लहूलुहान अनुच्छेद 370 की कश्मीर व्यथा कथा
पहली किश्त
(1)भारतीय नेताओं के कारण सियासत का घाव पक गया है और उसमें मवाद भी है। सियासत की हर सांप्रदायिक खखार के जरिए देश के माहौल में हिंसा का बलगम थूका जा रहा है। यह समय बहुत परेशानदिमागी और चुनौतियों के साथ नागरिक खतरे का भी हो रहा है। हर सच को जिबह कर उसे नारों के गर्भगृह में भ्रूण बना दिया जाता है। यदि किसी घटना, निर्णय या तर्क की तटस्थ, उर्वर, बौद्धिक और देशज जांच की जाए तो उस पर नासमझ समर्थकों द्वारा कायिक, बौद्धिक और मानसिक हमले कराए जाते हैं। इसके बावजूद देश है कि उसे रोशनी की तरफ चलना है। घटाटोप अंधेरा अब उसका नहीं है जिसका सूरज दिन के चौबीस घंटे संसार के किसी मुल्क के ऊपर इतराता रहता था। यह खतरा हिन्दुस्तानी खुद उगा रहे हैं। हर समझदार नागरिक और विशेषकर युवा पीढ़ी को अब सभी विचारधाराओं को दरकिनार करके केवल उस राष्ट्रीय फलसफाई पुस्तक संविधान की इबारत को इस तरह समझने की जरूरत है मानो वह दिए या टाॅर्च की रोशनी बल्कि जुगनू की जगमग तो मान ली जाए जिससे अंधेरा छंटे। जम्मू कश्मीर की सत्यनारायण की कथा का पाठ हर उस पार्टी और नेता की आलोचना भी करेगा जिनके हाथ में सत्ता रही है। उनके साथ जिस तरह की मुश्किलें रही हैं उन्हें भी सहानुभूति की समझ के साथ देखना जरूरी है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हिंसा, हुड़दंग, हिकारत और हत्याएं राष्ट्रीय उपलब्धियों की तरह इतिहास की छाती पर टांक दी जाएंगी।
(2)संविधान के अनुच्छेद 370 को भाजपा की केन्द्र सरकार ने संवैधानिक भाषा में आंशिक रूप से खत्म किया है। उसका आधा हिस्सा अर्थात् अनुच्छेद (2) तथा (3) काटकर फेंकने से अनुच्छेद लहूलुहान हो गया है। केन्द्र सरकार का फैसला इतना गोपनीय, आक्रामक और यक-ब-यक हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। ऐसा नहीं भी है क्योंकि जनसंघ के जमाने से भाजपा अपने चुनाव घोषणापत्रों में साफ ऐलान करती रही है कि केन्द्र में उसकी सत्ता होने पर धारा 370 का खात्मा करेगी क्योंकि इसके कारण जम्मू कश्मीर भारत से एक तरह के भावनात्मक अलगाव में रहता आया है। यह तर्क विचित्र और जटिल होने के साथ साथ खारिज नहीं भी कहा जा सकता। मौजूदा लोकसभा में अपने अकेले दम पर आ चुकी भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक जमावड़े के लगभग दो तिहाई बहुमत के साथ अपनी पुरानी घोषणा को अमल में लाने का वायदा पूरा नहीं करती तो इतिहास में उसकी जगह सम्मानजनक नहीं बन पाएगी। यह भी है कि सरकार ने संविधान की मर्यादाओं को ताक में रखकर सभी स्टेक होल्डर्स से बात तक नहीं की। संभवतः संघ परिवार के अंतःपुर में फैसला किया गया होगा। राजग के घटक दलों से भी या तो परामर्श नहीं हुआ या इतना गुपचुप और गोपनीय हुआ कि उनमें से कुछ घटकों पर पहले से भाजपा को अविश्वास रहा होगा। कश्मीर की राजनीतिक पार्टियां तो केवल कुछ सूंघती ही रहीं। उनके नेताओं को पहले घर पर नजरबंद किया गया और बाद में गिरफ्तार भी।
(3)फैसले की सोची समझी प्रचारित अनुकूल धमक पूरे देश में है। जनता तो क्या कानून के कई विद्यार्थियों और वकीलों को भी कश्मीर संबंधी प्रावधानों की संवैधानिकता, ऐतिहासिकता सामाजिकता और सामासिकता की ठीक ठीक जानकारी नहीं है। अंगरेजी फिल्में देखती अधपकी समझ के भारतीय सिनेमाई दर्शक बीच बीच में तालियां बजाने लगते हैं या हंसने लगते हैं। उसी तरह नागरिक संचार माध्यमों से लेकर सड़कों तक, गोष्ठियों से लेकर सभाओं तक इस फैसले की लोकप्रिय पीठ थपथपा रहे होंगे। जम्मू कश्मीर समस्या देश से एक कठिन जिरह मांगती रही है। अंतहीन बहस का सिलसिला अभी भी कायम रहेगा। यह यात्रा कवि धूमिल को याद करते उलटबांसी में संसद से सड़क की ओर चल पड़ी है। कोई इस मामले को गंभीर तटस्थता से समझना चाहेगा तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और इस्लामी कठमुल्लापन की तरफ से उसके लिए देशद्रोही या तनखैया का नकाब उनकी फैक्ट्री में पहले से तैयार रहता है। इसके साथ साथ जम्मू कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तानी कबाइली आतंकवादियों से लेकर आज तक उस प्रदेश के हिंसक अलगाववादियों और पाक-परस्तों को भी कोई सच्चा भारतीय क्यों बख्शे? अनुच्छेद 370 उनके नापाक इरादों और हिन्दुस्तान के खिलाफ नफरत, हिंसा, खूंरेजी, संदिग्ध मुसलमानियत और जम्मू कश्मीर की जनता की भावना के साथ क्षेत्रीय, हिंसक, जातीय और सांप्रदायिक हरकतों के कारण संदेहजनक तो रहा है।
