जम्मूकश्मीर और अनुच्छेद 370 - कश्मीर व्यथा कथा
( तीसरीकिश्त )
(10) महाराजा हरिसिंह द्वारा दिनांक 25/11/1949 को युवराज कर्णसिंह को सभी उत्तराधिकार सौंप दिए। कर्णसिंह ने ही दिनांक 25/11/1949 को उद्घोषणा जारी की कि राज्य की विधानसभा द्वारा भारत के संविधान को उस हद तक अंगीकृत किया जाए जो जम्मू कश्मीर राज्य के लिए स्वीकार किया गया है। यही कारण है संविधान सभा ने सातवीं अनुसूची में केन्द्र को 97, राज्य को 66 और समवर्ती सूची को 47 विषय सौंपे। अंततः दिनांक 26 नंवबर 1949 को सभा की कार्यवाही के आखिरी दिन वह तय हो सका। इन तीनों सूचियों के विषयों को देसी रियासतों को दिखाकर उनका समर्थन लिया गया। जिस दिन 25 नवंबर 1949 को महाराजा हरिसिंह ने समर्थन दिया। उसी दिन संविधान सभा में अनुच्छेद सातवीं अनूसूची को पारित किया गया। भारत का संविधान 26/11/1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया। उसके तहत जम्मू कश्मीर संबंधी उपरोक्त उद्घोषणा भी समाहित हो गई। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। उसी दिन भारत के राष्ट्रपति ने संविधान (जम्मू कश्मीर पर लागू) आदेश 1950 जारी किया। दिनांक 20/04/1951 को महाराजा ने फिर उद्घोषणा जारी की जिसके अनुसरण में दिनांक 05/11/1951 को जम्मू कश्मीर की संविधान सभा गठित हुई। दिनांक 05/06/1952 को संविधान सभा ने कुछ आधाभूत सिद्धांत गढ़े जिनके संदर्भ में जम्मू कश्मीर का संविधान निर्मित किया जाना था। यह महत्वपूर्ण है कि आधारभूत सिद्धांतों में राज्य के प्रमुख का विधानसभा द्वारा 5 वर्षों या दुबारा निर्वाचन के जरिए प्रावधान किया गया। राज्य प्रमुख का नामकरण सदरे-रियासत किया गया। ऐसा प्रावधान भारत के संविधान में नहीं है। राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा बिना किसी चुनाव प्रक्रिया के नियुक्त किए जाते हैं।
(11) 1949 के अंत तक शेख अब्दुल्ला मंत्रिमंडल के दबाव के कारण महाराजा हरिसिंह को अपने सभी प्रशासनिक और संवैधानिक उत्तरदायित्व अपने पुत्र युवराज कर्णसिंह को सौंपने पड़े। जम्मू कश्मीर विधान सभा द्वारा उन्हें राज्य प्रमुख के रूप में बाकायदा दिनांक 31/10/1951 को सदरे-रियासत के नाम से निर्वाचित किया गया। उसी दिन जम्मू कश्मीर में सामंतवादी शासन का औपचारिक अंत होकर राज्य सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में आ गई। भारत सरकार ने अपनी उद्घोषणा दिनांक 15/11/1952 को राष्ट्रपति द्वारा दिए गए अनुच्छेद 370 (3) के तहत आदेश द्वारा इस स्थिति को संवैधानिक मंजूरी दी। जून 1952 में ही शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में राज्य और केन्द्र के बीच 10 सूत्रीय करार दिल्ली में भी हुआ। उसका मकसद था राज्य की संविधान सभा के अनुमोदन से केन्द्र के कितने अधिकार जम्मू कश्मीर पर लागू किए जा सकते हैं। सदरे-रियासत को भी बाकी राज्यों के राज्यपाल के समकक्ष माना गया। इसी बीच राज्य के सामने आ रही कई कठिनाइयों, चुनौतियों और मतभेदों के चलते सदरे-रियासत ने शेख अब्दुल्ला का मंत्रिमंडल दिनांक 08/08/1953 को अक्षमता और जनअविश्वास के आरोप लगाकर बर्खास्त कर दिया। वहां बख्शी गुलाम मोहम्मद के नेतृत्व की कठपुतली सरकार स्थापित हुई। वह 10 वर्षों तक भ्रष्टाचार के आरोपों सहित किसी तरह चलती रही। जम्मू कश्मीर की संविधान सभा ने भारत में अधिमिलन तथा दिल्ली में हुए करार को संवैधानिक रूप से फरवरी 1954 में पुष्ट किया।
(12) असल विवाद की जड़ भारत के राष्ट्रपति के आदेश दिनांक 14/05/1954 में है। अनुच्छेद 370 (1) के तहत राष्ट्रपति के पुराने आदेश 1950 को निरसित करते हुए संविधान (जम्मू कश्मीर पर लागू) आदेश 1954 बनाया गया। इस आदेश के जरिए भारत के संविधान के कई हिस्से जम्मू कश्मीर पर लागू किए गए। इसमें विवादित अनुच्छेद 368 संविधान संशोधन संबंधी भी था। उसमें परंतुक लगाया गया कि वह जम्मू कश्मीर राज्य पर तब तक लागू नहीं होगा जब तक वह अनुच्छेद 370 (1) के तहत लागू नहीं हो। दिनांक 17/11/1956 को जम्मू कश्मीर की संविधान सभा ने राज्य का संविधान अंगीकृत किया। उसके शेष हिस्से दिनांक 01/01/1957 को लागू किए गए। राष्ट्रपति का 1954 का आदेश बाद में 1958, 1959, 1960, 1964, 1967 और 1971 के बाद भी राज्य सरकार की सलाह से संशोधित होता रहा। इस कवायद का मुख्य मकसद और असर भारत के संविधान के प्रावधानों को ज्यादा से ज्यादा जम्मू कश्मीर पर लागू करने से था। वह मोटे तौर पर होता भी रहा।
राष्ट्रपति के 1954 के आदेश के जरिए कुछ अपवादों को छोड़कर केन्द्र के लगभग सभी क्षेत्राधिकार जम्मू कश्मीर पर लागू किए गए। केवल राज्य की संविधान सभा द्वारा जम्मूू कश्मीर का जो संविधान बनाया जाना था वह राज्य के हवाले छोड़ दिया गया। यह महत्वपूर्ण है कि 1954 के राष्ट्रपति के आदेश ने भारत सरकार और जम्मू कश्मीर के बीच किए गए करारों और वायदों को जस का तस रखा। वैसे तो भारत के अन्य राज्यों के भी संविधान बनाए गए थे। उन्हें भारत के संविधान में अनुकूलन के जरिए समाहित कर लिया गया। विशेष तथा विषम स्थितियों के चलते जम्मू कश्मीर को अधिकार दिया गया कि वह अपनी संविधान सभा द्वारा राज्य के अधिकारों के लिए एक आंतरिक संविधान की रचना करे। जम्मू कश्मीर के संविधान के बन जाने का फलितार्थ हुआ कि भारत के संविधान के भाग 6 में दिनांक 01/11/1956 के सातवें संशोधन के कारण अनुच्छेद 152 में यह उल्लेख किया गयाः-152. परिभाषा-इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, ‘‘राज्य‘‘ पद के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य नहीं है।‘‘
संविधान के अध्यापक डाॅ. डी.के. दुबे एक दिलचस्प बात कहते हैं। जब 1954 के राष्ट्रपति के प्रस्तावित आदेश का प्रारूप डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को दिया गया तो उन्होंने पत्र लिखकर प्रधानमंत्री नेहरू से पूछा कि क्या ऐसा आदेश राष्ट्रपति के द्वारा संवैधानिक रूप से किया जा सकता है। नेहरू ने भी लिखित में उत्तर दिया और उसमें लिखा कि इस संबंध में वे मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए राष्ट्रपति से अनौपचारिक चर्चा करेंगे। जाहिर है राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की आपसी संयुक्त समझ के चलते 1954 का राष्ट्रपति का आदेश संविधानसम्मत समझकर पारित किया गया। संविधान संशोधन संबंधी अनुच्छेद 368 के प्रावधान भी जम्मू कश्मीर में परंतुक के साथ लगाए गए कि ऐसा करने में भी जम्मू कश्मीर की विधानसभा से सहमति लेनी आवश्यक होगी।
यह उल्लेखनीय है कि यदि 1954 का उपरोक्त आदेश जो जम्मू कश्मीर की सरकार के जरिए वहां के नागरिकों को विशेष सुविधाएं और अन्य कई तरह के अधिकार देता है तो आज तक किसी भी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी ने उसकी संवैधानिकता को लेकर सवाल उठाया भी तो क्या हुआ? आशय तो यही हुआ कि उपरोक्त प्रावधान संवैधानिक रूप से चुनौती योग्य नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट में जब भी यह सवाल उठाया गया तो उसे संवैधानिक दृष्टि से सही माना गया क्योंकि वह एक असाधारण राजनीतिक अपवादात्मक फैसला था जो बहुत संवेदनशील पस्थितियों के रहते लेना पड़ा था। जम्मू कश्मीर संबंधी ‘अस्थायी उपबंध‘ को सुप्रीम कोर्ट ने स्थायी प्रकृति का ही करार दिया।
(13) असल में विवाद की जड़ राष्ट्रपति के उपरोक्त 1954 के विस्तृत आदेश के तहत संविधान के अनुच्छेद 35-। को परिभाषित करने से उत्पन्न हुआ। उसे संविधान के मूल पाठ के अनुच्छेद 35 और 36 के बीच में नहीं लिखा जाकर राष्ट्रपति के उपरोक्त 1954 के आदेश के तहत ही शामिल किया गया है। इसे भी सुप्रीम कोर्ट ने अपवाद समझकर संवैधानिक ही माना है।
संक्षेप में अनुच्छेद 35 । के जरिए जम्मू कश्मीर राज्य में स्थायी निवासियों की परिभाषा का अधिकार राज्य को दिया गया। ऐसे स्थायी निवासियों के पक्ष में निम्नलिखित अधिकार भी दिए गएः-
1. राज्य में नौकरी तथा रोजगार हेतु।
2. राज्य में अचल संपत्ति धारण करने का अधिकार।
3. राज्य में स्थायी रूप से निवास करना।
4. राज्य द्वारा दी जा रही छात्रवृत्तियों सहित अन्य सुविधाओं और सहूलियतों को पाने का अधिकार।
यही वह नाजुक बिन्दु है जिसने भारत के अन्य प्रदेशों के नागरिकों को जम्मू कश्मीर राज्य में उपरोक्त सुविधाओं से पूरी तौर पर वंचित कर दिया गया। इस मुद्दे को लेकर कई बार आलोचना भी हुई हैं लेकिन उपरोक्त प्रावधानों की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट द्वारा मान लेने पर राजनीतिक आंदोलनों का कोई अर्थ नहीं रह गया। यह स्थिति अटपटी होने पर भी लगातार कायम तो रही।
जम्मू कश्मीर का संविधान जनवरी 1957 से लागू हुआ। उसके अनुच्छेद 6 में स्थायी नागरिकता का उल्लेख किया गया। उपरोक्त प्रावधान के तहत दो श्रेणियों के स्थायी निवासियों की परिभाषा को संवैधानिक मान्यता दी गई। राष्ट्रपति के उपरोक्त आदेश 1954 से संलग्न कर 20/04/1927 और 27/06/1932 की दो पुरानी अधिसूचनाओं के तहत जिन्हें जम्मू कश्मीर राज्य का निवासी माना गया उसी परिभाषा को बदले बिना उस पर संवैधानिकता की मुहर चस्पा कर दी गई। संक्षेप में जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासियों को ही नौकरी/रोजगार, अचल संपत्ति का अधिग्रहण, राज्य में स्थायी निवास और छात्रवृत्ति सहित राज्य द्वारा दी गई अन्य सहायता मिलेगी। उसका लब्बोलुआब यही था कि जम्मू कश्मीर राज्य में जो भी 1927 और 1932 की अधिसूचनाओं के तहत निवास करता रहता हो उसे ही वहां का स्थायी निवासी माना जाएगा। इनमें जो व्यक्ति महाराजा गुलाब सिंह के कार्यकाल के पहले से रह रहे हों या संवत् 1942 के पहले उन्हें स्थायी नागरिक माना जाएगा। बाद में संवत् 1968 तक भी जो लोग स्थायी निवास करने राज्य में आएं उन्हें भी स्थायी निवासी माना जाएगा। इसी तरह कई और वर्गीकरण किए गए जिन्हें राज्य का स्थायी निवासी उक्त नोटिफिकेशन के तहत माना गया। समस्या की जड़ यही प्रावधान है।
( कनक तिवारी )
लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ एडवोकेट हैं और छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता रह चुके हैं।
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( विजय शंकर सिंह )
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