8 अगस्त को बम्बई में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुयी और कांग्रेस ने महात्मा गांधी को स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में निर्णय लेने के लिये अधिकृत कर दिया। उसी दिन रात में गवालिया टैंक के मैदान में केवल घुटने तक धोती पहने गांधी मंच पर नमूदार हुये। वे एक अच्छे और उन्मादी वक्ता नहीं थे, पर जन संप्रेषक वे गज़ब थे। सत्तर मिनट के भाषण में उन्होंने अपनी बात कही और फिर निर्णायक आंदोलन के लिये जनता का आह्वान किया। वही आज़ादी के आंदोलन का आखिरी उद्घोष बना। वह निर्णायक उद्घोष, था अंग्रेजों भारत छोड़ो। यह नारा मुंबई कांग्रेस के नेता, यूसुफ मेहर अली के दिमाग की उपज थी। इसका भी एक रोचक इतिहास है।
आज़ादी की लड़ाई में दो नारे सबसे अधिक लोकप्रिय हुए और वे थे, साइमन गो बैक और भारत छोड़ो। भारत छोड़ो आंदोलन अचानक नहीं शुरू हुआ था, बल्कि इसकी भूमिका पहले से ही बन रही थी। बम्बई में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग के पहले वर्धा में इसकी एक मीटिंग 14 जुलाई 1942 को हुयी थी। उस मीटिंग में अब आज़ादी के लिये और अधिक इंतज़ार न करने का संकल्प लिया गया, और एक बड़े तथा निर्णायक आंदोलन छेड़ने पर सहमति बनी। इसके बाद बंबई में उक्त आंदोलन की रूपरेखा बनी। इसके पूर्व के हुये बड़े आंदोलनों असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन के समान इस भावी आंदोलन का भी नाम रखने पर चर्चा हुयी। गांधी जी के निकट सहयोगी सी राजगोपालाचारी ( राजाजी ) ने एक नारा सुझाया, रिट्रीट और विथड्रॉल । पर यह नारा गांधी जी को नहीं जंचा। तभी यूसुफ मेहर अली ने यह नारा दिया, क्विट इंडिया, भारत छोड़ो। गांधी जी ने इस नारे को स्वीकार कर लिया और देश के आज़ादी के सबसे बड़े जन आंदोलन का यह मुख्य उद्घोष बना।
सन बयालिस के इस महान आंदोलन के पहले की राजनीतिक गतिविधियां क्या थीं उसका उल्लेख आवश्यक है। 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पास हुआ। 1935 का भारतीय शासन/सरकार अधिनियम के अनुसार निम्न मुख्य बातें तय कीं गयीं थीं।
* एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की जाएगी जिसमें ब्रिटिश भारत के प्रान्तों के अतिरिक्त देशी नरेशों के राज्य भी सम्मिलित होंगे.
* प्रान्तों को स्वशासन का अधिकार दिया जाएगा. शासन के समस्त विषयों को तीन भागों में बाँटा गया –
संघीय विषय, जो केंद्र के अधीन थे;
प्रांतीय विषय, जो पूर्णतः प्रान्तों के अधीन थे; और
समवर्ती विषय, जो केंद्र और प्रांत के अधीन थे.
