अंततः आरबीआई ने सरकार को अपने रिज़र्व फंड में से धन दे ही दिया। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के इतिहास में यह एक बड़ी घटना है जो इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि सरकार के खजाने में सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है। इस समय प्रत्यक्ष कर संग्रह लगभग आधा हो गया है, जीएसटी के अगर रिफंड निकाल दिए जांय तो, उसका भी संग्रह आशा के विपरीत ही होगा। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है, व्यापार घाटा भी चिंताजनक स्थिति में है। मैन्युफैक्चरिंग सूचकांक भी कम है और अर्थव्यवस्था के जितने भी इंडिकेटर हैं वे गिरती हुयी आर्थिक स्थिति की ही कहानी कह रहे हैं।
सरकार को नोटबंदी के समय यह अंदाजा रहा हो या न रहा हो कि नोटबंदी का असर अर्थव्यवस्था पर क्या पड़ेगा पर अब यह लगभग पक्का हो गया है कि आज जिस भँवर में देश की आर्थिक नाव फंस कर चक्कर खा रही है और उसे कोई करार नहीं मिल रहा है का एक प्रमुख कारण नोटबंदी का मूर्खता पूर्ण फैसला था, जिसका लेश मात्र भी लाभ देश की अर्थव्यवस्था और जनता को नहीं मिला। राजनीतिक लाभ और चुनिंदा पूंजीपतियों को कुछ लाभ मिला हो तो वह अलग बात है। नोटबंदी का निर्णय एक देशघाती निर्णय था। उससे वे सब लक्ष्य भी पूरे नहीं हुए जिनका वादा तब प्रधानमंत्री ने किया था।
उसी के बाद आयी जीएसटी। एक देश एक कर, यह खूबसूरत नारा तो था पर इसने उद्योग व्यापार को छला भी खूब। न तो तब नियम स्पष्ट थे, और कुछ हद तक न आज सबको स्पष्ट हैं,, न तो तब अफसरो को पता था कि यह कर संग्रह कैसे किया जाय और न आज सब समझ पाए है, न इसके जमा करने की प्रक्रिया तब सरल थी, न आज सरल है और ऊपर से हर महीने में तीन रिटर्न भरने का मूर्खतापूर्ण आदेश तो है ही। कर संग्रह जब तक सरल और स्पष्ट नहीं होगा, तब तक कर सुगमता से न तो दिए जा सकेंगे और न ही सरकार कर संग्रह कर पायेगी। जीएसटी के साथ भी यही हुआ। यह अब तक का सबसे भ्रमपूर्ण और मूर्खतापूर्ण तरीके से लागू किया जाने वाला कर सुधार है ।
सरकार को अपनी गलतियों और आर्थिक दुरवस्था का अंदाज़ हो गया था। जब यह समस्याएं थीं तभी एक एक कर के बैंकों के घोटाले और एनपीए की खबरें आने लगी। आईसीआईसीआई बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, यस बैंक, के एनपीए चिंताजनक हो गए। निश्चय ही यह बैड लोन की बीमारी यूपीए के समय की भी थी, पर पूंजीपतियों को लोन देने में वर्तमान सरकार ने भी कोई कम उदारता नहीं दिखाई। आईएलएफएस पर भी मंदी के बादल गहराए और सरकार के जो इस मुश्किल समय मे खेवनहार थे उन्होंने भी सरकार का साथ छोड़ना शुरू कर दिया। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद पनगढ़िया जो योजना आयोग के विघटन के बाद नवगठित नीति आयोग के पहले मुख्य कार्यपालक अधिकारी सीईओ बने थे, ने भी 1 अगस्त 2017 को अपना, त्यागपत्र, निजी कारण बता कर सरकार को सौंप दिया।
अब सरकार के पास धन के स्रोत के लिये आरबीआई की समृद्ध और अनछुई तिजोरी ही एक सहारा थी। आरबीआई का यह रिज़र्व अत्यंत गंभीर परिस्थितियों के लिये ही रखा रहता है। विशेषकर जब आर्थिक आपातकाल जैसी परिस्थितियां सामने आ जाँय तो यह गड़ेधन के रूप में काम आता है। सरकार ने आरबीआई से यह धन लेना चाहा, पर आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल इस धनदान हेतु तैयार नहीं हुए और उन्होंने सरकार के दबाव में आकर कोई निर्णय लेने के बजाय, अपने पद से ही, 10 दिसम्बर 2018 को इस्तीफा दे दिया। उनके जाने के बाद वित्त विभाग के पूर्व सचिव भारत सरकार शशिकांत दास ने आरबीआई गवर्नर का कार्यभार संभाला। फिलहाल वही इस पद पर हैं। वे कोई पेशेवर अर्थशास्त्री नहीं हैं बल्कि वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं।
