यहाँ हड़बड़ा कर निष्कर्ष तक नहीं पहुँचना कि कौन ग़लत था, कौन सही। वह परिभाषा यूँ भी हर किसी की अपनी-अपनी बनती है। अभी तो यह बात शुरू ही हो रही है। इसकी पूर्वपीठिका मैं पहले ‘रिनैशां’ पुस्तक में लिख चुका हूँ कि कैसे अंग्रेज़ आए और ऊँघता-अनमना भारतीय समाज जागा।
अब अगला प्रश्न अधिक पेचीदा, किंतु सीधा निशाने पर है। बंगाल में तमाम समाज-सुधार भद्रलोक (उच्च जाति) द्वारा शुरू हुए, और वह अपनी धोती बचा-बचा कर ही सुधार करते रहे। राम मोहन राय जैसे व्यक्ति ने भी जनेऊ उतार कर नहीं फेंका। जबकि दक्षिण में यह आंदोलन ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ आक्रामक रूप से उभरा। ऐसा क्यों हुआ?
जब रेवरेंड (श्रद्धेय पादरी) रॉबर्ट काल्डवेल की ‘द्रविड़ व्याकरण’ पर पुस्तक आयी तो खलबली मच गयी।
“रेवरेंड ने लिखा है कि तमिल का मूल संस्कृत नहीं?”
“सही तो लिखा है। संस्कृत का पितृ, मातृ हमें तमिल में कहाँ मिलता है? यहाँ तो अप्पा-ताई बोलते हैं। जबकि फादर-मदर और पितृ-मातृ में साम्य है। तमिल भाषा भारोपीय आर्य शाखा से पूरी तरह भिन्न है।”
“और क्या लिखा है उन्होंने? हम कहाँ से आए?”
“हम कहीं से नहीं आए। आर्य बाहर से आए, और ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य जातियाँ बना ली।”
“हमें वह क्या कहते थे?”
“म्लेच्छ, दष्यु, असुर, राक्षस…”
“आर्य संस्कृत लेकर आए तो उससे पहले हम क्या बोलते थे?”
“भारत में कई मिलती-जुलती प्राचीन भाषाएँ थी। आज के तमिल, मलयालम, तुलु, तेलुगु और यहाँ तक कि गोंड, ओराँव आदिवासी भाषा एक ही शाखा की हैं। इनका संबंध काला सागर के निकट सीथिया वासियों से संभव है। वे आर्य से भिन्न थे।”
“आर्यों से पहले उत्तर भारतीय भाषाएँ भी तमिल जैसी होगी?”
“रेवरेंड लिखते हैं कि आर्यों का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक रहा, जिसे वह आर्यावर्त कहते थे। इस कारण वहाँ की भाषाओं में संस्कृत का प्रभाव अब अधिक है। जैसे-जैसे हम दक्षिण की ओर जाएँगे, तो संस्कृत घटता जाएगा, तमिल शाखा के शब्द बढ़ते जाएँगे।”
“लेकिन, यहाँ के मंदिर? पूजा-विधि? ब्राह्मण? संस्कृत मंत्र? ये सभी तो…”
“रेवरेंड के अनुसार मनु और रामायण के अनुयायियों ने अपनी सभ्यता का प्रभाव डालना शुरू किया। उन्होंने ही यहाँ ब्राह्मण भेजे।”
“यानी तमिल ब्राह्मण मूलत: तमिल नहीं हैं? वे संस्कृत-भाषी और आर्यों के धर्म-प्रचारक थे?”
“धर्म-प्रचारक तो खैर रेवरेंड भी हैं। उनको ब्राह्मणों की सत्ता से समस्या होगी ही। लेकिन, सोच कर देखो। पूरे तमिल प्रदेश में सिर्फ़ तीन प्रतिशत ब्राह्मण हैं। न हमारा रंग, न हमारी भाषा। वे तो अब भी हमें म्लेच्छ समझते हैं, विवाह की बात तो छोड़ो, हमें हाथ भी नहीं लगाते।”
“रेवरेंड चाहते क्या हैं? हम ईसाई बन जाएँ? हमारा धर्म क्या होगा?”
“नहीं। ऐसी बात तो नहीं लिखी। लेकिन, हम एक हो जाएँ, यह इच्छा तो है। तमिल, तेलुगु, मलयाली, कन्नड़, तुलू सब मिल जाएँ। एक भाषा, एक रंग और एक संस्कृति के लोग कहलाएँ ‘द्रविड़’।”
“और यहाँ के ब्राह्मण? वे क्या हुए?”
“वे चाहें तो हमारा साथ दें। मगर वे द्रविड़ तो कतई नहीं हैं।”
“हम्म…रेवरेंड एक अंग्रेज़ हैं। पंद्रह वर्ष पहले बाइबल के प्रचार के लिए भारत आए। उन्होंने हज़ार वर्षों से अधिक की संपूर्ण दक्षिण संस्कृति और भाषा पर एक फ़ुल एंड फाइनल किताब लिख दी? और हम मान भी लें? कुछ जल्दबाज़ी नहीं है यह?”
“तुम स्वयं पढ़ लो। एक-एक बात नाप-तौल कर, ठोक-बजा कर लिखी है”
“नाप-तौल कर….कहीं यह किताब हम तमिलों की बाइबल न बन जाए”
“तमिलों नहीं, द्रविड़ों कहो”
“कुछ वक्त दो। मैं किताब पढ़ लेता हूँ। तमिल से द्रविड़ बनने में सिर्फ़ एक किताब का फ़ासला है।”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/12/3.html
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