परन्तु यह निश्चित किया गया कि केंद्र और प्रान्तों में विरोध होने पर केंद्र का ही कानून मानी होगा. प्रांतीय विषयों में प्रान्तों को स्वशासन का अधिकार था और प्रान्तों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की गई थी अर्थात् गवर्नर व्यवस्थापिका-सभा के प्रति उत्तरदायी भारतीय मंत्रियों की सलाह से कार्य करेंगे. इसी कारण से यह कहा जाता है कि इस कानून द्वारा प्रांतीय स्वशासन की स्थापना की गई।
* केंद्र या राज्य सरकार के लिए द्वैध शासन की व्यवस्था की गई जैसे 1919 ई. के कानून के अंतर्गत प्रान्तों में की गई थी।
* भारतीय सरकार अधिनियम, 1935 के अंतर्गत एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
* एक केन्द्रीय बैंक रिजर्व बैैंैकककी स्थापना की गई।
* बर्मा और अदन को भारत के शासन से अलग कर दिया गया।
* सिंध और उड़ीसा के दो नवीन प्राप्त बनाए गए और उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रांत को गवर्नर के अधीन रखा गया।
* गवर्नर-जनरल और गवर्नरों को कुछ विशेष दायित्व, जैसे भारत में अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा, शान्ति, ब्रिटिश सम्राट और देशी नरेशों के सम्मान की रक्षा, विदेशी आक्रमण से रक्षा आदि प्रदान किए गए।
* इस कानून के द्वारा भी निर्वाचन में साम्प्रदायिकता प्रणाली का ही उपयोग किया गया पर परन्तु केंद्र और प्रांत दोनों के लिए मत देने की योग्यता में कमी कर दी गई जिसके परिणामस्वरूप मतदाताओं की संख्या बढ़कर 13% हो गई, जबकि 1919 ई. के कानून के अंतर्गत यह केवल 3% थी.
देश में पहली बार आम चुनाव सन् 1937 में हुये थे। यह चुनाव 1935 के अधिनियम के अंतर्गत सम्पन्न हुये थे। इसके लिए 1935 में ब्रिटिश संसद ने भारतीयों को प्रांतीय शासन के प्रबंध का अधिकार दिया था, जिसकी वजह से पहली बार भारत में चुनाव कराए गए थे।
इस चुनाव में, कांग्रेस को आगरा व अवध के संयुक्त प्रातं, मध्य प्रांत व बरार (अब मध्य प्रदेश), मद्रास, उड़ीसा तथा बिहार में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। इस तरह केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस को अंग्रेजों की ओर से यह आश्वासन मिला हुआ था कि वह जो सरकार गठित करेगी, उसमें गवर्नर जनरल बिना वजह हस्तक्षेप नहीं करेंगें। इसके बाद कांग्रेस ने आठ प्रांतों में अपनी सरकार बनाई। सिंध, उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत तथा असम में मिला-जुला मंत्रिमंडल गठित हुआ। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी ने और बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार बनाई।
1937 में प्रांतीय विधानसभा चुनावों के साथ ही विधान परिषदों के लिए भी चुनाव संपन्न कराये गए। पांच प्रांतों, बम्बई, मद्रास, बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के विधान परिषदों के लिए संपन्न चुनाव में कांग्रेस को आंशिक सफलता प्राप्त हुई। तब बिहार में विधान परिषद की 26 सीटें थीं, जिनमें से आठ पर कांग्रेस को सफलता मिली थी। सबसे ज्यादा मद्रास की 46 सीटों में से 26 कांग्रेस के पक्ष में गई थीं।
चुनाव के दो साल बाद ही 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। भारतीय विधान मंडल की सहमति के बिना ब्रिटिश सरकार ने भारत को युद्ध में झोंक दिया। ऐसे में देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। कांग्रेस ने मांग रखी कि युद्ध के बाद भारत को स्वतंत्र कर दिया जाए। सरकार ने इस मांग की उपेक्षा की, लिहाजा कांग्रेस कार्यकारिणी के निर्देश पर 15 नवम्बर, 1939 को प्रांतीय कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया था।
इसके पहले 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में हुआ था। जिसके अध्यक्ष सुभाष बाबू चुने गये। अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। जवाहरलाल नेहरू इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये।
उधर अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में भी व्यापक परिवर्तन हुआ। 1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे।
