Friday, 9 August 2019

खुला पत्र - अरुण माहेश्वरी का प्रधानमंत्री को खुला पत्र / विजय शंकर सिंह

इतिहास कहीं आपको महाविध्वंसक के रूप में न याद करे!

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

कल रात हम काफी देर तक ‘नेटफ्लिक्स’ पर सीरिया और गाजा के बारे में वृत्त चित्रों को देख रहे थे। आतंक, हत्या, खून-खराबे और भारी गोला-बारूद के बीच वहां चल रही जिंदगी के दिल दहला देने वाले उन दृश्यों को सचमुच हम पूरा देख ही नहीं पाये। डर और खौफ की बिल्कुल वही अनुभूति जो कभी विश्व युद्धों के दौरान यूरोप के लोगों में पैदा हुई होगी और जिसने डर से जुड़ी काफ्कास्क्यू की तीव्र अनुभूति और मृत्युमुखी मनुष्य के जीवन-सत्य पर आधारित अस्तित्ववाद के दर्शन को जन्म दिया, अपनी रीढ़ में हमने एकबारगी उसी की तीव्र सिहरन को महसूस किया । दोनों वृत्त चित्रों को आधे में ही रोक दिया ।

प्रधानमंत्री जी! सन् 1857 के कत्लेआम के बाद जलियांवाला बाग के एक डायर ने हमारे पूरे राष्ट्र को हमेशा के लिये झकझोर कर रख दिया था, वहां सीरिया और गाजा में तो हम आम लोगों पर दनादन गोलियां बरसाते डायरों की कतार की कतार को देख रहे थे। और हम देख रहे थे कि कैसे आम लोग उन्हीं भीषण गोलाबारियों के बीच अपने बच्चों को बड़ा कर रहे थे, बंदूक के माप से बढ़ते हुए बच्चों की लंबाइयों को माप रहे थे ।

संभव है, कोई दूसरा समय होता तो हम इन वृत्त चित्रों को वैसे ही देख लेते, जैसे दुनिया के लोगों ने इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिकी बमबारियों को कोरी आतिशबाजियों की तरह देख कर उनका आनंद लिया था। लेकिन इन वृत्तचित्रों में, सिर्फ आसमान से बरसते गोलों और उनके धमाकों की आग की चमक नहीं थी, यहां तो बाकायदा शहरों के गली-मुहल्लों की बस्तियों में ढहा दिये गये मकानों के खंडहरों के बीच मनुष्यों के समाजों के सफाये के वे जीवंत दृश्य थे जो द्वितीय विश्वयुद्ध के काल की कहानियों पर बनी फिल्मों में ही हम देखते रहे हैं ।

प्रधानमंत्री जी, भारत ने अपने जीवन-काल में विभाजन के दंगों में जीवन की ऐसी त्रासदियों के रूपों को देखा था, लेकिन कोई राज्य अपने ही लोगों को पागलों की तरह गोलियों से भून रहा हो, उसका सबसे नग्न रूप जलियांवाला बाग हत्याकांड में ही देखने को मिला था। इसीलिये सीरिया और गाजा के वृत्त चित्रों को देख कर हम वास्तव में कांप उठे थे। मृत्यु के मुहाने पर मनुष्यों के सत्य से ऐसी मुठभेड़ हमें सिर्फ डरा रही थी, सिर्फ डरा रही थी ।

प्रधानमंत्री जी, कोई कह सकता है, हम कमजोर दिल के लोग हैं । हमें उसमें सीरिया के आम लोगों और फिलिस्तीनियों की बहादुरी के आदर्शों को देखना चाहिए । लेकिन वास्तव में हम तो उनमें कोई बहादुरी नहीं, आदमी की पस्ती और मृत्यु के सामने आत्म-समर्पण की लाचारी की करुण कहानी के अलावा और कुछ नहीं देख पा रहे थे । वे, जो कह रहे थे, हम डर नाम की चीज नहीं जानते, वे डर से ही अपने डर को काटने की कथित बहादुरी का प्रदर्शन कर रहे थे । वे ‘डर नहीं जानते’, क्योंकि वे सिर्फ डर को ही जी रहे थे!

हम यहां इराक, अफगानिस्तान के विध्वंस को सह गये थे, क्योंकि तब हम शायद उनसे अपनी धड़कनों पर कोई दबाव नहीं महसूस कर रहे थे । सीरिया और गाजा को भी हम अभी उसी तरह झेल सकते थे । लेकिन कल रात सचमुच नहीं झेल पा रहे थे । हमें यही लग रहा था कि सीरिया और गाजा अब हमसे दूर नहीं हैं । न हिटलर, मुसोलिनी ही कोई सुदूर अतीत लग रहे थे ।

कश्मीर की स्थिति की कल्पना से हम अनायास ही उन तमाम विध्वंस लीलाओं को, नागरिक जीवन की उस नारकीय दुर्दशा को बिल्कुल अपने देश के अंदर महसूस करके आतंकित थे । हम एक स्वाधीन देश के लोग, जिन्होंने न जाने कैसी-कैसी लड़ाइयों से अपनी आजादी को अर्जित किया है, हम किसी को भी गुलाम बनाने, कुचल-मसल डालने के कुत्सित भावनात्मक आवेग के चौतरफा दिख रहे दृश्य से भी बुरी तरह विचलित हो गये थे । हम नहीं चाहते कि हमारे देश के किसी भी अंश के लोगों को हम सीरिया और गाजा की तरह की परिस्थितियों में जीने के लिये मजबूर करें ।

प्रधानमंत्री जी, सचमुच हम अपने देश में इस आसन्न संकट की आहट सुन कर बुरी तरह डर गये थे । जन-जीवन पर राज्य के नग्न दमन और खुफियातंत्र का खौफ हम जैसे प्रत्यक्ष देख पा रहे हों !

बहरहाल, कल ही प्रधानमंत्री जी, आपने कश्मीर में अपनी कार्रवाई के संदर्भ में राष्ट्र को संबोधित किया था । सबसे अच्छी बात थी कि आपके भाषण के साथ फौजी वर्दी और बूटों की आहट जैसी कोई चीज जुड़ी हुई नहीं थी । उनके साथ न कहीं किसी फौजी की बंदूक की चमक भी दिखाई दे रही थी । आप अपनी बात अब भी किसी विजयी के अंदाज में भुजाएं फड़काते हुए नहीं बोल रहे थे । आपकी सारी मुद्राएं आश्वस्तिदायक लग रही थीं। आप अपनी हमेशा की फैसनेबुल पोशाक में, पूरे मेकअप के साथ चमक रहे थे । इसीलिये सचमुच डरा नहीं रहे थे ।

लेकिन हम यही कहेंगे कि प्रधानमंत्री जी, आप जो दलील दे रहे थे कि धारा 370 की वजह से वह सब अटका हुआ था, जिनकी कश्मीर के लोगों के जीवन में सुधार के लिये सख्त जरूरत है — वे दलीलें तथ्यों के किसी भी मानदंड पर कहीं टिकती नहीं लग रही हैं । ज्यादा विस्तार में जाने के बजाय, यही कहना काफी होगा कि मानव विकास के मानकों पर भारत के करीब 16 राज्य ऐसे हैं, जो कश्मीर से काफी पीछे हैं । कई मामलों में तो आपका गुजरात भी कश्मीर का मुकाबला नहीं कर पा रहा है ।

बहरहाल, हम अभी आपके इस कदम के औचित्य-अनौचित्य की बहस को उठाना नहीं चाहते । लेकिन यह जरूर कहेंगे कि यह आपका और आपके राजनीतिक परिवार का एक सबसे पुराना एजेंडा था, इतना ही उसे सही साबित करने के लिये काफी नहीं है । बल्कि कई बार ऐसे मौके आए, जब आप सबने इन एजेंडों को त्याग कर ही जनता का मत चाहा था ।

प्रधानमंत्री जी, हम यह मानते हैं कि अभी भारत के बहुसंख्यक लोगों में हिंदू सांप्रदायिक उन्माद अपने चरम पर है । लेकिन उन्माद अन्ततः उन्माद ही है । यह व्यक्ति में स्वस्थ नागिरक मूल्यों का स्खलन है, मान्य सम्मानपूर्ण मानवीय व्यवहारों से इंकार की जिद है । यह स्वयं में किसी भी राष्ट्र की आंतरिक संहति के बिखराव का प्रमाण है । इसे आधार बना कर किसी भी राष्ट्र का निर्माण नहीं, सिर्फ उसका विध्वंस ही किया जा सकता है ।

इन्हीं तमाम कारणों से, प्रधानमंत्री जी, हमारा आपसे करबद्ध निवेदन है कि आप अपने इस कदम पर पुनर्विचार करके राष्ट्र में शांति और एकता के प्रति अपनी मानवीय भावनाओं का परिचय दीजिए और तत्काल जम्मू और कश्मीर को उसका राज्य का दर्जा वापस करके उसके साथ वास्तव में भारत के एक अभिन्न अंग की तरह का व्यवहार कीजिए ।

यकीन मानिये, यदि आज के चरण में भी आप इस प्रकार की उदारता और बड़े दिल का परिचय देते हैं, तो इतिहास आपको एक विवेकवान, जागृत शासक के रूप में ही याद करेगा । आपको भारत को महा-विध्वंस के कगार से खींच लाने का श्रेय देगा ।

सविनय
अरुण माहेश्वरी   

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं और आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

( विजय शंकर सिंह )

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