आज पीएम का एक भाषण टीवी पर घूम रहा है, जिसमे वे भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ने की बातें कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर सरकार है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिये और उसे अवसर भी दिया जाना चाहिये। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ यह अभियान जाति, धर्म से परे तो हो ही दल से भी ऊपर उठ कर किया जाना चाहिये। लेकिन राजनैतिक विषयों पर लिखने वाले शिवम् विज ने द प्रिंट में एक लंबा लेख भ्रष्टाचार के विरुद्ध सरकार द्वारा चलाये जा रहे अभियान को सेलेक्टिव तरह से, यानी जिसे चाहो, उसे पकड़ो और जो अपना है उसे छोड़ो के तर्ज पर चलाये जाने का उल्लेख किया है। उनके लेख में निम्न सात उन राजनेताओं के नाम हैं जो फिलहाल भाजपा में हैं और आयकर विभाग और इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट की किसी भी कार्यवाही से फिलहाल बचे हुये हैं। उक्त लेख के अनुसार, निम्न नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं पर उनपर कभी भी उनके भाजपा में रहते हुए आयकर और ईडी के छापे न पड़े हैं और न पड़ेंगे।
सरकार 2014 से ही विपक्षी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों में कार्रवाई करने की बात कर रही है पर जब इसका गंभीरता से अध्ययन किया जाएगा तो यह मिलेगा कि, यह सारी कार्यवाही, एक ढकोसला है और यह सब इतना सेलेक्टिव है कि समान प्रकार के आरोप में अगर कोई नेता भाजपा में है तो सुरक्षित है, इम्मयून है, और अगर विरोधी दल में है तो वह जांच झेल रहा है, जेल से बचने की हज़ार जुगत लगा रहा है । यह सब खेल, छुपा ढंका भी हो, ऐसा भी नहीं है, बल्कि यह सबको पता है, कि जो नेता सत्तारूढ़ दल में है वह तो फंस ही नहीं सकता और जो सत्तारूढ़ दल में नहीं है, फंसे बिना बच नहीं सकता। यह सेलेक्टिवनेस जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर एक काला धब्बा है।
इस प्रकार की कोई भी कार्यवाही, भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं कही जा सकती है, बल्कि भ्रष्टाचार में लिप्त राजनीतिक नेताओं को अपने खेमे में लाने की एक शातिर जुगत ही कही जानी चाहिये। इसे आप आखेट अभियान के दौरान होने वाला हांका भी कह सकते हैं। यदि यह अभियान, भ्रष्टाचार के खिलाफ होता तो, भ्रष्टाचार के आरोपी उन भाजपा नेताओं को छोड़ नहीं दिया जाता, जिनके समान आरोपों के आधार पर विपक्ष के नेता जांच की गर्मी झेल रहे हैं। अपनी इसी सेलेक्टिवनेस के कारण यह ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ एजेंडा विपक्ष को तंग करने का अभियान के रूप में भी कहा जा सकता है।
शिवम बिज के लेख में जिन नेताओ के खिलाफ, भ्रष्टाचार के आरोप हैं, पर सीबीआई और अन्य जांच एजेंसियां नरमी दिखाती रही हैं उनमे से कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं।
● बीएस येदियुरप्पा
कर्नाटक में भ्रष्टाचार का चेहरा होने के बावजूद वह दोबारा राज्य के मुख्यमंत्री बने हैं।येदियुरप्पा भूमि और खनन घोटाले के आरोपी हैं। उनके यहां से बरामद डायरियों में शीर्ष भाजपा नेताओं और जजों और वकीलों को भारी रकम के भुगतान का ज़िक्र होने के बाद भी आज उनका एक बड़ा कद है, और वे अधिकतर आरोपों से बरी किए जा चुके हैं।येदियुरप्पा के खिलाफ वर्षों से जांच कर रही यही सीबीआई मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं जुटा सकी है। हालांकि, अब भी सुप्रीम कोर्ट उनके खिलाफ भूमि घोटाले के एक मामले में जांच का आदेश दे सकता है।
● बेल्लारी के रेड्डी बंधु.
कर्नाटक के 2018 के चुनावों से पहले सीबीआई ने 16,500 करोड़ रुपये के खनन घोटाले में, किसी तार्किक अंत तक पहुंचे बिना, बेल्लारी बंधुओं के खिलाफ जांच को शीघ्रता से समेट लिया। भारत की संपदा की इस कदर खुली लूट के इस मामले में मोदी सरकार ने रेड्डी बंधुओं को यों ही जाने दिया क्योंकि भाजपा को उनकी जीत की ज़रूरत थी. उनके मामले को उजागर करने वाले वन सेवा के अधिकारी को मोदी सरकार ने इसी महीने बर्खास्त किया है.
● हिमंता बिस्वा शर्मा.
पूर्वोत्तर के हिमंता बिस्वा शर्मा कभी कांग्रेस पार्टी में होते थे और उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। असम भाजपा ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा था और उनके खिलाफ एक बुकलेट तक जारी किया था कि वे गुवाहाटी के जलापूर्ति घोटाले के ‘मुख्य आरोपी’ हैं। इस घोटाले को एक अमेरिकी निर्माण प्रबंधन कंपनी की संलिप्तता के कारण लुई बर्जर मामले के नाम से भी जाना जाता है। इस संबंध में अमेरिकी न्याय विभाग ने वहां के विदेशी भ्रष्टाचार कानून के तहत चार्जशीट भी दायर कर रखा है, जिसमें कंपनी पर एक अनाम मंत्री को रिश्वत देने का आरोप लगाया गया है. उस मंत्री की पहचान हिमंता के रूप में करने से लेकर उन्हें पार्टी में शामिल करने तक भाजपा ने एक लंबा रास्ता तय किया है। जैसी कि आशंका थी, असम सरकार ने जांच को धीमा कर दिया है, और भाजपा भी मामले को सीबीआई को सौंपने की अपनी पुरानी मांग को भूल चुकी है।
● शिवराज सिंह चौहान.
सीबीआई ने 2017 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री को व्यापम घोटाले में क्लीन चिट दे दी थी। इस व्यापक परीक्षा घोटाले को उजागर करने वाले कई लोगों और कई गवाहों, मीडिया के अनुमानों के अनुसार 40 से अधिक, की रहस्मय परिस्थितियों में मौत हो चुकी है।
● मुकुल रॉय.
पश्चिम बंगाल में अपने संगठनात्मक ढांचे के विस्तार की इच्छुक भाजपा ने घोटाले के दागी तृणमूल नेता मुकुल रॉय को अपना लिया।मुकुल रॉय उस समय भाजपा में शामिल हुए, जब एक स्थानीय चैनल की गुप्त रिकार्डिंग (नारद स्टिंग) में उन्हें और अन्य कई वरिष्ठ तृणमूल नेताओं को रिश्वत लेते दिखाए जाने के बाद प्रवर्तन निदेशालय ने उनसे पूछताछ की थी। रॉय शारदा चिटफंड घोटाले में भी आरोपी हैं. उनका कहना है कि कानून अपना काम करेगा। पर उनके भाजपा में शामिल होने के बाद से कानून के काम करने की गति धीमी हो गई है.
● रमेश पोखरियाल ‘निशंक’
रमेश पोखरियाल भारत के मानव संसाधन विकास मंत्री हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहने के दौरान वह दो बड़े घोटालों के केंद्र में थे। एक भूमि से संबंधित और दूसरा पनबिजली परियोजनाओं से जुड़े। भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों के कारण उनके शासन की छवि इतनी बुरी थी कि भाजपा को उन्हें 2011 में पद छोड़ने के लिए बाध्य करना पड़ा था। ज़ाहिर है, अब न तो सीबीआई को और न ही उत्तराखंड सरकार को पोखरियाल पर भ्रष्टाचार के आरोपों की तह में जाने की जल्दी है। जांच के केंद्र में होने की बजाय आज वह भारत सरकार के एक प्रमुख मंत्रालय को संभाल रहे हैं.