1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का समय आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गांधी जी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गान्धी को पत्र लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे। लेकिन गान्धीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।
इस चुनाव में सुभाष को 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गांधी जी के विरोध के बावजूद सुभाष बाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बता दिया। गांधी जी के इस बयान के बाद, 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। यहीं से सुभाष का रास्ता अलग हो जाता है।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद के पीछे सुभाष और गांधी के बीच मतभेद का कारण द्वितीय विश्व युद्ध मे कांग्रेस की रणनीति थी। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया और ब्रिटेन द्वारा कांग्रेस की सरकारों द्वारा भारत को बिना अनुमति के युद्ध मे शामिल कर लिए जाने के कारण 1939 में कांग्रेस सरकारों द्वारा त्यागपत्र दे दिये जाने की बात ऊपर आप पढ़ चुके हैं। अब जब सभी कांग्रेस सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया तो अंग्रेजों को भारतीय जन समर्थन दिखाने के लिये, स्थानीय राजनीतिक दलों और नेताओं का साथ चाहिए था। यह साथ उसे मिला मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना और हिंदू महासभा के डीवी सावरकर का। 1940 में लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने धर्म के आधार पर मुसलमानों के लिये एक अलग स्वतंत्र देश पाकिस्तान की मांग के लिये प्रस्ताव पास कर दिया था। उधर 1937 में हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने हिंदू धर्म के आधार पर हिंदू राष्ट्र की बात उठा दी थी। अब यह साम्प्रदायिक विभाजन का चरम था। पर देश की सबसे लोकप्रिय पार्टी कांग्रेस इन सबसे दूर, स्वाधीनता संग्राम के अंतिम और निर्णायक आंदोलन के लिये खुद को तैयार कर रही थी।
अंततः 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करने का निर्णय हुआ। 8 अगस्त 1942 को मुंबई के गवालिया टैंक मैदान पर अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति ने एक प्रस्ताव पारित किया था जिसे 'भारत छोड़ो' के नाम से जाता है। इससे पहले भी आजादी के संघर्ष के लिए कांग्रेस ने कई प्रस्ताव पारित किए थे लेकिन इस प्रस्ताव ने पूरी लड़ाई का नया मोड़ दे दिया था। उसी रात ब्रिटिश राज ने गांधी जी सहित सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया। कांग्रेस के इस सम्मेलन में महात्मा गांधी ने जो भाषण दिया था, उसी भाषण में उन्होंने नारा दिया था 'करो या मरो'. जिसका सीधा अर्थ निकाला गया कि भारत की जनता देश की आजादी के लिए जो कर सके वह करे। यह गांधी जी के पूर्व के आंदोलन जिसमे अहिंसा एक मौलिक शर्त होती थी का अभाव था।
9 अगस्त की सुबह अंग्रेज सरकार ने 'ऑपरेशन ज़ीरो ऑवर' के तहत कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और गांधी जी को पूना के 'आगा ख़ाँ महल' में तथा कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों को अहमदनगर के दुर्ग में रखा गया। कग्रेस को अवैध संस्था घोषित कर और इसकी सम्पत्ति को जब्त कर ली गई। जुलूसों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया. गांधी जी सहित सभी बड़े नेता जेल में थे तो आंदोलन की अगुवाई के लिए जनता और भूमिगत युवा नेताओ, जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया तथा आम जनता खुद ही संचालित किया। आंदोलन की तीव्रता बढ़ती जा रही थी और अंग्रेज सरकार हैरान थी कि बिना किसी नेता के आंदोलन चरम पर कैसे पहुंच रहा है।
सरकार ने जब इस जन आन्दोलन को दबाने के लिए लाठी और बंन्दूक का सहारा लिया तो जनता भी उग्र और हिंसक हो गई। रेल की पटरियाँ उखाड़ी गईं और स्टेशनों को आग के हवाले कर दिया गया.। मुंबई, अहमदाबाद जमशेदपुर में मज़दूरों ने हड़ताल कर दी।. संयुक्त प्रांत में बलिया एवं बस्ती, बम्बई में सतारा, बंगाल में मिदनापुर एवं बिहार के कुछ भागों में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के समय अस्थायी सरकारों का ऐलान जनता ने अपना स्थानीय नेता चुन कर, कर दिया। सरकार ने 13 फ़रवरी, 1943 ई. को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के समय हुए विद्रोहों का पूरा दोष महात्मा गाँधी एवं कांग्रेस पर लगा दिया. भारत में इस आंदोलन को अगस्त क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।