(4)जम्मू कश्मीर से संबंधित संववैधानिक प्रावधान शामिल करने की कवायद में भारत के विभाजन की दर्दनाक पृष्ठभूमि की अनदेखी नहीं की जा सकती। तफसील या तथ्यपरकता के चोचले में जाए बिना मोटे तौर पर यह तय है कि मुस्लिमपरस्ती और हिन्दूपरस्ती की भावनाओं के अतिरिक्त स्वतंत्रता संग्राम से उत्पन्न भारतीय राष्ट्रवाद और देसी राजाओं की अपनी निजी आजादी और स्वायत्तता के दलदल में अंगरेज ने कूटनीतिक चालों के अपने मोहरे चले। मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान में चले गए। गुजरात के जूनागढ़ का इलाका जनमत संग्रह तथा नेहरू, पटेल, वीपी मेनन वगैरह के कारण बचा। लगभग साढ़े पांच सौ देसी रियासतें इन्हीं नेताओं के कारण भारत संघ में शामिल होने के लिए स्वेच्छा या अनमने ढंग से ही सही तैयार हो गईं।
(5)भाजपा की एक और सायास तुरुप चाल है। वह भारत के इतिहास में स्वतंत्र भारत के नंबर 2 बेताज बादशाह सरदार पटेल को एकमात्र, सबसे बड़ा और अपराजेय नायक बनाने पर तुली रहती है। पटेल को एकछत्र नेता स्वीकार करते नेहरू की भत्सना करना जनसंघ के दिनों से भाजपा का जिद्दी एजेंडा चला आ रहा है। इतिहास का सच है कि सरदार पटेल ने शुरुआत में ऐसी अपुष्ट इच्छा व्यक्त की थी कि झगड़े का अंत करने कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया जाए। यह उनका राजनीतिक फलसफा नहीं था। इतिहास में वैकल्पिक, कामचलाऊ और समझौतापरक कच्चे उल्लेख नेता करते रहते हैं। चट्टानी दृढ़ता के सरदार पटेल ने ही अपने नेतृत्व के कारण देसी रियासतों का भारत संघ में विलीनीकरण कराया। नेहरू-पटेल युति ने आपसी विचार विमर्श के बाद कश्मीर पर एक राय कायम की। उसके बाद वह संविधान सभा के अनुच्छेद 306 (ख) (बाद में 370) के अनुसार सर्वसम्मति से दर्ज हुआ। बहुत महत्वपूर्ण है कि संविधान सभा में डाॅ. अंबेडकर, जनसंघ के बाद में हुए संस्थापक हिन्दू महासभा के डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बाद में हुए अध्यक्ष आचार्य रघुवीर भी बिना विरोध किए बैठे थे।
(6)संक्षेप में किस्सा यह है। 1947 में जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के डोगरा राजा हरिसिंह के सामने पाकिस्तान या हिन्दुस्तान में शामिल हो जाने या आजाद बने रहने के विकल्प थे। अधिकांश देसी रियासतों की तरह हरिसिंह के मन में भी आजाद बने रहने की खामखयाली के प्रमाण मिलते हैं। कुछ उग्र तथा इस्लामी कट्टरता के समर्थक पाकिस्तान के साथ मिलना चाहते रहे होंगे। हिन्दू और कई राष्ट्रवादी मुसलमान, जिनमें शेख अब्दुल्ला का भी नेतृत्व प्राप्त रहा होगा, भारत संघ में शामिल होने के पक्षधर बताए जाते हैं। दोनों के बीच राजा हरिसिंह की जम्मू कश्मीर को आजाद रखने की कुलबुलाहट इतिहास का मरा हुआ सच नहीं है। उन्होंने इस संबंध में 12 अगस्त 1947 के लिखे पत्र में भी यही इरादा बताया था। अचानक 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान की तरफ से आए कबाइली आदिवासियों वगैरह ने कश्मीर घाटी पर घातक हमला किया। कुछ हिस्सा उनके कब्जे में चला गया (जो आज तक है) उसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है। महाराजा के सेना प्रमुख ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह कुछ सैकड़ा वफादार सैनिकों के साथ हमलावरों से चार दिनों तक जूझते रहे। उनकी शहादत के कारण उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
( क्रमशः )
- कनक तिवारी
लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के वरिष्ठ एडवोकेट हैं।
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