इस सामरिक मजबूरी का खूब लाभ उठाया। लगातार लंबे समय से युद्ध के बाद तबाही फैल गयी तो अमेरिका को अफगानिस्तान में फंसे रहना महंगा लगने लगा। वह वहां से निकलने की जुगत में अब लग गया है।
पाकिस्तान उसका पुराना वफादार मुल्क है। वह अमेरिका से लात भी खाता है और फिर उसकी शरण मे भी जाता है । इसका कारण उसकी खराब आर्थिक स्थिति है। धर्मांधता और भारत को बर्बाद करने की उसकी सनक में उसने अपना इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित ही नहीं किया। अमेरिकी पैसे पर पलने वाली पाक सरकार का मूल मंत्र ही अल्लाह आर्मी, और अमेरिका बन गया। अब अमेरिका अफगानिस्तान के तालिबान को पाकिस्तान के कंधे पर टिका कर वहां से निकल जाने की जुगत में है। और जो कुछ भी अब झेलना होगा पाकिस्तान और तालिबान झेलेंगे।
ट्रम्प ने इमरान के इस चाटुकारिता वाले सवाल पर कि आप, हुजूर दुनिया के आला हाकिम हैं, आप ही हमारा और भारत का मसला हल कर दीजिए। ( यह वे शब्द नही है जो इमरान खान ने कहा था, बल्कि मैंने इमरान का जो आशय है उसी रूप में यहां रखा है ) इस पर ट्रम्प ने यह कह कर कि उनसे मध्यस्थता के लिये मोदी ने भी कहा था, भारत के लिये एक कूटनीतिक समस्या खड़ी कर दी। यह समस्या भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी के लिये अधिक हुयी, क्योंकि ट्रम्प ने इस रहस्य का श्रोत ही अपनी और मोदी जी की बातचीत का संदर्भ बताया था।
ट्रम्प की बात का तुरंत हमारे विदेश विभाग के प्रवक्ता ने उसी समय खंडन कर दिया और दूसरे दिन संसद में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी प्रधानमंत्री की ऐसी कोई बात ही अमेरिका के राष्ट्रपति से नहीं हुयी थी, कह कर इस मामले को स्पष्ट कर दिया। पर दूसरे दिन व्हाइट हाउस के सलाहकार ने यह कह कर कि उनके राष्ट्रपति झूठ नहीं बोलते हैं, इस मामले को फिर तूल दे दिया।
चीन ने भी ट्रंप की मध्यस्थता का स्वागत किया। पर जब मध्यस्थता जैसी कोई बात ही नहीं है तो इन सब बातों का कोई मतलब नहीं है। आज भी ट्रम्प ने फिर कहा है कि वे मध्यस्थता के लिये तैयार हैं। अमेरिका की यह पुरानी इच्छा है कि वह कश्मीर मामले में पंच बने। यह इच्छा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन के समय से है। वह अपनी प्रासंगिकता बनाये रख के कश्मीर के माध्यम से अपने उभर रहे नए प्रतिद्वंद्वी चीन पर भी नज़र रखना चाहता है। पर अमेरिका को कभी भी अवसर नहीं मिला। भारत ने 1971 में पहले शिमला समझौता और 1999 में दुबारा लाहौर घोषणापत्र में अपना स्टैंड साफ कर दिया है कि वह किसी भी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार ही नहीं करेगा। भारत का यही आधिकारिक स्टैंड आज भी है।
अमेरिका इधर पाकिस्तान की तरफ थोड़ा अधिक झुक रहा है। उसे अफ़ग़ानिस्तान में उसका साथ चाहिये। इसीलिए उसने पाकिस्तान की आर्थिक मदद बढ़ा दी है और उसे एफ 16 युद्धक विमान भी दिये हैं। उसने भारत को भी सैन्य मदद दी है पर यह मदद संतुलन बनाने के लिये है । ट्रंप का यह बयान कि वह भारत पाक में मध्यस्थता करना चाहते हैं, पाकिस्तान को खुश करने के लिये अधिक है। उनका एजेंडा ही अफगानिस्तान से मुक्ति पाना है।
लेकिन,तीस साल पहले जो कश्मीर में हालात थे लगभग वैसे ही आज के हालात दिख रहे हैं। तीस साल पहले एक गवर्नर जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा देने के बजाय काश्मीर से निकल जाने का मशविरा दिया था। तब से निकले कश्मीरी पंडित आज भी जलावतन है। 1998 से 2004 और अब 2014 से अब तक कुल 12 साल के भाजपा एनडीए राज्य में इन कश्मीरी पंडितों के नाम पर उन्माद तो फैलाया गया पर उन्हें दुबारा बसाने की न तो कोई योजना बनायी गयी और न ही, कोई प्रयास किया गया। अब फिर भाजपा का शासन है, और वह भी पूर्ण बहुमत से । आज फिर सरकार ने सभी को घाटी छोड़ने का फरमान जारी किया है। जो यहां के हैं वे तो लौट के आ जाएंगे पर जो वहीं के हैं, वे कहां जाएंगे। ज़ाहिर है वही रहेंगे। उनकी सुरक्षा ज़रूरी है।
सरकार, कश्मीर में सावधानी बरत रही है यह बहुत अच्छी बात है। यह कहा जा रहा है कि धारा 35A के खत्म करने पर जो सम्भावित प्रतिक्रिया हो सकती है उसी के संदर्भ में यह एक एहतियाती कदम है। धारा 35A एक अजब प्राविधान है जो केवल राष्ट्रपति के आदेश से लागू है। यह राज्य की नागरिकता से सम्बंधित है। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी मामला लंबित है। सरकार कल क्या कदम उठाती है यह तो बाद की बात है, पर सुरक्षा और कानून व्यवस्था तो राज्य का प्रथम दायित्व है उसे हर हाल में, बने रहना चाहिये।
© विजय शंकर सिंह
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