1945 की अगस्त में उधर, अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिरा दिया था और उसी के बाद यह विश्व युद्ध समाप्त हो गया। मुसोलिनी को उसी की जनता ने सड़क के किनारे लैंप पोस्ट से लटका कर फांसी दे दी। हिटलर ने आत्म हत्या कर ली। जापान ने तो अपने दो नगरों हिरोशिमा और नागासाकी की तबाही के बाद युद्ध से तौबा कर लिया है।
जिन्ना और सावरकर ने उस कठिन समय मे अंग्रेजों का जो साथ दिया था उसका तो उन्हें पुरस्कार मिलना ही था। जिन्ना, एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र के लिये ज़िद पर थे। उनके साथ मुसलमानों का बहुमत भी था। मौलाना आज़ाद, और खान अब्दुल गफार खान साहब जैसे नेता जिन्ना के खिलाफ थे और कांग्रेस के साथ थे। अगर सरहदी गांधी जैसा कोई दमदार धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व मुसलमानों में उस समय पंजाब और बंगाल में होता तो हो सकता था, जिन्ना का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। पर काश, से न तो इतिहास बदलता है और न ही जीवन।
भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध में मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा तो थीं ही। हिंदू महासभा के नेता डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी तो मुस्लिम लीग के साथ सरकार में मंत्री थे। वे 1942 के आंदोलनकारियों के दमन के पक्ष में अंग्रेजों के साथ थे। पर उस आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी भी भारत छोड़ो आंदोलन के साथ नहीं थी ।1941 में कम्युनिस्ट पार्टी भी इस जन आंदोलन के विरुद्ध हो गयी। कम्युनिस्ट पार्टी का देश के स्वाधीनता संग्राम में बहुत योगदान रहा है। लेकिन उनका दृष्टिकोण ब्रिटिश राज से मात्र आज़ादी ही नहीं थी। उनका सपना ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति और एक शोषण मुक्त समता वादी समाज बनाना था। पर वे इस आंदोलन से क्यों अलग हो गये इसका कारण वैश्विक था।
पहले द्वितीय विश्व युद्ध मे सोवियत रूस शामिल नहीं हुआ था। वह इस पचड़े से अलग था। उसके लिये यह विश्वयुद्ध बुर्जुआ और पूंजीवादी ताकतों का आपसी स्वार्थ युद्ध था। पर जब जर्मनी ने 1941 में सोवियत रूस पर हमला कर दिया और उसे लगा कि हिटलर मास्को तक चला आएगा, तब सोवियत रूस भी उस युद्ध मे मित्र राष्ट्रों के साथ आ गया। अब जब रूस ब्रिटेन के साथ हो गया तो देश का कम्युनिस्ट आंदोलन जो सोवियत रूस के साथ था कैसे ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ किसी जन आंदोलन में भाग लेता ?
इस आंदोलन ने देश को जय प्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहर लोहिया, अरुणा आसफ अली जैसे दूसरी पंक्ति के जुझारू नेता दिये। उस समय तीन बड़ी घटनाओं के कारण अंग्रेजों ने मन बना लिया था कि वे अब भारत को ग़ुलाम नहीं बनाए रख सकते। एक तो 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन की स्वयंस्फूर्त व्यापकता ने, जबकि कांग्रेस के सारे नेता जेल में थे, दूसरे, नेताजी सुभाष बाबू के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फौज के हमले के कारण, तीसरे 1945 में नेवी में विद्रोह के कारण। एक और कारण इसमें जोड़ा जा सकता है कि देश की साम्प्रदायिक स्थिति बेहद तनावपूर्ण हो गयी थी। उधर ब्रिटेन द्वितीय विश्वयुद्ध जीत तो गया था पर वह अब इस लायक नहीं बचा था कि भारत जैसे बड़े, प्रबुद्ध और जाग्रत उपनिवेश को पहले की तरह बनाये रख सखे।
भारत छोडो आंदोलन लंबी और त्रासद ग़ुलामी के बाद जनता का एक स्वयंस्फूर्त आंदोलन था। गांव गांव यह आंदोलन फैला था, पर कोई प्रत्यक्ष नेता नहीं था। सबकी अपनी अपनी सोच थी, अपनी अपनी रणनीति। वह आंदोलन नहीं एक जुनून था। भारत छोडो आंदोलन के इस स्मृति दिवस पर आंदोलन के सभी ज्ञात अज्ञात प्रतिभागियों का विनम्र स्मरण।
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment