यूँ तो यह मद्रास की एक आम सुबह थी, लेकिन शहर के पॉश इलाके मयलापुर में अंग्रेज़ी चाय पीते कुछ संभ्रांत युवक उत्साहित लग रहे थे। वे आम युवक थे भी नहीं। एक कचहरी में प्रतिष्ठित वकील था, एक ‘द हिंदू’ अखबार के पहले स्तंभकारों में था, एक सिविल सर्वेंट था, एक रियल-एस्टेट का मालिक, एक प्रोफेसर। यह अंग्रेज़ी तालीम लिए तमिल ब्राह्मणों का जमावड़ा था, जो यह सोचते थे कि इस देश के भविष्य की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है। कुछ वैसा ही, जैसे बंबई-पूना और कलकत्ता के अभिजात्य सवर्णों को लगता था। यह भारत का ताज़ा-तरीन एलीट क्लब था, जो मैकालेवादी अंग्रेज़ी शिक्षा की नींव पर खड़ा हुआ था। रक्त से भारतीय, सोच से अंग्रेज़।
“कल का कॉंफ़्रेंस अच्छा था। तुम नहीं आए?”, एक ने कहा।
“मैं एक मुकदमे की याचिका बनाने में व्यस्त हो गया। है क्या यह थियोसॉफिकल सोसाइटी? सुना है अडयार में बड़ी जमीन मिली है उन्हें।”
“आज कल तो एकेश्वरवाद, एक सार्वभौमिक धर्म, ब्रह्म समाज, आर्य समाज, हर जगह यही बातें चल रही है। इनका भी कुछ ऐसा ही है।”
“अच्छा? मैंने तो सुना है वह मैडम ब्लाताव्सकी कुछ वू-डू करते हुए पकड़ी गयी”
“हा हा! ऑकल्ट कहते हैं उसे। कोई बौद्ध तंत्र-मंत्र है।”
“ईसाई मिशनरी तो इनसे पक्का नाराज़ हो जाएँगे।”
“नाराज़ तो हो चुके हैं। आज शाम को चलो। कोई सीक्रेट मीटिंग होने वाली है दीवान साहब के घर में।”
“दीवान रघुनाथ राव?”
“हाँ! अपनी महाजन सभा और उनकी सोसाइटी के कुछ लोग मिलने वाले हैं।”
“एजेंडा क्या है?”
“मुझे भी मालूम नहीं। मगर कुछ बड़ी योजना है।”
उस शाम सत्रह व्यक्ति मद्रास स्थित दीवान रघुनाथ राव के घर पर इकट्ठा हुए। इस मीटिंग की अध्यक्षता एक सेवानिवृत्त अंग्रेज़ अफसर कर रहे थे।
उन्होंने कहा, “मैं आप सभी गुणीजनों और प्रतिभावान विभूतियों का स्वागत करता हूँ। आप सभी इस देश के चुने हुए लोग हैं। आप सब पर अहम जिम्मेदारियाँ हैं। समाज के लिए उत्तरदायित्व है। आप में से अधिकतर लोगों ने 1857 नहीं देखा। मैंने इस देश की गरीब जनता पर वह अन्याय अपनी आँखों से देखा है। मगर अफ़सोस कि मेरे हाथ बँधे हुए थे। मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सका। मैं एक अंग्रेज़ नौकर था।
लेकिन, आप भारतीय हैं। आप सभी को इस निरंकुश राज से मुक्ति पानी है। लोकतंत्र की स्थापना करनी है। एक ऐसे राज्य की माँग करनी है, जहाँ प्रशासन आपके हाथों में हो।
मुझे मालूम पड़ा कि आप लोगों ने एक मद्रास महाजन सभा बनायी है। एक ‘द हिंदू’ अखबार छपना शुरू हो चुका है। बंबई-पूना में भी सभाएँ बनी है। कलकत्ता में मैंने कुछ प्रेसिडेंसी कॉलेज के युवाओं से बात की। उन्होंने भी एक क्लब बनाया है।
हमें इन सबको मिला कर एक राजनैतिक शक्ति खड़ी करनी है, जो ब्रिटिश राज के समक्ष जनता का प्रतिनिधित्व करे। जो आपकी माँगे रखे।
हमारी थियोसॉफिकल सोसाइटी इस कार्य में यथासंभव सहयोग देगी।”
एक युवक ने पूछा, “सर! उस शक्ति का नाम क्या होगा?”
“अभी सोचा नहीं है। अभी तो हम पहले हर साल मिलना शुरू करें।”
“इंडियन नैशनल यूनियन?”
“अच्छा सुझाव है। मैं वायसराय को चिट्ठी लिखूँगा कि हमारे इस यूनियन को हर वर्ष एक कांग्रेस (सम्मेलन) की इजाज़त दी जाए जहाँ हम देश भर के मुद्दों पर विमर्श करें।”
यह अंग्रेज़ व्यक्ति थे एओ ह्यूम, और वे सत्रह व्यक्ति (Mylapore 17) रच रहे थे नींव इंडियन नैशनल कांग्रेस की।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (7)
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