आज बांग्ला की प्रसिद्ध लेखिका और अपने देश से कभी यहां तो कभी वहां, निर्वासित जीवन जी रही तसलीमा का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं !
उनके पहले उपन्यास लज्जा से उन्हें पढ़ने का सिलसिला जो शुरू हुआ वह आज तक जारी है। उनकी आत्मकथा के सभी भाग, निर्वासित जीवन के कष्ट सब पढ़ने पर लगता है कि क्या धर्मान्धता इतना अधिक प्रदूषित कर देती है कि सच मे लगने लगता है कि धर्म एक नशा है, अफीम है।
तसलीमा फिलहाल भारत मे हैं। कुछ दिन पहले दिल्ली में थी। अब आज कहा हैं पता नहीं। पर वे कहीं भी हों सुखी, स्वस्थ और सानन्द बनी रहें। कोलकाता उनका प्रिय शहर है। कितनी कविताएं उन्होंने कोलकाता पर लिखी हैं। पर प्रिय का साथ भी सबको कब मयस्सर होता है।
वे एक पेशेवर डॉक्टर हैं। बांग्लादेश के मयमन सिंह जिले की मूल रूप से रहने वाली तसलीमा ने ढाका से डॉक्टरी की परीक्षा पास की, कुछ दिन चिकित्सक की नौकरी भी की। फिर उनके मन का विद्रोह जागने लगा। फिर तो उनका पथ ही मुड़ गया। रुढ़ि के विरुद्ध विद्रोह तो बचपन से ही उनमें जगने लगा था।
तसलीमा ने एक मुलाक़ात में कहा भी था कि बंगाली तो चिर विद्रोही होते हैं ! यह विद्रोह धर्म के कर्मकांड के विरुद्ध शुरू होकर समाज के पाखंड के खिलाफ मुखर हो गया। और एक चिकित्सक ने आला और सर्जरी के उपकरण उठाने के बजाय कलम उठा ली, और दवाईयों के प्रेस्क्रिप्शन लिखने के बजाय तसलीमा ने कविताये, कहानियां, उपन्यास और आपबीती लिखनी शुरू कर दी।
" आप को कुछ दवाइयों के नाम याद हैं ." यह पूछने पर कहा था कभी उन्होंने,
" डॉक्टर डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं भूलता है, 6 साल पढ़ना पढता है "
फिर एक उन्मुक्त हंसी।
मैं इस परिवर्तन को नियति नहीं कहूंगा। यह शब्द तसलीमा को पसंद नहीं आएगा। और जो उन्हें पसंद नहीं उसका तो विरोध होना ही है। यही विद्रोही मन और तेवर ही तसलीमा की पहचान है। धर्म के प्रति आस्थावान उन्हें पसंद नहीं करते। वे जो सवाल उठाती हैं वे धर्म के विद्वानों को चुभते हैं। धर्म और ईश्वर के अधिकतर मानने वालों की एक तासीर यह भी होती है कि उसे जस का तस सिर्फ इसलिए मान लिया जाय कि यह धर्मग्रंथ में लिखा है और न मानने पर ईश्वर नाराज़ हो जाएगा। कभी कभी लगता है छोटी छोटी बातों पर भी एक सामान्य मनुष्य की तरह नाराज़ हो जाने और कहर बरपा देने की बात करने वाला ईश्वर हम इंसानों जैसा ही है क्या !
एक बांग्ला साहित्य के मर्मज्ञ मित्र का कहना है कि तसलीमा चाहे जो लिखें चाहे जितना लिखें पर वे बंगला के नामचीन लेखकों, विमल मित्र, शंकर, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय आदि की तुलना में नहीं टिकती हैं और उनका लेखन कहीं कहीं अश्लीलता को भी छू जाता है। वे धर्म के विषय मे आक्रामक आलोचना करती है, और फिर चाहे जो हो जाय उसे हर दशा में इसे औचित्यपूर्ण भी सिद्ध करती हैं। यही ज़िद उन्हें बांग्लादेश के धर्मांध और मुल्ला मौलवी समाज का घोषित दुश्मन बना देती है। बांग्लादेश में जो उन्हें पसंद करते हैं वे खुल कर नहीं आते हैं, और परोक्ष रूप से लोकप्रिय होने के बावजूद वह अकेली दिखती हैं।
हो सकता है साहित्य के आलोचक की दृष्टि यही कहती हो। मैंने बांग्ला साहित्य पढ़ा है पर सब अनुदित रूप में । थोड़ी बहुत बांग्ला जानने के बाद भी फर्राटे से पढ़ना मेरे लिये सम्भव नहीं है। वे भले आलोचकों की निगाह में बांग्ला के प्रथम पंक्ति के लेखकों में न शुमार हों, पर मुझे उनका लिखा, और लिखने का अंदाज़ पसंद है। मुझे उनकी साफगोई पसंद है। लिखने में जो सतत जिज्ञासा भाव उनकी किताबें जगाती रहती हैं वह मुझे पसंद है। जो पुस्तक पढ़ने के प्रेमी मित्र हैं वे इस विंदु को आसानी से समझ सकते हैं। वे भोगा और देखा गया यथार्थ लिखती हैं। और वह यथार्थ, समाज के उस विद्रूप चेहरे को दिखाता है जिसे देखते तो बहुत लोग हैं पर अभिव्यक्त करने का साहस नहीं कर पाते।
तसलीमा हिंदी कम जानती हैं। उनकी बांग्ला भी पश्चिम बंगाल की बंग्ला से थोड़ी भिन्न है। अंग्रेजी का उच्चारण भी बंगीय उच्चारण से प्रभावित है। पर हिंदी जब धीरे धीरे बोली जाय तो समझ भी लेती हैं। पर जिस समाज की वह बात करती हैं वह समाज गंगा, पद्मा से सरसब्ज एक बांग्ला समाज ही नहीं है, बल्कि थोड़े बहुत फेरबदल के साथ यह पूरे भारतीय मानस की एक कहानी है।
उनके जन्मदिन पर तसलीमा नसरीन को बधाई और शुभकामनाएं। उन्हे एक ठौर मिले, थोपी हुयी यायावरी उनकी कम हो, वे कुछ स्थिर रहें और फिर कुछ रच सकें, यह भी मेरी शुभकामना है।
और अंत मे उनकी एक छोटी कविता,
जिधर दोनों आँखें जाती हैं, जाती हूँ
कौन है सामने, आकर स्थिर खड़ा हो जाए,
और अपने दोनों हाथ बढ़ाए!
इतनी जो बीमारी है सीने में
कौन है, जो दूर करे?
© विजय शंकर सिंह
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