● नारायण राणे
भाजपा ने गत वर्ष महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे को पार्टी में शामिल कर उन्हें राज्यसभा का सांसद बना दिया। सीबीआई और ईडी को अब राणे के खिलाफ जांच करने या उनकी संपत्तियों पर छापे मारने की कोई जल्दबाज़ी नहीं है। राणे पर धनशोधन और भूमि घोटालों के आरोप हैं. महाराष्ट्र की राजनीति में उनकी छवि ‘विवादों के शीर्षस्थ परिवार’ की है.
यह कुछ उदाहरण हैं और यही मात्र मामले नहीं हैं। बल्कि लगभग सभी राज्यों में ऐसे मामले मिल जाएंगे। ऐसा भी नहीं है कि यह तासीर केवल भाजपा की ही हो। कांग्रेस के काल मे भी जांच एजेंसियों पर राजनीतिक गुणा भाग और लाभ हानि का आकलन कर के जांच करने, मुल्ज़िम फंसाने और छोड़ने का दबाव पड़ता रहता था। यह परंपरा आज भी है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई सीबीआई के एक आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में गये थे और वहां भी उन्होंने यही कहा कि " सीबीआई का अन्य अपराधों में अन्वेषण का काम तो अच्छा है, पर राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों में इसकी भूमिका उतनी सराहनीय नहीं है। " जस्टिस गोगोई का यह कथन बहुत कुछ कह जाता है। इस कथन के परिपेक्ष्य में देखें तो यह एक प्रकार से देश की सबसे प्रमुख जांच एजेंसी पर एक तंज है कि वह राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों में विधिसम्मत स्टैंड नहीं ले पाती है।
2013 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को तोता कहा था। इसका मतलब सरकार जो उसे सिखाती पढ़ाती है वही वह बोलता है। इस बात का खूब मज़ाक़ भी बना था। सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को कुछ हद तक राजनीतिक शिकंजे से मुक्त करने के लिये कुछ दिशा निर्देश भी दिए। निदेशक और अन्य को सरकार के पंजे से बचने के लिये कुछ कानूनी ताकतें भी दीं, पर सीबीआई ने कोई भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिससे यह कहा जा सके कि जांच एजेंसी ने बिना किसी बाहरी दबाव के अपना काम किया है। कोई जांच एजेंसी कितनी निष्पक्ष है और विधिनुकूल अपना काम कर रही है, यह बहुत कुछ उस व्यक्ति पर निर्भर करता है जो उस जांच को कर रहा है या उस विभाग का प्रमुख है। आज भी अपने अपने दायरे में लगभग सभी कैडर में ऐसे कर्तव्यनिष्ठ और बेजा दबाव में नहीं आने वाले अफसर हैं जो ऐसे दबावों के बावजूद अप्रभावित रहते हैं, पर उन्हें सरकार फिर ऐसी जगह रखती ही नहीं है जहां से वह सरकार के लिये असहज बन जांय।
आज का युग संचार की बहुलता का युग है। सूचना क्रांति और गूगल के रूप में हर विषय पर, लोगों को अपनी अपनी रुचि का संदर्भ पल भर में ही उपलब्ध है। सोशल मीडिया पर हर व्यक्ति अपनी प्रतिक्रिया देता ही रहता है। कुछ भी गोपन अब नहीं रहा है। हर बयान, हर कार्यवाही के ऑडियो वीडियो सरलता से उपलब्ध हो जाते हैं। कहने का आशय यह है कि जांच एजेंसी की हर हरकत का मीन मेख अदालतें तो बाद में ही निकाल पाएंगी पर उसकी बखिया सोशल मीडिया पर पहले ही उखड़ने लगती है। ऐसे में यह दायित्व जांच एजेंसियों का है कि उनकी साख बनी रहे और साख बनी रहने के लिये यह सबसे जरूरी है कि, उनके द्वारा की जा रही कार्यवाही न्यायिक और विधिक रूप से विधिनुकूल हो और दिखे भी। अगर जांचे और कार्यवाहियां सेलेक्टिव होंगी या होती हुयी दिखेंगो तो, यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध की जाने वाली कार्यवाही है या नहीं यह तो बाद में तय होगा, पर यह सेलेक्टिवनेस अपने आप मे ही एक भ्रष्टाचार का कृत्य होगा।
© विजय शंकर सिंह
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