Wednesday, 29 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (9)

कुछ रहस्यमय भी घट रहा था। थियोसॉफिकल सोसाइटी की चर्चा के बिना द्रविड़ आंदोलन की बात शुरू करनी कठिन है। यह रंगमंच के सजने से पहले का नाट्यारंभ है। मद्रास में हो रही इन गतिविधियों से ही भारत का भविष्य तय होने वाला था। 

1875 में न्यूयॉर्क में कुछ विचित्र किस्म के लोग मिले, जिन्होंने एक समूह बनाया। इसका चिह्न ऐसा था जिसमें स्वास्तिक, ओम्, डेविड का सितारा, और मिस्र-ग्रीक का वह सर्प था जो अपनी पूँछ अपने मुँह में दबाए था। ये एक ऐसे धर्म की बात कर रहे थे, जिसका कोई धर्म न होगा। ये कुछ सूफ़ियाना मिज़ाज के लोग थे, जो तंत्र-मंत्र, और यहूदी कबाला जैसी विधियाँ कर रहे थे।

कश्मीर के महाराजा रणबीर सिंह भी इसी मिज़ाज के व्यक्ति थे। उन्होंने इनसे संपर्क साधा। उस समय मद्रास के एक तीस वर्ष के वकील युवक सुब्बा राव दार्शनिक हो चले थे। उन्होंने महाराज की मदद से उन्हें बुलवाया और मद्रास के एक हरे-भरे शांत इलाके अडयार में जमीन दिलवायी। वहाँ इस सोसाइटी का मुख्यालय बना। इसकी मुखिया थी एक रहस्यमयी अंग्रेज़ महिला मैडम ब्लाताव्स्की और एक अमरीकी बौद्ध मिस्टर ऑल्कॉट। इसी सोसाइटी के कार्यालय में किसी विचित्र संक्रमण से सुब्बा राव अल्पायु ही चल बसे। 

इस सोसाइटी से मद्रास के संभ्रांत तमिल ब्राह्मण आकर्षित हो रहे थे। आखिर अंग्रेज़ी में धर्म पर चर्चा हो रही थी। यूरोपीय और अमरीकियों के साथ बैठ विमर्श करने का आनंद मिलता। दयानंद सरस्वती का आर्य समाज भी इससे कुछ समय के लिए आकर्षित हो गया।

मगर इनकी मंशा क्या थी? ये कौन लोग थे? यह बात तो ब्रिटिश भी समझना चाह रहे थे कि ये फिरंगी आखिर भारत में ईसाई धर्म न लाकर क्या लाना चाहते हैं? क्या ये उस जमाने के हिप्पी किस्म के लोग थे, जो हिंदू और बौद्ध ग्रंथों में निर्वाण ढूँढ रहे थे? 

थियोसॉफिकल सोसाइटी का मूल मंत्र था- ‘सत्यम नास्ति परो धर्म:’ (नास्ति सत्यात् परो धर्म: पर आधारित)। यह दर्ज़ है कि मैडम ब्लाताव्सकी को यह मंत्र काशी के महाराजा ने बताया था। इस मंत्र का जो उन्होंने अर्थ निकाला, वह था- सत्य से बढ़ कर कोई धर्म नहीं। अर्थ तो ठीक ही था, लेकिन इसमें ‘कोई धर्म नहीं’ पर बल था। न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न बौद्ध, न यहूदी। (जबकि एक साधारण समझ वाला भारतीय भी इस श्लोक का अर्थ समझता है। यहाँ धर्म का अर्थ कर्तव्य से है, आधुनिक दुनिया के तमाम धर्मों से नहीं।) 

खैर, इसी सोसाइटी के लोगों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव रखी। यह कोई साधारण घटना नहीं थी, यह बात हम अब जानते हैं। आज़ादी से पहले के सौ साल, और आज़ादी के बाद के चार-पाँच दशक तक तो इसी दल या इसकी शाखा ने भारत का नेतृत्व किया। स्वयं गांधी जब वकालत की पढ़ाई करने गए थे तो मैडम ब्लाताव्सकी से मिले, और उन्होंने गांधी को भगवद्गीता पढ़ने का सुझाव दिया। गांधी के विचारों में सत्य के आग्रह और उनकी अपनी धर्म की परिभाषा में थियोसॉफिकल सोसाइटी का योगदान है। गांधी ने कहा कि वह मैडम ब्लाताव्स्की से प्रभावित थे, किंतु उनके रहस्यमयी विधियों पर उन्हें शंका थी।

बाद में इस सोसाइटी का जिम्मा एनी बेसेंट ने संभाला, और वह कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष भी बनी। उन्होंने बाद में तिलक के साथ मिल कर स्वराज (होम रूल) की बात की, और मदन मोहन मालवीय के साथ मिल कर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में भूमिका निभायी।

तमिलनाडु में एनी बेसेंट और इस सोसाइटी का होना एक संयोग था। लेकिन, कांग्रेस के माध्यम से तमिल ब्राह्मणों का राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ना कोई संयोग नहीं था। (गांधी के आने से पूर्व) कांग्रेस बंगाली, मराठी और तमिल ब्राह्मणों, पारसियों, कुछ यूरोपीयों, और गिने-चुने अन्य अभिजात्य सवर्णों का जमावड़ा ही थी। तमिलनाडु में यह बात लोगों को खल रही थी, क्योंकि वहाँ ब्राह्मण अति-अल्पसंख्यक थे। लेकिन, ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ बोलता कौन? धर्म की सत्ता, और प्रशासनिक सत्ता, दोनों उनके पास थी। 

एक धनाढ्य व्यवसायी दंपति वर्षों से पुत्र-कामना में मंदिरों के चक्कर लगा रहे थे। आखिर तिरुपति दर्शन के बाद उनके दो पुत्र हुए, जिनके नाम उन्होंने विष्णु अवतारों पर रखे- कृष्णास्वामी और रामास्वामी। 

उन्हें नहीं मालूम था कि यह रामास्वामी ही राम-कथा और संपूर्ण ब्राह्मण समाज के सबसे वीभत्स आलोचकों में एक बनेंगे, जब वह कहलाएँगे ‘पेरियार’।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/12/8-1884.html 
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1 comment:

  1. मैडम ब्लातावस्की क्या अंग्रेज महिला थी या रूसी?

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