आरबीआई एक स्वायत्त संस्थान है और देश की मौद्रिक नीति को संचालित करता है। वह सभी बैंकों और अन्य बैंकिंग गतिविधियों का नियामक और नियंत्रक भी है। वह सरकार के वित्त मंत्रालय का प्रमुख अंग होते हुए भी वित्त मंत्री के नियमित क्रियाकलाप से बाहर है। आरबीआई ने सरकार के धन लेने की इस योजना को अपनी स्वायत्तता पर अतिक्रमण माना। इस पर आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी अपना पद त्याग कर दिया। हालांकि विरल आचार्य ने भी अपने पद त्याग का कारण, निजी ही बताया पर इस्तीफा देने के कुछ समय पहले उन्होंने रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता के संदर्भ में खुलकर अपनी बात कही थी। सरकार द्वारा पैसे लेने के लिये आरबीआई एक्ट की धारा 7 के उपयोग में लाने के सरकार के निर्णय को आरबीआई की स्वायत्तता पर अतिक्रमण भी अपने एक भाषण में बताया था। इससे यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि वे भी सरकार के इस कदम से खिन्न थे। सरकार को पैसे की ज़रूरत थी और वह उसे इस आपात स्थिति में आरबीआई से ही मिल सकते थे ।
तब सरकार ने आरबीआई के पूर्व गवर्नर विमल जालान की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की, जिसे यह दायित्व दिया गया कि वह इस बात का परीक्षण करे कि क्या सरकार आरबीआई का रिज़र्व फंड अपने वित्तीय कार्य के लिये प्रयोग कर सकती है। बिमल जालान की अध्यक्षता वाली समिति ने 23 अगस्त, को अपनी रिपोर्ट आरबीआई को सौंपी थी। इस समिति का गठन यह सुझाने के लिए किया गया था कि आरबीआई के पास कितना रिजर्व होना चाहिए और उसे केंद्र सरकार को कितना लाभांश देना चाहिए। विमल जालान कमेटी ने यह अनुशंसा की कि, सरकार आरबीआई से एक मुश्त तो नहीं पर टुकड़ों टुकड़ों में धन ले सकती है। विमल जालान खुद भी रिज़र्व बैंक के गवर्नर रह चुके हैं। आज जो पैसा आरबीआई ने सरकार को देने का निर्णय किया है यह अभूतपूर्व निर्णय है। यह बेहद आपात परिस्थितियों के लिये रखा हुआ धन है। हम आर्थिक आपात काल की ओर बढ़ रहे हैं क्या ?
आज 26 अगस्त को आरबीआई बोर्ड की बैठक में विमल जालान समिति की सिफारिश मान ली गयी। लंबी कवायद और जद्दोजहद के बाद आज आरबीआई के बोर्ड ने यह निर्णय किया कि 2018 - 19 का पूरा सरप्लस धन जो ₹ 1,23,414 करोड़ है और ₹ 52,637 करोड़ जो पुनरीक्षित इकनॉमिक कैपिटल फ्रेम वर्क का है उसे मिला कर कुल ₹ 1,76,051 करोड़ सरकार के खाते में ट्रांसफर करने का फैसला किया है।
आज 26 अगस्त को डॉलर का विनिमय मूल्य 72 रुपये से अधिक हो गया है। अर्थव्यवस्था के इस बुरे दौर का असर, अपराधों पर भी पड़ेगा। यह एक तयशुदा सिद्धांत है जब अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती है, लोगों को नयी नौकरियां मिलना तो दूर, लगी लगाई नौकरियां जब जाने लगती हैं, और पात्रता के अनुसार नौकरियां सृजित नहीं होती हैं तो जो फ्रस्ट्रेशन उपजता है वह मन को अपराध की ओर ठेल देता है। समाज के लिये यह बेहद संकटों का काल होता है।
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment