लहूलुहान अनुच्छेद 370 की कश्मीर व्यथा कथा
दूसरी किश्त
(7) गवर्नर जनरल को अपने पत्र दिनांक 26/10/1947 द्वारा महाराजा हरिसिंह ने भारत संघ में शामिल होने का प्रस्ताव भेजा। गवर्नर जनरल ने उसे दूसरे ही दिन कुछ शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया। 23 अक्टूबर 1947 से 26 अक्टूबर तक चार दिनों की ऊहापोह में महाराजा हरिसिंह को यही इकलौता सम्मानजनक विकल्प सूझा कि भारत से तत्काल सैनिक सहायता मांगें। भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत यह तब संभव था, जब जम्मू कश्मीर से उसका रिश्ता विधिपूर्ण हो। हड़बड़ी में एक विलेख का प्रारूप तैयार किया गया जिसे अधिमिलन विलेख या Istrument of Accession कहा गया। पहले से कुछ हिस्सा चीन तथा कुछ पाकिस्तान के कब्जे में होने और कुछ को भारत ले जाते सोचते हरिसिंह के पास वक्त नहीं था। लिहाजा तय हुआ प्रतिरक्षा, संचार और विदेशी मामलों के लिए भारत संघ की संवैधानिक जिम्मेदार होगी। बाकी केंद्रीय सरकार के अधिकार जम्मू कश्मीर की हुकूमत के हवाले होंगे। 5 मार्च 1948 को महाराजा ने उत्तरदायी मंत्रिपरिषद स्थापित करते हुए उसे जिम्मेदारी सौंपी कि वह राष्ट्रीय असेम्बली का गठन कर जम्मू कश्मीर के लिए वयस्क मताधिकार के आधार पर राज्य का संविधान बनाए।
(8) अनुच्छेद 370 के इतिहास को सही संदर्भों में समझना बहुत आवश्यक है। कश्मीर का भारत में होने जा रहा विलय एक पेचीदा प्रश्न था। 26 अक्टूबर 1947 को भारत की संविधान सभा कार्यरत थी। इसके साथ साथ आजाद भारत का मंत्रिमंडल भी गठित हो चुका था। संविधान सभा की कार्यवाही में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद अध्यक्षता करते थे। मंत्रिपरिषद के कार्यसंचालन में प्रधानमंत्री नेहरू के तहत वे कृषि मंत्री रहे थे। जम्मू कश्मीर के मसले को भारी ऊहापोह, अनिश्चय, मतभेद और फिर अंततः संयुक्त जिम्मेदारी के तहत मुकाम पर पहुंचाया गया। यह कार्यवाहियों में मौजूद है कि प्रधानमंत्री नेहरू के साथ डाॅ. अंबेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी अन्य सदस्यों के अतिरिक्त समय समय पर गुफ्तगू में शामिल रहे।
कई कारणों से आखिरकार एक महत्वपूर्ण सदस्य एन. गोपालस्वामी आयंगर को अनुच्छेद 370 का प्रारूप संविधान सभा में पेश करने के लिए राजी किया गया। आज कहने में उत्तेजक लगता है मानो सब कुछ जवाहरलाल नेहरू ने किया। लेकिन जिस तरह मतभेदों के बावजूद स्वस्थ प्रजातांत्रिक प्रक्रिया अपनाते हुए हमारे कालजयी संविधान निर्माताओं ने मतभेद और सहमति के बीच बार बार और लगातार स्पेस ढूंढ़ा वह आज की संसद में कहां है? इतिहास के किसी कालखंड में क्यों और कैसा निर्णय हुआ उसकी बारीकियों, विवशताओं और शंकाओं को समझे बिना बाद की पीढ़ी फतवा दे सकती है। लेकिन आत्मावलोकन नहीं करती कि उससे कुछ भी करते धरते कितना बन रहा है।
कश्मीर जैसा महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधान बिना किसी खास बहस के सदस्यों की सर्वसम्मति से (जिनमें हिन्दू महासभा के सदस्य भी शामिल थे) केवल सदस्य एन0 गोपालस्वामी आयंगार ने लंबा भाषण देकर सदस्यों को जम्मू कश्मीर की अजीबोगरीब परिस्थितियों से वाकिफ और आश्वस्त करते हुए अनुच्छेद 370 (तब 306 (क) पारित करा लिया।
उनके भाषण के कुछ मुख्य अंशों को समझना बहुत आवश्यक हैः-
‘‘यह राज्य भारत संघ में आ गया है। प्रवेश 26 अक्तूबर 1947 को हुआ। उस वक्त से राज्य का उतार चढ़ाव वाला इतिहास रहा है। इस अधिमिलन का अर्थ है कि अब वह राज्य फेडरल राज्य अर्थात् भारत डोमिनियन की इकाई है। भारत गणतंत्र में परिवर्तित होने जा रहा है जिसका उद्घाटन 26 जनवरी 1950 को होगा। इसलिए जम्मू और कश्मीर राज्य को भारत गणराज्य की इकाई होना ही है।‘‘
‘‘इस वर्ष के शुरू में युद्ध बन्द करना तय हो चुका था और युद्ध अभी तक बन्द है। लेकिन अभी भी राज्य की हालत असामान्य तथा उथलपुथल की लगती है। अभी शान्ति नहीं हुई है। इसलिए यह जरूरी है कि राज्य के प्रशासन का संचालन तब तक इन असामान्य परिस्थितियों के संदर्भ में ही चलाया जाये जब तक वैसी शान्ति स्थापित नहीं हो जाए जो अन्य राज्यों में है।‘‘
‘‘भारत सरकार कुछ बातों के लिए कश्मीर की जनता के प्रति वचनबद्ध है। उसने स्वयं वचन दे रखा है कि राज्य की जनता को यह निश्चित करने का अवसर दिया जायेगा कि वह भारत गणराज्य के साथ रहना चाहती है या उससे बाहर जाना चाहती है। जनमत द्वारा जनता की इस इच्छा को मालूम करने के लिये भी हम वचन दे चुके हैं बशर्ते कि शान्ति का माहौल स्थापित हो जाये और निष्पक्ष जनमत की गारंटी की जा सके। हमने यह भी मान लिया है कि एक संविधान सभा द्वारा जनता की इच्छा से राज्य का संविधान निश्चित किया जायेगा तथा राज्य पर संघ के क्षेत्राधिकार की सीमा भी निश्चित की जायेगी।‘‘
‘‘इस अनुच्छेद का दूसरा भाग जम्मू और कश्मीर राज्य पर संसद् की विधायी शक्ति से सम्बद्ध है। यह मुख्यतया अधिमिलन लेख द्वारा परिमार्जित है। मोटे तौर पर वह विधायी शक्ति प्रतिरक्षा, विदेशी विषय और संचार के तीन विषयों तक सीमित है। लेकिन वास्तव में इन तीन विषयों में ही व्यापक तौर पर कुछ ऐसे मद सम्मिलित हैं जो अधिमिलन विलेख में उल्लिखित हैं।‘‘
‘‘इसके बाद स्पष्टीकरण है जिसमें परिभाषित किया गया है कि ‘राज्य की सरकार‘ से क्या अर्थ है। राज्य का संविधान जो इस समय जम्मू और कश्मीर में लागू है तथा वह उद्घोषणा भी जिसे महाराजा ने 5 मार्च 1947 को जारी किया। दोनों में राज्य की सरकार की परिभाषा की गई है। उद्घोषणा की जो शर्तें राज्य के संविधान के उपबन्धों से असंगत हैं वहां तक वैध या प्रभावशील तो मानी जायेंगी। इसी कारण इस स्पष्टीकरण में उद्घोषणा का हवाला दिया गया है। इस उद्घोषणा के तहत ही महाराजा ने एक अन्तरिम लोकप्रिय सरकार का गठन किया है।‘‘
कांग्रेस के सांसद मनीष तिवारी ने यह स्पष्ट किया है कि जनमत संग्रह का प्रस्ताव नेहरू की तरफ से नहीं भेजा गया था। बल्कि उसे गवर्नर जनरल माउंट बेटन ने कुछ शर्तों के साथ प्रस्तावित किया था। उन शर्तों में यह शामिल था कि भारत और पाकिस्तान की ओर से जम्मू कश्मीर के खिलाफ सैनिक ताकत का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। यदि पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया इस कारण जनमत संग्रह का सवाल संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाहियों से अपने आप काफूर हो गया।
(9) 370 जम्मू कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंध-(1) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी,- (क) अनुच्छेद 238 के उपबंध जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में लागू नहीं होंगे,(ख) उक्त राज्य के लिए विधि बनाने की संसद् की शक्ति,- 1) संघ सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी जिनको राष्ट्रपति, उस राज्य की सरकार से परामर्श करके, उन विषयों के तत्स्थानी विषय घोषित कर दे जो भारत डोमिनियम में उस राज्य के अधिमिलन को शामिल करने वाले अधिमिलन पत्र में ऐसे विषयों के रूप में विर्निदिष्ट है जिनके संबंध में डोमिनियन विधान-मंडल उस राज्य के लिए विधि बना सकता है,
(2) उक्त सूचियों के उन अन्य विषयों तक सीमित होगी, जो राष्ट्रपति, उस राज्य की सरकार की सहमति से, आदेष द्वारा, विनिर्दिष्ट करे। (ग) अनुच्छेद 1 और इस अनुच्छेद के उपबंध उस राज्य के संबंध में लागू होंगे, (घ) इस संविधान के ऐसे अन्य उपबंध ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, जो राष्ट्रपति आदेष द्वारा विनिर्दिष्ट करें, उस राज्य के संबंध में लागू होंगे,
परन्तु ऐसा कोई आदेश जो उपखंड (ख) के पैरा (प) में निर्दिष्ट राज्य के अधिमिलन पत्र में विनिर्दिष्ट विषयों से संबंधित है, उस राज्य की सरकार से परामर्ष करके ही किया जाएगा, अन्यथा नहींः परन्तु यह और कि ऐसा कोई आदेश जो अंतिम पूर्ववर्ती परंतुक में निर्दिष्ट विषयों से भिन्न विषयों से संबंधित है, उस सरकार की सहमति से ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं। (2) यदि खंड (1) के उपखंड (ख) के पैरा (3) में या उस खंड के उपखंड (घ) के दूसरे परंतुक में निर्दिष्ट उस राज्य की सरकार की सहमति, उस राज्य का संविधान बनाने के प्रयोजन के लिए संविधान सभा के बुलाए जाने से पहले दी जाए तो उसे ऐसे संविधान सभा के समक्ष ऐसे विनिश्चय के लिए रखा जाएगा जो वह उस पर करे। (3) इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेगा कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा या ऐसे अपवादों और उपांतरणों सहित ही और ऐसी तारीख से, प्रवर्तन में रहेगा, जो वह विनिर्दिष्ट करेः परन्तु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना निकाले जाने से पहले खंड (2) में निर्दिष्ट उस राज्य की संविधान सभा की सिफारिष आवश्यक होगी।
- क्रमशः
( कनक तिवारी )
लेखक, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के वरिष्ठ एडवोकेट हैं ।
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