Thursday 22 August 2019

कविता - ढोर और रातिब / विजय शंकर सिंह

ढोरों को अब बाड़ों में ,
हांक कर बन्द कर दिया गया,
कितना चारा देना है,
कितना पानी,
यह सब अब तय होगा,
कब उन्हें फिराया जाएगा,
और कब वे,
कुछ देर के लिए ही सही,
आज़ाद हवा को अपने
फेफड़ों में भरेंगे
इस पर बहसें जारी हैं ।
समितियों और उपसमितियों की रपटें,
नाक पर चश्मा चढ़ाये,
कुछ लोग, जिन्हें ढोरों से ही ,
चुना गया है,
पढ़ रहे हैं , और उन्ही में ,
मीन मेख निकाल रहे हैं ।

ढोर भी अज़ीब हैं,
सब कुछ खामोशी से,
रंभाते, हिनहिनाते,मिमिआते
और रेंकते हुए,
और कभी कभी तो कुछ गुर्राते हुए,
चुपचाप क़तारों में सर झुकाये,
एक दूसरे को धकेलते,
पूंछो और लातों से मारते हुए ,
बाड़े की उस छोटी सी खिड़की पर,
जहाँ, रातिब बंट रहा है,
इस उम्मीद में कि,
कुछ तो मिलेगा , खड़े हैं ।

सुना, ढोर जितने थे,
रातिब कम पड़ गया उनके लिए ।
बाबुओ और कारकुनों ने
खोल ली फाइलें फिर,
चश्में , उनके कानों से लटक कर,
नाक पर सरक आये ।
चश्मे के भीतर से मिचमीची आँखें भी,
कितनी बड़ी दिखती हैं, दोस्त,
वक़्त मिले तो गौर करना ।

खबर है, ढोरों के रहनुमा ने
कारकुनों को डांटा है,
वे कोईँ नया फरमान तैयार कर रहे हैं,
क्या करें, वे भी,
एक दिन ऐसे ही जब वह मौज़ में था,
फिंकवा दिया था, उसने सारा रातिब,
कह दिया , नया मिलेगा सबको,
रातिब , आ रहा है,
ढोर चुपचाप, जुगाली करते हुए,
बारिश की नमी और उमस में
पूंछों से मच्छर और कीड़े हांकते,
एक दूसरे की चुहल में ही,
ख़ुशी की तलाश कर रहे हैं ।
और मैं एनिमल फार्म की
एक पुरानी प्रति पढ़ते हुए,
जॉर्ज ऑरवेल से गुफ्तगू कर रहा हूँ !!

©  विजय शंकर सिंह

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